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Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit : मृत्युंजय स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित

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Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit : मृत्युंजय स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित

नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit में आपका स्वागत है। दोस्तों, देवासुर संग्राम से हम सभी भली-भांति परिचित हैं एक ओर जहां देवताओं के गुरू ब्रहस्पति माने जाते हैं वहीं दूसरी ओर असुरों का प्रतिनिधत्व करते हैं उनके गुरू शुक्राचार्य। शुक्राचार्य शिवजी के महान भक्त रहे हैं एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने अपनी तपस्या के बल पर शिवजी को प्रसन्न करके उनसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त कर ली थी।

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

मृत संजीवनी अर्थात वह विद्या जिसके प्रयोग से मरणासन्न अथवा मृत व्यक्ति को भी जीवित किया जा सकता था। आज की पोस्ट में हम ऐसे ही एक स्तोत्र को जानेंगे जिसके पाठ से बड़े-से-बड़े जटिल तथा दुःसाध्य रोगों का समाधान आश्चर्यजनक रूप से हो जाता है।  बाबा भोलेनाथ को समर्पित इस स्तोत्र का नाम है मृत्युंजय स्तोत्र। तो आईये, अधिक विलम्ब न करते हुये पोस्ट शुरू करते हैं।

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit : मृत्यु पर विजय प्राप्ति का स्तोत्र

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

भगवान शिव के प्रसिद्ध नाम महाकाल और मृत्युंजय हैं। शिव के मृत्युंजय नाम की सार्थकता यही है कि जिस वस्तु से जगत की मृत्यु होती है, उसे वह धारण कर लेते हैं तथा उसे भी प्रिय मानकर ग्रहण करते हैं।

शिवस्य तु वशे कालो न कालस्य वशे शिवः।

भावार्थ :— हे शिव ! काल भी आपके अधीन है, आप काल से मुक्त चिदानन्द हैं। जिसे मृत्यु को जीतना हो, उसे हे भगवन ! आपमें स्थित होना चाहिए, आपका मन्त्र ही मृत्युंजय है।

कठोपनिषद् में कहा गया है – जिस प्रकार प्राणी कढ़ी-भात को मिलाकर खा लेता है, उसी तरह प्रलयकाल में समस्त संसार प्रपंच को मिलाकर खाने वाले परमात्मा शिव मृत्यु के भी मृत्यु हैं, अतः महामृत्युंजय भी वही हैं, काल के भी काल हैं, इसी कारण महाकालेश्वर भी कहलाते हैं। उन्हीं के भय से सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, इन्द्र आदि नियम से अपने-अपने काम में लगे हैं तथा मृत्यु भी उन्हीं के भय से दौड़ रही है।

अथ श्री मृत्युंजय स्तोत्र हिन्दी अर्थ सहित प्रारंभ

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

रत्नासानुशरासनं रजताद्रिश्रृंगनिकेतनं
शिण्जिनीकतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम्।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥1॥

भावार्थ :— कैलाश के शिखर पर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने मेरुगिरि का धनुष, नागराज वासुकि की प्रत्यंचा तथा भगवान विष्णु को अग्निमय बाण बनाकर तत्काल ही दैत्यों के तीनों परों को दग्ध कर डाला अर्थात जला डाला था। सम्पूर्ण देवता जिनके चरणों की वन्दना करते हैं, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूं। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

पंचपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजद्वयशोभितं
अभाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम्।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥2॥

भावार्थ :— मन्दार, पारिजात, सन्तान, कल्पवृक्ष और हिरचन्दन इन पांच दिव्य वृ़क्षों के पुष्पों से सुगन्धित युगल चरण-कमल जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जिन्होंने अपने ललाटवर्ती नेत्र से प्रकट हुई अग्नि-ज्वाला में कामदेव के शरीर को भस्म कर डाला था।

जिनका श्रीविग्रह सदा भस्म से विभूषित रहता है, जो भव की उत्पत्ति के कारण होते हुए भी भव संसार के नाशक हैं तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं
पंकजासनपद्मलोचनापूजिताड्घ्रिसरोरुहम्।
देवसिद्धतरंगिणीकरसिक्तशीतजटाधरं
चन्द्रशेरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥3॥

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

भावार्थ :— जो मतवाले गजराज के मुख्य चर्म की चादर ओढ़े परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरण कमलों की पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और सिद्धों की नदी गंगा की तरंगों से भीगी हुई शीतल जटा धारण करते हैं, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरंकुण्डलं वृषवाहनं
नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम्।
अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥4॥

भावार्थ :— कुण्डली मारे हुए सर्पराज भी जिनके कानों में कुण्डल का काम देते हैं,  वृषभ जिनका वाहन हैं, नारद आदि मुनीश्वर सदा जिनके वैभव की स्तुति करते रहते हैं, जो समस्त भुवनों के स्वामी, अन्धकासुर का नाश करने वाले, आश्रितजनों के लिये कल्पवृक्ष के समान तथा यमराज को भी शान्त करने वाले हैं, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूं। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजंगविभूषणं
शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥5॥

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

भावार्थ :— जो यक्षराज कुबेर के सखा, ‌‌‌‌ऋषि भ्र्गु की आँख फोड़नेवाले और सर्पों के आभूषण धारण करने वाले हैं, जिनके श्रीविग्रह के सुन्दर वाम भाग को शैलराज की पुत्री मां पार्वती ने सुशोभित कर रखा है, कालकूट विष पीने के कारण जिनका कण्ठभाग नीले रंग का दिखाई देता है, जो एक हाथ में फरसा और दूसरे में मृग लिये रहते हैं, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं
दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसंघनिबर्हणं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥6॥

भावार्थ :— जो जन्म-मरण के रोग से ग्रस्त पुरुषों के लिये औषधि रूप हैं, समस्त आपत्तियों का निवारण और दक्ष यज्ञ का विनाश करने वाले हैं, सत्व, रज, तम तीनों गुण जिनके स्वरूप हैं, जो त्रिनेत्र धारण करते, भोग और मोक्षरूपी फल देते तथा सम्पूर्ण पापराशि का संहार करते हैं, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूं। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं
सर्वभूतपति परात्परमप्रमेयमनूपमम्।
भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृतिं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥7॥

भावार्थ :—जो भक्तों पर दया करने वाले हैं, अपनी पूजा करने वाले मनुष्यों के लिये अक्षय निधि होते हुए भी जो स्वयं दिगम्बर रहते हैं, जो सब भूतों अर्थात प्राणियों के स्वामी, परात्पर, अप्रमेय और उपमारहित हैं, पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और चन्द्रमा के द्वारा जिनका श्रीविग्रह सुरक्षित है, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं
संहरन्तमथ प्रपंचमशेषलोकनिवासिनम्
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥8॥

भावार्थ :— जो ब्रह्मारूप से सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करते फिर विष्णुरूप से सबके पालन में संलग्न रहते और अन्त में सारे प्रपंच का संहार करते हैं। सम्पूर्ण लोकों में जिनका निवास है तथा जो गणेश जी के पार्षदों से घिरकर दिन-रात भांति-भांति के खेल किया करते हैं, उन भगवान चन्द्रशेखर की मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेंगे ?

रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥9॥

भावार्थ :— जो दुःख को दूर करने के कारण रुद्र कहलाते हैं, जीवरूपी पशुओं का पालन करने से पशुपति, स्थिर होने से स्थाणु, गले में नीला चिन्ह धारण करने से नीलकण्ठ और भगवती उमा के स्वामी होने से उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

कालकण्ठं कलामूर्तिं कालाग्निं कालनाशनम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥10॥

भावार्थ :— जिनके कण्ठ में काला दाग है, जो कलामूर्ति, कालाग्नि स्वरूप और काल के नाशक हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? 

नीलकण्ठं विरुपाक्षं निर्मलं निरुपद्रवम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥11॥

भावार्थ :— जिनका कण्ठ नीला और नेत्र विकराल होते हुए भी जो अत्यंत निर्मल और उपद्रव रहित हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥12॥

भावार्थ :— जो वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरू नाम धारण करने वाले हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूं। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी।

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

देवदेवं जगन्नाथं देवेशमृषभध्वजम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥13॥

भावार्थ :— जो देवताओं के भी आराध्य देव, जगत के स्वामी और देवताओं पर भी शासन करने वाले हैं, जिनकी ध्वजा पर वृषभ का चिन्ह बना हुआ है, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

अनन्तमव्ययं शान्तमक्षमालाधरं हरम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति॥14॥

भावार्थ :— जो अनंत, अविकारी, शान्त, रुद्राक्षमाला धारण करने वाले तथा सबके दुःखों को हरने वाले हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

आनन्दं परमं नित्यं कैवल्यपदकारणम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥15॥

भावार्थ :— जो परमानन्दस्वरूप, नित्य एवं कैवल्यपद अर्थात मोक्ष की प्राप्ति के कारण हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम्
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युंः करिष्यति॥16॥

भावार्थ :— जो स्वर्ग और मोक्ष के दाता तथा सृष्टि, पालन और संहार के कर्ता हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

॥ इति श्री मार्कण्डेयपुराणे महामृत्युंजय स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

बालक मार्कण्डेय को दिया चिरंजीवी होने का वरदान

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

पौराणिक कथा के अनुसार महामुनि मृकण्डु के कोई संतान नहीं थी। उन्होंने अपनी पत्नी मरुद्वती के साथ तपस्या कर भगवान शंकर को प्रसन्न किया। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुये और उन्होंने मृकण्डु मुनि से कहा — “ तुम गुणहीन चिरंजीवी पुत्र चाहते हो या केवल सोलह वर्ष की आयु वाले सभी गुणों से युक्त, लोक में यशस्वी पुत्र की इच्छा रखते हो ? ” मृकण्डु मुनि ने अल्प आयु वाले किन्तु गुणवान पुत्र का वर मांगा।

समय बीता और मृकण्डु मुनि के घर सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। मरुद्वती के सौभाग्य से साक्षात भगवान शंकर का अंश ही बालक के रूप में प्रकट हुआ। मृकण्डु मुनि ने बालक के सभी संस्कार सम्पन्न किये और उसे सभी वेदों का अध्ययन कराया। बालक मार्कण्डेय केवल भिक्षा के अन्न से ही जीवन निर्वाह करता और माता-पिता की सेवा में ही लगा रहता था। Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

जब मार्कण्डेय जी 16 वर्ष के हुये तो मृकण्डु मुनि चिन्तित रहने लगे। अपने पिता को चिन्ताग्रस्त देखकर मार्कण्डेय जी ने उनसे इसका कारण पूछा।
मृकण्डु मुनि ने कहा – पिनाकधारी भगवान शंकर ने तुम्हें केवल सोलह वर्ष की आयु दी है। उसकी समाप्ति का समय अब आ पहुंचा है, इसलिए मुझे शोक हो रहा है।

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

मार्कण्डेय बोले – आप मेरे लिए शोक न करें। मैं मृत्यु को जीतने वाले, सत्पुरुषों को सब कुछ देने वाले, महाकालरूप और कालकूट विष का पान करने वाले भगवान शंकर की आराधना करके अमरत्व प्राप्त करूंगा।

मृकण्डु मुनि ने कहा – पुत्र ! तुम उन्हीं महाकाल की शरण में जाओ, उनसे बढ़कर तुम्हारा दूसरा कोई भी हितैषी नहीं है। माता-पिता की आज्ञा लेकर मार्कण्डेय जी दक्षिण समुद्र-तट पर चले गये और वहां एक शिवलिंग स्थापित किया। तीनों समय वे स्नान कर भगवान शिव की पूजा करते और अंत में मृत्युंजय स्तोत्र पढ़कर भगवान के सामने नृत्य करते थे।

जिस दिन मार्कण्डेयजी का अन्तिम दिन था, वे पूजा कर रहे थे तथा मृत्युंजय स्तोत्र पढ़ना शेष था। उसी समय मृत्युदेव को साथ लिए काल उन्हें लेने आ पहुंचा और उसने मार्कण्डेयजी के गले में फंदा डाल दिया।

मार्कण्डेयजी ने कहा – कृपया मुझे भगवान शंकर के मृत्युंजय स्तोत्र का पाठ पूरा कर लेने दें क्योंकि मैं शंकरजी की स्तुति किये बिना कहीं नहीं जाता हूं।

 

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

काल ने हंसते हुए कहा – काल इस बात की प्रतीक्ष नहीं करता कि इस पुरुष का काम पूरा हुआ है या नहीं काल तो मनुष्य को सहसा आकर दबोच लेता है।

मार्कण्डेयजी ने काल से कहा – भगवान शंकर के भक्तों पर मृत्यु, ब्रह्मा, यमराज, यमदूत और दूसरे किसी का प्रभुत्व नहीं चलता। ब्रह्मा आदि सभी देवता कु्रद्ध हो जायें तो भी वे उन्हें मारने की शक्ति नहीं रखते।

इस पर काल क्रोध में भरकर बोले – ओ दुर्बुद्धि ! गंगाजी में जितने बालू के कण हैं, उतने ब्रहमाओं का मैं संहार कर चुका हूँ। मैं तुम्हें अपना ग्रास बनाता हूँ। यों कहकर जैसे ही काल ने मार्कण्डेयजी को ग्रसना शुरु किया, उसी समय भगवान शंकर उस लिंग से प्रकट हो गये और मृत्युदेव के पाश से मार्कण्डेय को मुक्त कर उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया।

मृत्युंजय स्तोत्र के लाभ

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

• यह बात अनुभवसिद्ध है कि इस स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक कम-से-कम 108 बार पाठ करने से मराणासन्न व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाता है।

• इस स्तोत्र से मनुष्य को कहीं पर भी मृत्यु का भय नहीं सताता।

• सावन तथा शिवजी से सम्बन्धित अन्य दिवसों में इस स्तोत्र का पाठ मनुष्य को सभी पीड़ाओं से मुक्ति प्रदान करता है।Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

• मरणासन्न व्यक्ति के समक्ष इस स्तोत्र का पाठ करने से रोग से पीड़ित व्यक्ति शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ करता है।

• मृत्युंजय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात् शिवलिंग पर चढ़ाये गये जल का सेवन कराने से पीड़ित का रोग समाप्त हो जाता है।

Shri Mrityunjaya Stotram in Sanskrit

॥ इति ॥

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