fbpx

Shiv Mahimna Stotra: शिवमहिमा स्त्रोत (हिंदी अर्थ सहित)

Spread the love

Shiv Mahimna Stotra: शिवमहिमा स्त्रोत (हिंदी अर्थ सहित)।

नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट Shiv Mahimna Stotra में आपका हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, भगवान शिव को देवों के देव महादेव के रूप में पूजा जाता है। वे अपने सच्चे साधकों के प्रति जितने दयालु हैं उतने ही दुष्टों के प्रति विकराल भी। भोलेनाथ की साधना के विभिन्न प्रकार हैं जिनमें श्री शिव महिमा स्त्रोत Shiv Mahimna Stotra का एक विशिष्ट स्थान है।

सभी प्रकार के पापों का शमन करने वाला यह स्तोत्र भगवान शिव को अतिप्रिय है। यह  स्तोत्र साक्षात् शिवस्वरूप है तथा शिवभक्तों के मध्य अत्यंत प्रचलित भी है। इस पोस्ट में हम स्तोत्र का हिन्दी अर्थ भी जानेंगे। तो आईये, पोस्ट आरंभ करते हैंं।

Shiv Mahimna Stotra: शिवमहिमा स्त्रोत भावार्थ सहित

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यज्ञसदृशी

स्तुतिर्ब्रह्मादीना मपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।

अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामधि गृणन्

ममाप्येषः स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥१॥

अर्थ हे प्रभु ! बड़े—बड़े पंडित और योगीजन आपकी महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती ? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती? मैं ये नहीं मानता क्योंकि यदि ये सत्य है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलायेगी । मैं तो ऐसा मानता हूँ कि सबको अपनी मति के अनुसार स्तुति करने का अधिकार है । इसलिए हे भोलेनाथ ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति को स्वीकार करें ।

अतीतः पंथानं तव च महिमा वाड् मनसयो

रतद्व्यावृत्यायं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।

स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः

पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः ॥२॥

अर्थ हे प्रभु ! आप मन और वाणी से परे हैं इसलिए वाणी से आपकी महिमा का वर्णन कर पाना असंभव है। यही कारण है की वेद आपकी महिमा का वर्णन करते हुए ‘नेति नेति’ (मतलब ये नहीं, ये भी नहीं) कहकर रुक जाते हैं । आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है न आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते । ये आपके प्रति प्यार और पूज्यभाव का परिणाम है।

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत

स्तव ब्रह्मन्किं वा गपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।

मम त्वेतां वाणी गुणकथनपुण्येन भवतः

पुनामीत्यर्थेस्मिन् पुरमथनबुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥

अर्थ हे त्रिपुरानाशक प्रभु, आपने अमृतमय वेदों की उत्पत्ति की है । इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते हैं तो  कोई आश्चर्य नहीं होता । मैं भी अपनी मति के अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।

तवैश्चर्ये यत्तद् जगदुदयरक्षाप्रलयकृत

त्रयी वस्तु व्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।

अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं

विहंतुं व्योक्रोशीं विदधत इहै के जडधियः ॥४॥

अर्थ हे प्रभु, आप इस सृष्टि के सृजनहार हैं, पालनहार हैं और विसर्जनकार भी हैं । इस प्रकार आपके तीन स्वरूप हैं – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम । वेदों में इनके बारे में कहा गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में व्यर्थ की बातें करते रहते हैं । ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, मगर वास्त्विकता से वो मुँह नहीं मोड़ सकते।

किमिहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ॥

अतकर्यैश्वर्येत्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः ।

कुतर्कोडयंकांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥५॥

अर्थ हे प्रभु, मूर्ख लोग प्राय: तर्क करते रहते हैं कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन तत्वों से उसे बनाया गया आदि । किंतु उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं । सच पूछो तो इन सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े हैं और मेरी सीमित शक्ति से उसे कह पाना असंभव है।

अजन्मानो लोकाः किमवयवंवतोडपि जगता ।

मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादत्य भवति ॥

अनीशो वा कुर्याद भुवनजनने कः परिकरो ।

यतो मंदास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥

अर्थ हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: , भुव: – स्व: मह: जन: तप: सत्यं) का निर्माण क्या संभव है ? इस जगत का कोई रचयिता न हो,  क्या ऐसा सम्भव है ?  आपके सिवा इस सृष्टि का निर्माण कौन कर सकता है ? आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है ।

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति

प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च ।

रुचीनां वैचित्र्या दजुकुटिलनानापथजुषां ।

नृणामेको गम्य स्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥७॥

अर्थ हे प्रभु ! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग हैं – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि । लोग अपनी रुचि के अनुसार किसी एक मार्ग को पसंद करते है । किंतु जिस प्र्कार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समंदर में जाकर मिलता है उसी तरह ही, आप तक पहुँचते हैं | सचमुच, आप इतने सुगम हैं कि किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।

महोक्षः खड्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः

कपालं चेतीय त्तव वरद तंत्रोपकरणम् ।।

सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भव भ्रूप्रणिहितां

नहि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥

अर्थ हे प्रभु, आपने केवल एक दृष्टिपात से देवगण को सर्व भोग-सुख से संपन्न कर दिया, किंतु अपने लिए क्या छोडा? मात्र बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी) ! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता ।

Shiv Mahimna Stotra

ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वद्धृवमिदं

परो ध्रोव्याध्रोव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।

समस्तेडप्येतस्मि न्पुरमथन तैर्विस्मित इव

स्तुवंजिह्वेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥

अर्थ भगवन, कोई कहता है कि ये जगत सत्य है, तो कोई कहता है ये असत्य और अनित्य है । लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते हैं और आपकी भक्ति में आनंद पाते है । मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ऐसा कहना अधिक लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं ।

तवैश्वर्यं यत्ना द्यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः

परिच्छेतुं याता वनलमनलस्कंधवपुषः ।

ततो भक्तिश्रद्धा भरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत्

स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिने फलति ॥१०॥

अर्थ हे प्रभु ! जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया । ब्रह्मा और विष्णु – दोनों ने स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने का प्रयास किया  किंतु वे असफल रहे। अंतत: अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया । सचमुच, यदि कोई सच्चे मन से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों ऐसा संंभव ही नहीं है।

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं

दशास्यो यद्बाहू नभृन रणकंडुपरवशान् ।

शिरःपद्मश्रेणी रचितचरणांभोरुहबलेः

स्थिरायास्त्वद्भक्ते स्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् ॥११॥

अर्थ हे त्रिपुरानाशक ! आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये । जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया । इसी वरदान  से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ भक्ति का ही नतीजा है ।

अमुष्य त्वत्सेवा समधिगतसारं भुजवनं

बलात्कैलासेडपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः ।

अलभ्यापाताले डप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि

प्रतिष्ठा प्रत्वय्या सीध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः ॥१२॥

अर्थ आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा किंंतु इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका ले जाना चाहा । जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब माता पार्वती भयभीत हो उठीं । उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला । सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।

यदद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती

मधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः ।

न तच्चित्रं तस्मिंन्वरिवसितरि त्वच्चरणयो

र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः ॥१३॥

अर्थ हे प्रभु ! बाण जैसा साधारण राक्षस भी त्रिभुवन का स्वामी और देवराज इन्द्र से ज्यादा ऐश्वर्यवान बन गया । लेकिन इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि वो आपका परम भक्त था । जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धा,भक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।

अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा

विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयविषं संहृतवतः ।

स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो

विकारोडपि श्लाध्यो भुवनभयभंगव्यसनिनः ॥१४॥

अर्थ हे प्रभु ! जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष भी निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था । आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया । विषपान करने से आपका कंठ नीला हो गया और आप नीलकंठ कहलाये । परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को ओर बढाता है । जो व्यक्ति ओरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजापात्र बन जाता है।

असिद्धार्था नैव कवचिदपि सदेवासुरनरे

निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः ।

स पश्यन्नीश त्वामितरसरुरसाधारणमभूत्

स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः ॥१५॥

अर्थ हे प्रभु, जब आप समाधि में लीन थे तब (तारकासुर को मारने के लिए आपके द्वारा कोई पुत्र हो ऐसा सोचकर) देवों ने आपकी समाधि भंग करने के लिए कामदेव को भेजा । यूँ तो कामदेव के बाण मनुष्य हो या देवता – सब के लिए अमोघ सिद्ध होते हैं मगर आपने तो कामदेव को ही अपने तीसरे नेत्र से भस्मीभूत कर दिया । सचमुच, किसी संयमी मनुष्य का अपमान करने  से अच्छा फल नहीं मिलता।

Shiv Mahimna Stotra

Shiv Mahimna Stotra

मही पादाधाताद् व्रजति सहसा संशयपदं

पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।

मुहुद्यौंर्दोस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा

जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥१६॥

अर्थ — जब विश्व की रक्षा के लिये आपने तांडव नृत्य करना प्रारंभ किया तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठी। आपके पदप्रहार से पृथ्वी को लगा कि उसका अंत समीप है, आपकी जटा से स्वर्ग में विपदा आ पड़ी और आपकी भुजाओं के बल से वैकुंठ में खलबली मच गई । हे प्रभु ! सचमुच आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।

प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदष्टः शिरसि ते ।

जगद् द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमि

त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ॥१७॥

अर्थ गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों के कारन से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है । बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती हैं और भूमि पर बहने लगती हैं तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती हैं । इससे पता चलता है कि आपका शरीर कितना दिव्य और महिमावान है ।

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो

रथाडगे चन्द्रार्की रथचरणपाणिः शर इति ।

दिधक्षोस्ते कोडयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिर्

विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः ॥१८॥

अर्थ हे प्रभु ! आप जब (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने निकले तब आपने पृथ्वी का रथ बनाया, ब्रह्माजी को रथी किया, सूर्य और चंद्र  दो पहिये किये, मेरु पर्वत का धनुष्य बनाया और विष्णुजी का बाण लिया किंतु  इन सब की आपको क्या आवश्यकता थी ? (अर्थात् आप स्वयं इतने महान हैं कि आपको किसी का साथ लेने की जरूरत नहीं थी ।) आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।

यदिकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।

गतो भकत्युरेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा

त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥१९॥

अर्थ हे प्रभु ! हजार पद्मों (कमल) से आपकी पूजा करने का विष्णुजी का नियम था । एक बार विष्णुजी की परीक्षा करने के लिए आपने एक पद्म गायब कर दिया । तब विष्णुजी ने पद्म के बजाय अपना एक नेत्र आपके चरणों में अर्पित किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर आपने विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्रदान किया । हे प्रभु, आप तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जाग्रत रहते हो ।

Shiv Mahimna Stotra

Shiv Mahimna Stotra

क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां

क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।

अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं

श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दटपरिकरः कर्मसु जनः ॥२०॥

अर्थ हे प्रभु ! यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो । आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नहीं होता । यही वजह है कि वेदों मे श्रद्धा रखकर और आपको फलदाता मानकर हरकोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते हैं।

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता

मृषीणामार्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः ।

क्रतुभ्रषस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो।

ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः ॥२१॥

अर्थ हे प्रभु, आप यज्ञकर्ता को हमेशा फल देते हो । मगर दक्ष प्रजापति का यज्ञ, जिसमें बड़े ऋषिमुनि यज्ञकर्ता थे और जिसे देखने के लिए कई देवता पधारे थे, उसे आपने नष्ट कर दिया, क्यूँकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया। सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं।

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं

गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा ।

धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतंममुं

त्रसन्तं तेडद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः ॥२२॥

अर्थ एक बार प्रजापिता ब्रह्मा को अपनी पुत्री पर मोह हुआ। जब उसने मृगिनी का रूप धारण किया तो ब्रह्माजी ने मृग का रूप लिया । उस समय हे प्रभु! आपने हाथ में धनुष्यबाण लेकर शिकारी का रूप लिया और ब्रह्मा को मार भगाया । ब्रह्माजी नभोमंडल में अदृश्य अवश्य हुए मगर आज तक आपसे डरते रहते हैं।

स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्

पुरः प्लुष्टं दष्टवा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।

यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत देहार्धघटना

दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ॥२३॥

अर्थ हे त्रिपुरानाशक ! जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाहि और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया । अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती हैं कि आप उन पर मुग्ध हैं क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उनका है, तो ये उनका भ्रम होगा । सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है।

स्मशानेष्वाक्रीडा स्महर पिशाचाः सहचरा

श्चिताभस्मालेपः स्तगपि नृकरोटीपरिकरः ।

अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं

तथाडपि स्मर्तृणां वरद परमं मंगलमसि ॥२४॥

अर्थ हे प्रभु ! आप शमशानवासी हैं, भूत-प्रेत आपके मित्र हैं, आपके शरीर पर भस्म का लेपन है और खोपडीयों की माला आपके गले में सुहाती है । अगर बाह्य रूप से देखा जाय तो आप में कुछ मंगल या शुभ नहीं दिखाई पडता, मगर जो मनुष्य आपका स्मरण करते हैं, उसका आप सदैव शुभ और मंगल करते हैं।

Shiv Mahimna Stotra

Shiv Mahimna Stotra

मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः

प्रहष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्संगितदशः ।

यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये

दद्यत्यंतस्तत्त्वं क्रिमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥२५॥

अर्थ हे प्रभु ! आपको पाने के लिए योगी क्या—क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमाकर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते हैं और उसमें सफल होने पर हर्षाश्रु बहाते है । सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है।

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह

स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।

परिच्छिन्नामेवं त्वयिपरिणता बिभ्रतु गिरं

न विद्मस्तत्तत्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥

अर्थ हे प्रभु ! आप के बारे में कहा जाता है कि आप सूर्य हो, चंद्र हो, पंच तत्व यानि पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु भी आप ही हो । परंतु यह सोच भी संकुचित और सीमित है । क्यूँकि सच पूछो तो ऐसा क्या है जो आप नहीं हो ? मतलब कि आप ही सबकुछ हो।

त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथोत्रीनपिसुरा

नकाराद्यैर्वर्ण स्त्रिभिरभिदधत्तीर्ण विकृतिः ।

तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः

समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥२७॥

अर्थ ॐ शब्द अ, उ और म से बनता है । ये तीन शब्द तीन लोक — स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव — ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था — स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक हैं । लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरिय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है।

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां

स्तथां भीमशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।

अमुष्मिन्प्रत्येकं प्रवितरति देव श्रुतिरपि

प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योडस्मि भवते ॥२८॥

अर्थ हे प्रभो ! वेद में आपके ये आठ नाम कहे गये हैं – भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और  इशान। आपके इन सभी नामों को मैं भावपूर्वक नमस्कार करता हूं।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदवदविष्ठाय च नमो

नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः ।

नमोवर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठा च नमः

नमः सर्वस्मै ते तदिदमितिशर्वाय च नमः ॥२९॥

अर्थ हे एकांतप्रिय प्रभु ! आप सब से दूर हैं फिर भी सब के पास हैं । हे कामदेव को भस्म करनेवाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म हैं फिर भी विराट हैं।  हे तीन नेत्रोंवाले प्रभु ! आप वृद्ध हैं और युवा भी हैं । हे महादेव ! आप सब में है फिर भी सब से पर हैं। आपको मेरा प्रणाम है।

बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः

प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः ।

जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय नमो नमः

प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः ॥३०॥

अर्थ हे प्रभु, रजोगुण को धारण करके आप जगत की उत्पत्ति करते हो, आपके उस ब्रह्मा स्वरूप को मेरा प्रणाम है। तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मेरा नमस्कार है । सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को मेरा वंदन हो । और इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार है।

Shiv Mahimna Stotra

Shiv Mahimna Stotra

कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं क्व च तव

गुणसीमोल्लंधिनी शश्वद्रद्धिः इति चकितममन्दीकृत्य

मां भक्तिराधाद् वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ॥३१॥

अर्थ हे वरदाता ! मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है । मैं दुविधा में हूँ कि ऐसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता । अतः ये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।

असितगिरिसमंस्यात् कज्जलं सिंधुपात्रे

सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुर्वि ।

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं

तदपि तव गुणाना मीश पारं न याति ॥३२॥

अर्थ अगर समंदर का पात्र बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को कलम बनाकर और पृथ्वी का कागज़ बनाकर स्वयं मा शारदा दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें फिर भी हे प्रभु ! आपके गुणों को – पूर्णतया वर्णन करना कठिन है ।

असुरसुरमुनीन्द्ररर्चितस्येन्दुमौले

ग्रंथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।

सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो

रुचिरमलधुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥

अर्थ —  हे प्रभु, आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय हैं, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है, और आप सभी गुणों से पर हैं। आपके एसे दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पंदत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ ।

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्

पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान्यः ।

स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाडत्र

प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान्कीर्तिमांश्च ॥३४॥

अर्थ —  पवित्र और भक्तिभावपूर्ण हृदय से यदि कोई मनुष्य इस स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी इच्छा के अनुसार धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा। इतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा । शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होगीं।

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः ।

अघोरान्नापरो मंत्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥३५॥

अर्थ —  शिव से अधिक कृपालु कोई देव नहीं है, और शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ ना कोई स्तुति है । भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान ना कोई मंत्र है और ना ही गुरु से बढकर कोई पूजनीय तत्व।

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः ।

महिम्नस्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥३६॥

अर्थ  शिवमहिमा स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है ।

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः

शिशुशशिधरमौलेर्देव देवस्य दासः ।

स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्

स्तवनमिदमकार्षीद दिव्यदिव्यं महिम्नः ॥३७॥

अर्थ —  पुष्पंदत गंधवराज था और भगवान शंकर, जो अपने मस्तक पर चंद्र को धारण करते हैं उनका, परम भक्त था। किंतु भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ । महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने इस महिम्नस्तोत्र की रचना की है।

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं

पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्यचेताः ।

व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः

स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३८॥

अर्थ —  जो कोई मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्तिभावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देनेवाले, देवता और मुनिओं के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा । पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है।

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गंधर्वभाषितम् ।

अनौपम्यं मनोहारिशिवमीश्वरवर्णनम् ॥३९॥

अर्थ —  पुष्पदंत गांधर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है।

Shiv Mahimna Stotra

Shiv Mahimna Stotra

इत्येषा वाडमयी पूजा श्रीमच्छंकरपादयोः ।

अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः ॥४०॥

अर्थ —  हे प्रभु ! वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरणकमलों में सादर अर्पित है। कृपया इसको स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाये रखें ।

तव तत्त्वं न जानामि कीद्शोडसि महेश्वर ।

याद्सोडसि महादेव ताद्शाय नमो नमः ॥४१॥

अर्थ —  हे प्रभु! हे महेश्वर! मैं आपका सही स्वरूप नहीं पहचानता, लेकिन आपका जो भी स्वरूप है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः ।

सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते ॥४२॥

अर्थ —  यदि कोई मनुष्य यह स्तोत्र का (प्रतिदिन) केवल एक, दो या तीन बार भी पठन करेगा तो वह पवित्र और सर्व प्रकार के पाप से विमुक्त होकर शिवलोक में सुख और समृद्धि का अधिकारी होगा।

श्री पुष्पदंतमुखपंकजनिर्गतेन

स्तोत्रंण किल्बिहरेण हरप्रियेण ।

कंठस्थितेन पठितेन समाहितेन

सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः ॥४३॥

अर्थ —  जो भी मनुष्य पुष्पदंत के मुखपंकज से उदित, पाप का नाश करनेवाली, भगवान शंकर की इस अतिप्रिय  स्तुति का पठन करेगा, गान करेगा या उसे सिर्फ अपने स्थान में रखेगा, तो भोलेनाथ शिव उन पर अवश्य प्रसन्न होंगे।

॥इति ॥

दोस्तों, पोस्ट Shiv Mahimna Stotra आपको कैसी लगी, कृपया हमें कमेंट करें तथा इसी प्रकार की अन्य धार्मिक पोस्ट प्राप्त करने के लिए हमारे ब्लॉग से जुडे़ रहिये। अपना अमूल्य समय देने के लिए धन्यवाद। आपका दिन शुभ व मंगलमय हो।


Spread the love