Navdha Bhakti : श्री राम द्वारा
माता शबरी को उपदेश देना|
नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट navdha bhakti में आपका स्वागत है। दोस्तों, भक्ति क्या है ? इसका एकमात्र उत्तर है कि भक्ति विश्वास का ही एक दूसरा नाम है या यूं कहें कि हमें जिस पर विश्वास होता है हम उसी की भक्ति करते हैं। भक्ति तथा प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं।
पहले हमें अपने आराध्य से प्रेम होता है, फिर विश्वास बढ़ता है तथा उनमें समर्पण भाव जाग्रत होता है इसी को भक्ति कहते हैं। यह तो हुई सामान्य भक्ति की बात। आज हम चर्चा करेंगे नवधा भक्ति पर। नवधा भक्ति क्या है तथा इसका ज्ञान किसने किसे प्रदान किया इन प्रश्नों के उत्तर हम आज की पोस्ट में जानेंगे। तो आईये, बिना अधिक समय गंवाये पोस्ट शुरू करते हैं।
Navdha Bhakti : क्या है नवधा भक्ति ?
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार ’। अतः नवधा भक्ति का अर्थ हुआ नौ प्रकार की भक्ति’। इस भक्ति का वर्णन हमें रामायण में भी मिलता है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनं ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्म निवेदनं ॥
भावार्थ – श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवण भक्ति – जब हम भगवान की कथा मंत्र-धुन तथा भगवान के चरित्रों को सुनते हैं तो वह इस श्रेणी में आता है। पूर्व में हमें ऐसे कई प्रमाण मिलते हैं जब कथा श्रवण से भी भगवान की प्राप्ति हुई है ।
कीर्तन भक्ति – यानी भगवान के आगे नृत्य करना, अगर कोई मंत्र, जाप, पूजा, अर्चना, भले ही कुछ ना आये किन्तु भगवान की धुनों का संगीत के साथ माने किर्तार आदि वाद्यों के साथ स्मरण करना कीर्तन भक्ति navdha bhakti है ।
स्मरण भक्ति – अपने इष्ट , कुलदेवता, भगवान् का ह्रदय से आभार व्यक्त करना, उनसे प्रार्थना करना तथा निरंतर भगवान को याद करना यही स्मरण भक्ति है।
पादसेवन भक्ति – अपने आराध्य के चरणों की सेवा करना तथा स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित कर देना पादसेवन भक्ति कहलाती है।
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अर्चन भक्ति – सभी देवी – देवता को भगवान के प्रिय द्रव्यों द्वारा सहस्त्र नामों से अर्चना करना ।
वंदन भक्ति – अपने ईष्ट की ह्रदय से वंदना करना इस भक्ति के अन्तर्गत आता है।
दास्य भाव भक्ति – भगवान हमारे तथा हम भगवान के हैं, इस भाव को रखकर भगवान का दास बनकर भक्ति करना।
सख्य आत्म भक्ति – अपना मित्र तुल्य मानकर आत्मीय भाव से भगवान की भक्ति करना।
श्री रामचरितमानस में प्रभु राम का शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान| Navdha Bhakti Ramayan
अपने वनगमन की अवधि में जब भगवान श्री राम माता सीता की खोज कर रहे थे तब दण्डकारण्य में शबरी से उनकी भेंट हुई। शबरी एक भीलनी थीं जो वन में स्थित मतंग ऋषि के आश्रम में रहती थीं। मृत्यु के समय मतंग ऋषि ने शबरी से कहा था कि तुम यहीं पर श्रीराम की प्रतीक्षा करना एक दिन वे तुम्हें अवश्य दर्शन देगें।
तब से शबरी उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं तथा वृद्धा हो चुकी थीं। श्रीराम तथा लक्ष्मण जब आश्रम में पधारे तो उन्होंने उन दोनों का स्वागत किया सत्कार किया। तब उनके भक्ति भाव से प्रसन्न होकर प्रभु श्रीराम ने नवधा भक्ति navdha bhakti का ज्ञान दिया। भगवान राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-
नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
भावार्थ :— मैं आपसे अब नवधा भक्ति कहता हूँ अत: सावधान होकर सुनकर इसे अपने मन में धारण करें। पहली भक्ति है संतों का सत्संग, दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।
गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
भावार्थ :— तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा करना और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें। चौथी भक्ति गुण समूहों का गान अर्थात कीर्तन भक्ति है।
मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
भावार्थ :— मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य तथा निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना navdha bhakti।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
भावार्थ :— सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना तथा संतों को मुझसे श्रेष्ठ मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ भी प्राप्त हो, उसी में संतोष करना तथा स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
भावार्थ :— नवीं भक्ति है सरलता व सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना तथा किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनमें एक भी भक्ति होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-
सोई अतिशिय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुर्लभ गति जोई।
तो कहुं आजु सुलभ भइ सोई॥
भावार्थ :— हे माता ! मुझे वही अत्यंत प्रिय है फिर आप में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज आपके लिए सहज ही सुलभ हो गई है।
॥ इति ॥
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