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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा अठारहवां 18 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा अठारहवां 18 अध्याय

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श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “मोक्षसंन्यासयोग” नामक अठारहवाँ अध्याय ॥१८॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के अठारहवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) श्रीपार्वतीजी ने कहा– —भगवन् ! आपने सत्रहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया। अब अठारहवें अध्यायके  माहात्म्य का वर्णन कीजिये।

श्रीमहादेवजी ने कहा-—गिरिनन्दिनि ! चिन्मय आनन्द की धारा बहाने वाले अठारहवें अध्याय के पावन माहात्म्य को जो वेद से भी उत्तम है, श्रवण करो। यह सम्पूर्ण शास्त्रों का सर्वस्व, कानों में पड़ा हुआ रसायन के समान तथा संसार के यातना-जाल को छिन्न-भिन्न करनेवाला है।

सिद्ध पुरुषों के लिये यह परम रहस्य की वस्तु है। इसमें अविद्या का नाश करने की पूर्ण क्षमता है। यह भगवान् विष्णु की चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परमपद है। इतना ही नहीं, यह विवेकमयी लता का मूल, काम-क्रोध और मद को नष्ट करनेवाला, इन्द्र आदि देवताओं के चित्त का विश्राम-मन्दिर तथा सनक— सनन्दन आदि महायोगियों का मनोरञ्जन करनेवाला है।

इसके पाठमात्र से यमदूतोंकी गर्जना बंद हो जाती है। पार्वती ! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं है, जो संतप्त मानवों के त्रिविध ताप को हरनेवाला और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला हो।

अठारहवें अध्याय bhagwat geeta in hindi का लोकोत्तर माहात्म्य है। इसके सम्बन्ध में जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्तिपूर्वक सुनो। उसके श्रवणमात्रसे  जीव समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।

मेरुगिरि के शिखर पर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था। उस पुरी में देवताओं द्वारा सेवित इन्द्र शची के साथ निवास करते थे।

एक दिन वे सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतने में  ही उन्होंने देखा कि भगवान् विष्णु के दूतों से सेवित एक अन्य पुरुष वहाँ आ रहा है। इन्द्र उस नवागत पुरुष के तेज से तिरस्कृत होकर तुरंत ही अपने मणिमय सिंहासन से मण्डप में गिर पड़े।

तब इन्द्र के सेवकोंने देवलोक के साम्राज्य का मुकुट इस नूतन इन्द्रके मस्तक पर रख दिया। फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवाङ्गनाओं के साथ सब देवता उनकीआरती उतारने लगे। ऋषियों ने वेदमन्त्रों का उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये। गन्धर्वो का ललित स्वर में मङ्गलमय गान होने लगा।

इस प्रकार इस नवीन इन्द्र को सौ यज्ञों का अनुष्ठान किये बिना ही नाना प्रकार के उत्सवों से सेवित देखकर पुराने इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे ‘इसने तो मार्ग में न कभी पौंसले बनवाये हैं, न पोखरे खुदवाये हैं और न पथिकोंको विश्राम देनेवाले बड़े-बड़े वृक्ष ही लगवाये हैं।

अकाल पड़ने पर अन्नदान के द्वारा इसने प्राणियों का सत्कार भी नहीं किया है। इसके द्वारा तीर्थों में सत्र और गाँवों में यज्ञ का अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्य की दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की हैं ?’

इस चिन्ता से व्याकुल होकर इन्द्र भगवान् विष्णु से पूछने के लिये प्रेमपूर्वक क्षीरसागर के तटपर गये और वहाँ अकस्मात् अपने साम्राज्य से भ्रष्ट होने का दुःख निवेदन करते हुए बोले-‘लक्ष्मीकान्त ! मैंने पूर्वकाल में आपकी प्रसन्नता के लिये सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया था।

उसी के पुण्य से मुझे इन्द्र पदकी प्राप्ति हुई थी; किंतु इस समय स्वर्ग में कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्मका अनुष्ठान किया है और न यज्ञोंका। फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासन पर कैसे अधिकार जमाया है ?’

श्रीभगवान् बोले –इन्द्र! वह गीता के अठारहवें अध्याय में से पाँच श्लोकों का प्रतिदिन पाठ करता है। उसीके पुण्य से उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्य को प्राप्त कर लिया है। गीताके अठारहवें अध्याय bhagwat geeta katha का पाठ सब पुण्यों का शिरोमणि है। उसी का आश्रय लेकर तुम भी अपने पदपर स्थिर हो सकते हो।

भगवान् विष्णु के ये वचन सुनकर और उस उत्तम उपाय को जानकर इन्द्र ब्राह्मण का वेष बनाये गोदावरीके तटपर गये। वहाँ उन्होंने कालिकाग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा, जहाँ कालका भी मर्दन करनेवाले भगवान् कालेश्वर विराजमान हैं।

वहीं गोदावरी-तटपर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु और वेदों के पारङ्गत विद्वान् थे। वे अपने मन को वश में करके प्रतिदिन गीताके अठारहवें अध्याय का स्वाध्याय किया करते थे।

उन्हें देखकर इन्द्रने बड़ी प्रसत्रता के साथ उनके दोनों चरणों में मस्तक झुकाया और उन्हीं से अठारहवें अध्यायको पढ़ा। फिर उसी के पुण्य से उन्होंने श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लिया।

इन्द्र आदि देवताओं का पद बहुत ही छोटा है, यह जानकर वे परम हर्ष के साथ उत्तम वैकुण्ठधाम को गये। अतः यह अध्याय मुनियों के लिये श्रेष्ठ परम तत्त्व है।

श्रीमहादेवजी ने कहा—पार्वती ! अठारहवें अध्याय के इस दिव्य माहात्म्य का वर्णन समाप्त हुआ। इसके श्रवणमात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण गीताका पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया। महाभागे ! जो पुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है, वह समस्त यज्ञों का फल पाकर अन्तमें श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अठारहवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ৷৷1৷৷
saṅnyāsasya mahābāhō tattvamicchāmi vēditum.
tyāgasya ca hṛṣīkēśa pṛthakkēśiniṣūdana ৷৷1৷৷

उसके उपरान्त अर्जुन बोले, हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन् ! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ। १।

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ৷৷1৷৷
kāmyānāṅ karmaṇāṅ nyāsaṅ saṅnyāsaṅ kavayō viduḥ.
sarvakarmaphalatyāgaṅ prāhustyāgaṅ vicakṣaṇāḥ ৷৷2৷৷

श्रीकृष्ण भगवान् बोले, हे अर्जुन ! कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मो के * (* स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिये तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिये जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किये जाते हैं, उनका नाम ‘काम्यकर्म’ है।)

त्याग को संन्यास जानते हैं और कितने ही विचारकुशल पुरुष सब कर्मो के फल के त्याग को ( ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर सम्बन्धी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सब में इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम ‘सब कर्मो के फल का त्याग’ है।) त्याग कहते हैं। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ৷৷3৷৷
tyājyaṅ dōṣavadityēkē karma prāhurmanīṣiṇaḥ.
yajñadānatapaḥkarma na tyājyamiti cāparē ৷৷3৷৷

तथा कई एक विद्वान् ऐसे कहते हैं कि कर्म सभी दोषयुक्त हैं, इसलिये त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान् ऐसे कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं। ३।।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ৷৷4৷৷
niścayaṅ śrṛṇu mē tatra tyāgē bharatasattama.
tyāgō hi puruṣavyāghra trividhaḥ saṅprakīrtitaḥ ৷৷4৷৷

परन्तु हे अर्जुन ! उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुन, हे पुरुषश्रेष्ठ ! वह त्याग सात्त्विक, राजस और तामस ऐसे तीनों प्रकार का ही कहा गया है। ४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌ ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ৷৷5৷৷
yajñadānatapaḥkarma na tyājyaṅ kāryamēva tat.
yajñō dānaṅ tapaścaiva pāvanāni manīṣiṇām ৷৷5৷৷

तथा यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने के योग्य नहीं है, किन्तु वह नि:सन्देह करना कर्तव्य है; क्योंकि यज्ञ, दान और तप यह तीनों ही बुद्धिमान् *( वह मनुष्य ‘बुद्धिमान’ है, जो कि फल और आसक्ति को त्यागकर केवल भगवत्-अर्थ कर्म करता है।) पुरुषों को पवित्र करनेवाले हैं। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌ ৷৷6৷৷
ētānyapi tu karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā phalāni ca.
kartavyānīti mē pārtha niśicataṅ matamuttamam ৷৷6৷৷

इसलिये हे पार्थ ! यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म तथा और भी सम्पूर्ण श्रेष्ठ कर्म, आसक्ति को और फलों को त्यागकर, अवश्य करने चाहिये, ऐसा मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है। ६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ৷৷7৷৷
niyatasya tu saṅnyāsaḥ karmaṇō nōpapadyatē.
mōhāttasya parityāgastāmasaḥ parikīrtitaḥ ৷৷7৷৷

और हे अर्जुन ! नियत कर्म का (इसी अध्यायके श्लोक ४८ की टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिये) त्याग करना योग्य नहीं है, इसलिये मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌ ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌ ৷৷8৷৷
duḥkhamityēva yatkarma kāyaklēśabhayāttyajēt.
sa kṛtvā rājasaṅ tyāgaṅ naiva tyāgaphalaṅ labhēt ৷৷8৷৷

यदि कोई मनुष्य जो कुछ कर्म है, वह सब ही दुःख रूप है ऐसे समझकर, शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग कर दे, तो वह पुरुष उस राजस त्या गको करके भी त्याग के फलको प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् उसका वह त्याग करना व्यर्थ ही होता है। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ৷৷9৷৷
kāryamityēva yatkarma niyataṅ kriyatē.rjuna.
saṅgaṅ tyaktvā phalaṅ caiva sa tyāgaḥ sāttvikō mataḥ ৷৷9৷৷

हे अर्जुन ! करना कर्तव्य है ऐसे समझकर ही जो शास्त्रविधि से नियत किया हुआ कर्तव्यकर्म आसक्ति को और फल को त्यागकर किया जाता है, वह ही सात्त्विक त्याग माना गया है अर्थात् कर्तव्यकर्मो को स्वरूप से न त्यागकर उनमें जो आसक्ति और फल का त्यागना है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है। ९।

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ৷৷10৷৷
na dvēṣṭyakuśalaṅ karma kuśalē nānuṣajjatē.
tyāgī sattvasamāviṣṭō mēdhāvī chinnasaṅśayaḥ ৷৷10৷৷

हे अर्जुन ! जो पुरुष अकल्याणकारक कर्म से तो द्वेष नहीं करता है और कल्याणकारक कर्म में आसक्त नहीं होता है, वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त हुआ पुरुष संशयरहित, ज्ञानवान् और त्यागी है। १०।

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ৷৷11৷৷
na hi dēhabhṛtā śakyaṅ tyaktuṅ karmāṇyaśēṣataḥ.
yastu karmaphalatyāgī sa tyāgītyabhidhīyatē ৷৷11৷৷

क्योंकि देहधारी पुरुष के द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्म त्यागे जाने को शक्य नहीं हैं, इससे जो पुरुष कर्मों के फलका त्यागी है, वही त्यागी है ऐसे कहा जाता है। ११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्‌ ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्‌ ৷৷12৷৷
aniṣṭamiṣṭaṅ miśraṅ ca trividhaṅ karmaṇaḥ phalam.
bhavatyatyāgināṅ prētya na tu saṅnyāsināṅ kvacit ৷৷12৷৷

सकामी पुरुषों के कर्मका ही अच्छा, बुरा और मिला हुआ ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात् भी होता है और त्यागी* (* सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों में फल, आसक्ति और कर्तापन के अभिमान को जिसने त्याग दिया है, उसी का नाम ‘त्यागी’ है) पुरुषों के कर्मों  का फल किसी काल में भी नहीं होता; क्योंकि उनके द्वारा होनेवाले कर्म वास्तव में कर्म नहीं हैं। १२।

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌ ৷৷13৷৷
pañcaitāni mahābāhō kāraṇāni nibōdha mē.
sāṅkhyē kṛtāntē prōktāni siddhayē sarvakarmaṇām ৷৷13৷৷

हे महाबाहो ! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के सिद्ध होने में यह पाँच हेतु सांख्यसिद्धान्त में कहे गये हैं, उनको तू मेरे से भली प्रकार जान। १३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌ ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌ ৷৷14৷৷
adhiṣṭhānaṅ tathā kartā karaṇaṅ ca pṛthagvidham.
vividhāśca pṛthakcēṣṭā daivaṅ caivātra pañcamam ৷৷14৷৷

हे अर्जुन ! इस विषय में आधार ( जिसके आश्रय कर्म किये जायँ उसका नाम “आधार’ है।)  और कर्ता तथा न्यारे-न्यारे करण ( जिन-जिन इन्द्रियादिकों के और साधनोंके द्वारा कर्म किये जाते हैं, उनका नाम “करण” है।) और नाना प्रकार की न्यारी-न्यारी चेष्टा एवं वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव*(* पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारोंका नाम “दैव” है।) कहा गया है। १४।

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ৷৷15৷৷
śarīravāṅmanōbhiryatkarma prārabhatē naraḥ.
nyāyyaṅ vā viparītaṅ vā pañcaitē tasya hētavaḥ ৷৷15৷৷

क्योंकि मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्र के अनुसार अथवा विपरीत भी जो कुछ कर्म आरम्भ करता है, उसके यह पाँचों ही कारण हैं। १५।

Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ৷৷16৷৷
tatraivaṅ sati kartāramātmānaṅ kēvalaṅ tu yaḥ.
paśyatyakṛtabuddhitvānna sa paśyati durmatiḥ ৷৷16৷৷

परंतु ऐसा होने पर भी जो पुरुष अशुद्धबुद्धि ( सत्सङ्ग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिये जो उपर्युक्त साधनों से रहित है उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिये।) होने के कारण उस विषय में केवल शुद्धस्वरूप आत्मा को कर्ता देखता है, वह मलिन बुद्धिवाला अज्ञानी यथार्थ नहीं देखता है। १६।

Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

यस्य नाहङ्‍कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ৷৷17৷৷
yasya nāhaṅkṛtō bhāvō buddhiryasya na lipyatē.
hatvāpi sa imāōllōkānna hanti na nibadhyatē ৷৷17৷৷

हे अर्जुन ! जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं कर्ता हूँ, ऐसा भाव नहीं  है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और सम्पूर्ण कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है ( जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आवे तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है;

वैसे ही जिस पुरुष का देहमें अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हितके लिये ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टिमें देखी जाय तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है; क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार  के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिये वह पुरुष पाप से नहीं बंधता है।)।।१७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ৷৷18৷৷
jñānaṅ jñēyaṅ parijñātā trividhā karmacōdanā.
karaṇaṅ karma kartēti trividhaḥ karmasaṅgrahaḥ ৷৷18৷৷

हे भारत ! ज्ञाता (जानने वाले का नाम ‘ज्ञाता’ है।), ज्ञान ( जिसके द्वारा जाना जाय, उसका नाम ‘ज्ञान’ है। ), और ज्ञेय ( जानने में आने वाली वस्तु का नाम ‘ज्ञेय’ है।) । यह तीनों तो कर्म के प्रेरक हैं अर्थात इन तीनों के संयोग से तो कर्म में प्रवृत्त होने की इच्छा उत्पन्न होती है और कर्ता (कर्म करने वाले का नाम ‘कर्ता’ है।),   करण  (जिन साधनों से कर्म किया जाय उनका नाम ‘करण’ है।) और क्रिया ( करने का नाम ‘क्रिया’ है।) है यह तीनों कर्म के संग्रह हैं अर्थात् इन तीनों के संयोग से कर्म बनता है। १८।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ৷৷19৷৷
jñānaṅ karma ca kartā ca tridhaiva guṇabhēdataḥ.
prōcyatē guṇasaṅkhyānē yathāvacchṛṇu tānyapi ৷৷19৷৷

उन सबमें ज्ञान और कर्म तथा कर्ता भी गुणों के भेद से सांख्यशास्त्र में तीन-तीन प्रकार से कहे गये हैं, उनको भी तू मेरे से भली प्रकार  सुन। १९।

Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ৷৷20৷৷
sarvabhūtēṣu yēnaikaṅ bhāvamavyayamīkṣatē.
avibhaktaṅ vibhaktēṣu tajjñānaṅ viddhi sāttvikam ৷৷20৷৷

हे अर्जुन ! जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तू सात्त्विक जान। २०।

Bhagwat Geeta श्लोक 21 का अर्थ

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्‌ ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌ ৷৷21৷৷
pṛthaktvēna tu yajjñānaṅ nānābhāvānpṛthagvidhān.
vētti sarvēṣu bhūtēṣu tajjñānaṅ viddhi rājasam ৷৷21৷৷

और जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञानके द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक भावों को न्यारा न्यारा करके जानता है, उस ज्ञानको तू राजस जान। २१ ।

Bhagwat Geeta श्लोक 22 का अर्थ

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्‌ ৷৷22৷৷
yattu kṛtsnavadēkasminkāryē saktamahaitukam.
atattvārthavadalpaṅ ca tattāmasamudāhṛtam ৷৷22৷৷

और जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्णता के सदृश आसक्त है अर्थात् जिस विपरीत  द्वारा मनुष्य एक क्षणभङ्गर नाशवान्  ही आत्मा मानकर उसमें सर्वस्व की भाँति आसक्त रहता है तथा जो बिना युक्तिवाला, तत्त्व-अर्थ से रहित और तुच्छ है, वह ज्ञान तामस कहा गया है। २२।

Bhagwat Geeta श्लोक 23 का अर्थ

नियतं सङ्‍गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ৷৷23৷৷
niyataṅ saṅgarahitamarāgadvēṣataḥ kṛtam.
aphalaprēpsunā karma yattatsāttvikamucyatē ৷৷23৷৷

हे अर्जुन ! जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित, फल को न चाहनेवाले पुरुष द्वारा बिना रागद्वेष से किया हुआ है, वह कर्म सात्त्विक कहा जाता है। २३।

Bhagwat Geeta श्लोक 24 का अर्थ

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्‍कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌ ৷৷24৷৷
yattu kāmēpsunā karma sāhaṅkārēṇa vā punaḥ.
kriyatē bahulāyāsaṅ tadrājasamudāhṛtam ৷৷24৷৷

और जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त है तथा फलको चाहनेवाले और अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है। २४।

Bhagwat Geeta श्लोक 25 का अर्थ

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌ ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ৷৷25৷৷
anubandhaṅ kṣayaṅ hiṅsāmanapēkṣya ca pauruṣam.
mōhādārabhyatē karma yattattāmasamucyatē ৷৷25৷৷

तथा जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्यको न विचारकर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तामस कहा जाता है। २५।

Bhagwat Geeta श्लोक 26 का अर्थ

मुक्तसङ्‍गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ৷৷26৷৷
muktasaṅgō.nahaṅvādī dhṛtyutsāhasamanvitaḥ.
siddhyasiddhyōrnirvikāraḥ kartā sāttvika ucyatē ৷৷26৷৷

हे अर्जुन ! जो कर्ता आसक्ति से रहित और अहंकार के वचन न बोलनेवाला, धैर्य और उत्साह से युक्त, कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह कर्ता तो सात्त्विक कहा जाता है। २६।

Bhagwat Geeta श्लोक 27 का अर्थ

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ৷৷27৷৷
rāgī karmaphalaprēpsurlubdhō hiṅsātmakō.śuciḥ.
harṣaśōkānvitaḥ kartā rājasaḥ parikīrtitaḥ ৷৷27৷৷

जो आसक्ति से युक्त कर्मो के फल को चाहनेवाला और लोभी है तथा दूसरोंको कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिपायमान है, वह कर्ता राजस कहा गया है। २७।

Bhagwat Geeta श्लोक 28 का अर्थ

आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ৷৷28৷৷
ayuktaḥ prākṛtaḥ stabdhaḥ śaṭhō naiṣkṛtikō.lasaḥ.
viṣādī dīrghasūtrī ca kartā tāmasa ucyatē ৷৷28৷৷

जो विक्षेपयुक्त चित्तवाला, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरे की आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाववाला, आलसी और दीर्घसूत्री*(* ‘दीर्घसूत्री’ उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता।) है, वह कर्ता तामस कहा जाता है। २८।

Bhagwat Geeta श्लोक 29 का अर्थ

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ৷৷29৷৷
buddhērbhēdaṅ dhṛtēścaiva guṇatastrividhaṅ śrṛṇu.
prōcyamānamaśēṣēṇa pṛthaktvēna dhanañjaya ৷৷29৷৷

हे अर्जुन! तू बुद्धि का और धारण शक्ति का भी गुणों के कारण तीन प्रकार का भेद सम्पूर्णता से विभागपूर्वक मेरे से कहा हुआ सुन। २९।

Bhagwat Geeta श्लोक 30 का अर्थ

प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ৷৷30৷৷
pravṛttiṅ ca nivṛttiṅ ca kāryākāryē bhayābhayē.
bandhaṅ mōkṣaṅ ca yā vētti buddhiḥ sā pārtha sāttvikī ৷৷30৷৷

हे पार्थ ! प्रवृत्तिमार्ग*(* गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर, भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिये राजा जनक की भाँति बर्तने का नाम “प्रवृत्तिमार्ग” है।) और निवृत्तिमार्ग (देहाभिमान को त्यागकर, केवल सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित हुए,

श्रीशुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम ‘निवृत्तिमार्ग’ है।) को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को एवं भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्षको जो जिस बुद्धि तत्त्वसे जानती है, वह बुद्धि तो सात्त्विकी है।३०।

bhagwat geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 31 का अर्थ

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ৷৷31৷৷
yayā dharmamadharmaṅ ca kāryaṅ cākāryamēva ca.
ayathāvatprajānāti buddhiḥ sā pārtha rājasī ৷৷31৷৷

हे पार्थ ! जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता है, वह बुद्धि राजसी है ।३१।

Bhagwat Geeta श्लोक 32 का अर्थ

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ৷৷32৷৷
adharmaṅ dharmamiti yā manyatē tamasā৷৷vṛtā.
sarvārthānviparītāṅśca buddhiḥ sā pārtha tāmasī ৷৷32৷৷

और हे अर्जुन ! जो तमोगुण से आवृत हुई बुद्धि अधर्म को धर्म ऐसा मानती है तथा और भी सम्पूर्ण अर्थो को विपरीत ही मानती है, वह बुद्धि तामसी है। ३२।

Bhagwat Geeta श्लोक 33 का अर्थ

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ৷৷33৷৷
dhṛtyā yayā dhārayatē manaḥprāṇēndriyakriyāḥ.
yōgēnāvyabhicāriṇyā dhṛtiḥ sā pārtha sāttvikī ৷৷33৷৷

हे पार्थ ! ध्यानयोग के द्वारा जिस अव्यभिचारिणी धारणा से * (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार-दोष है, उस दोष से जो रहित है, वह ‘अव्यभिचारिणी धारणा’ है।) मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को  (मन, प्राण और इन्द्रियोंको भगवत्-प्राप्ति के लिये भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम ‘उनकी क्रियाओं को धारण करना है’।) धारण करता है वह धारणा तो सात्त्विकी है। ३३।

Bhagwat Geeta श्लोक 34 का अर्थ

यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्‍गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ৷৷34৷৷
yayā tu dharmakāmārthān dhṛtyā dhārayatē.rjuna.
prasaṅgēna phalākāṅkṣī dhṛtiḥ sā pārtha rājasī ৷৷34৷৷

और हे पृथापुत्र अर्जुन ! फल की इच्छावाला मनुष्य अति आसक्ति से जिस धारणा के द्वारा धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारणा राजसी है। ३४।

Bhagwat Geeta श्लोक 35 का अर्थ

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ৷৷35৷৷
yayā svapnaṅ bhayaṅ śōkaṅ viṣādaṅ madamēva ca.
na vimuñcati durmēdhā dhṛtiḥ sā pārtha tāmasī ৷৷35৷৷

तथा हे पार्थ ! दुष्टबुद्धिवाला मनुष्य जिस धारणा के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता और दुःख को एवं उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता है अर्थात् धारण किये रहता है, वह धारणा तामसी है। ३५।

Bhagwat Geeta श्लोक 36 का अर्थ

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ৷৷36৷৷
sukhaṅ tvidānīṅ trividhaṅ śrṛṇu mē bharatarṣabha.
abhyāsādramatē yatra duḥkhāntaṅ ca nigacchati ৷৷36৷৷

हे अर्जुन ! अब सुख भी तू तीन प्रकार का मेरे से सुन, हे भरतश्रेष्ठ ! जिस सुख में साधक पुरुष भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और दुःखों के अन्तको प्राप्त होता है। ३६।

Bhagwat Geeta श्लोक 37 का अर्थ

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌ ৷৷37৷৷
yattadagrē viṣamiva pariṇāmē.mṛtōpamam.
tatsukhaṅ sāttvikaṅ prōktamātmabuddhiprasādajam ৷৷37৷৷

वह सुख प्रथम साधन के आरम्भकाल में यद्यपि विषके सदृश भासता है* (* जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है, वैसे ही विषयों में आसक्तिवाले पुरुषको भगवत्-भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनों का अभ्यास, मर्म न जानने के कारण प्रथम विष के सदृश भासता है।) परन्तु परिणाम में अमृतके तुल्य है, इसलिये जो भगवत्-विषयक बुद्धि के प्रसादसे उत्पन्न हुआ सुख है, वह सात्त्विक कहा गया है। ३७।

Bhagwat Geeta श्लोक 38 का अर्थ

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌ ৷৷38৷৷
viṣayēndriyasaṅyōgādyattadagrē.mṛtōpamam.
pariṇāmē viṣamiva tatsukhaṅ rājasaṅ smṛtam ৷৷38৷৷

जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है, वह यद्यपि भोगकाल में अमृतके सदृश भासता है, परन्तु परिणाम में विष के सदृश ( बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाशक होने से विषय और इन्द्रियों के संयोग से होनेवाले सुखको “परिणाम में विष के सदृश” कहा है।) है, इसलिये वह सुख राजस कहा गया है। ३८।

Bhagwat Geeta श्लोक 39 का अर्थ

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ৷৷39৷৷
yadagrē cānubandhē ca sukhaṅ mōhanamātmanaḥ.
nidrālasyapramādōtthaṅ tattāmasamudāhṛtam ৷৷39৷৷

तथा जो सुख भोगकाल में और परिणाम में भी आत्माको मोहनेवाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न हुआ सुख तामस कहा गया है। ३९।

Bhagwat Geeta श्लोक 40 का अर्थ

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः ৷৷40৷৷
na tadasti pṛthivyāṅ vā divi dēvēṣu vā punaḥ.
sattvaṅ prakṛtijairmuktaṅ yadēbhiḥ syātitrabhirguṇaiḥ ৷৷40৷৷

और हे अर्जुन ! पृथ्वी में या स्वर्गमें अथवा देवताओं में ऐसा वह कोई भी प्राणी नहीं है कि जो इन प्रकृति से उत्पन्न हुए तीनों गुणोंसे रहित हो, क्योंकि यावन्मात्र सर्व जगत् त्रिगुणमयी माया का ही विकार है। ४०।

Bhagwat Geeta श्लोक 41 का अर्थ

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ৷৷41৷৷
brāhmaṇakṣatriyaviśāṅ śūdrāṇāṅ ca paraṅtapa.
karmāṇi pravibhaktāni svabhāvaprabhavairguṇaiḥ ৷৷41৷৷

इसलिये हे परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के भी कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों करके विभक्त किये गये हैं अर्थात् पूर्वकृत कर्मो के संस्कार रूप स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं। ४१।

Bhagwat Geeta श्लोक 42 का अर्थ

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌ ৷৷42৷৷
śamō damastapaḥ śaucaṅ kṣāntirārjavamēva ca.
jñānaṅ vijñānamāstikyaṅ brahmakarma svabhāvajam ৷৷42৷৷

उनमें अन्तःकरण का निग्रह, इन्द्रियोंका दमन, बाहर-भीतर की शुद्धि, धर्म के लिये कष्ट सहन करना और क्षमा भाव एवं मन, इन्द्रियाँ और शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि, शास्त्र विषयक ज्ञान और परमात्म तत्त्व का अनुभव भी, ये तो ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। ४२।

Bhagwat Geeta श्लोक 43 का अर्थ

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌ ৷৷43৷৷
śauryaṅ tējō dhṛtirdākṣyaṅ yuddhē cāpyapalāyanam.
dānamīśvarabhāvaśca kṣātraṅ karma svabhāvajam ৷৷43৷৷

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में भी न भागने का स्वभाव एवं दान और स्वामिभाव अर्थात् निःस्वार्थभाव से सबका हित सोचकर शास्त्राज्ञानुसार शासन द्वारा प्रेमके सहित पुत्रतुल्य प्रजा को पालन करनेका भाव-ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। ४३।

श्लोक 44 का अर्थ

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्‌।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌ ৷৷44৷৷
kṛṣigaurakṣyavāṇijyaṅ vaiśyakarma svabhāvajam.
paricaryātmakaṅ karma śūdrasyāpi svabhāvajam ৷৷44৷৷

खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार* (* वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तुमें दूसरी (खराब) वस्तु मिलाकर दे देना अथवा (अच्छी) ले लेना तथा नफा,

आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरे के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है, उसका नाम ‘सत्य व्यवहार’ है।), ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं और सब वर्गों की सेवा करना-यह शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। ४४।

श्लोक 45 का अर्थ

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ৷৷45৷৷
svē svē karmaṇyabhirataḥ saṅsiddhiṅ labhatē naraḥ.
svakarmanirataḥ siddhiṅ yathā vindati tacchṛṇu ৷৷45৷৷

एवं इस अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य भगवत्-प्राप्तिरूप परमसिद्धि को प्राप्त होता है, परंतु जिस प्रकार से अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधिको तू मेरेसे सुन। ४५।

श्लोक 46 का अर्थ

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ৷৷46৷৷
yataḥ pravṛttirbhūtānāṅ yēna sarvamidaṅ tatam.
svakarmaṇā tamabhyarcya siddhiṅ vindati mānavaḥ ৷৷46৷৷

हे अर्जुन ! जिस परमात्मा से सर्वभूतों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्वजगत् व्याप्त है*(* जैसे बर्फ जल से व्याप्त है वैसे ही सम्पूर्ण संसार सच्चिदानन्दघन परमात्मा से व्याप्त है।) उस परमेश्वरको अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा पूजकर ( जैसे पतिव्रता स्त्री पति को ही सर्वस्व समझकर, पति का चिन्तन करती हुई, पति के आज्ञानुसार, पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर, परमेश्वर का चिन्तन करते हुए परमेश्वर की आज्ञाके अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वरके ही लिये स्वाभाविक कर्तव्यकर्म का आचरण करना “कर्मद्वारा परमेश्वर को पूजना” है।) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त होता है। ४६।

श्लोक 47 का अर्थ

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ৷৷47৷৷
śrēyānsvadharmō viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt.
svabhāvaniyataṅ karma kurvannāpnōti kilbiṣam ৷৷47৷৷

इसलिये अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरेके धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है; क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको नहीं प्राप्त होता। ४७ ।

bhagwat geeta

श्लोक 48 का अर्थ

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ৷৷48৷৷
sahajaṅ karma kauntēya sadōṣamapi na tyajēt.
sarvārambhā hi dōṣēṇa dhūmēnāgnirivāvṛtāḥ ৷৷48৷৷

अतएव हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त भी स्वाभाविक ( प्रकृति के अनुसार शास्त्रविधि से नियत किये हुए जो वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं, उनको ही यहाँ “स्वधर्म”, “सहजकर्म”, “स्वकर्म” “नियतकर्म”, “स्वभावजकर्म”, “स्वभावनियत कर्म” इत्यादि नामों से कहा है।) कर्म को नहीं त्यागना चाहिये; क्योंकि धुएँसे अग्निके सदृश सब ही कर्म किसी-न-किसी दोषसे आवृत हैं। ४८।

श्लोक 49 का अर्थ

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ৷৷49৷৷
asaktabuddhiḥ sarvatra jitātmā vigataspṛhaḥ.
naiṣkarmyasiddhiṅ paramāṅ saṅnyāsēnādhigacchati ৷৷49৷৷

हे अर्जुन ! सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्तःकरणवाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा भी परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है अर्थात् क्रियारहित शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्मा की प्राप्तिरूप परमसिद्धि को प्राप्त होता है। ४९।

श्लोक 50 का अर्थ

सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ৷৷50৷৷
siddhiṅ prāptō yathā brahma tathāpnōti nibōdha mē.
samāsēnaiva kauntēya niṣṭhā jñānasya yā parā ৷৷50৷৷

इसलिये हे कुन्तीपुत्र ! अन्तःकरण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जैसे सांख्ययोगके द्वारा सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होता है तथा जो तत्त्वज्ञानकी परानिष्ठा है, उसको भी तू मेरेसे संक्षेपसे जान। ५०।।

श्लोक 51-52 का अर्थ

बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ৷৷51৷৷
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ৷৷52৷৷
buddhyā viśuddhayā yuktō dhṛtyā৷৷tmānaṅ niyamya ca.
śabdādīn viṣayāṅstyaktvā rāgadvēṣau vyudasya ca ৷৷51৷৷
viviktasēvī laghvāśī yatavākkāyamānasaḥ.
dhyānayōgaparō nityaṅ vairāgyaṅ samupāśritaḥ ৷৷52৷৷

हे अर्जुन ! विशुद्ध बुद्धिसे युक्त, एकान्त और शुद्ध देशका सेवन करनेवाला तथा मिताहारी*  (* हलका और अल्प आहार करनेवाला।), जीते हुए मन, वाणी, शरीरवाला और दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरन्तर ध्यानयोग के परायण हुआ, सात्त्विक धारणा से*(* गीता अध्याय १८ श्लोक ३३में जिसका विस्तार है) अन्तःकरण को वशमें करके तथा शब्दादिक विषयों को त्यागकर और राग-द्वेषोंको नष्ट करके। ५१-५२।

श्लोक 53 का अर्थ

अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ৷৷53৷৷
ahaṅkāraṅ balaṅ darpaṅ kāmaṅ krōdhaṅ parigraham.
vimucya nirmamaḥ śāntō brahmabhūyāya kalpatē ৷৷53৷৷

तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और संग्रह को त्यागकर ममतारहित और शान्त-अन्तःकरण हुआ, सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें एकीभाव होने के लिये योग्य होता है। ५३।

श्लोक 54 का अर्थ

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌ ৷৷54৷৷
brahmabhūtaḥ prasannātmā na śōcati na kāṅkṣati.
samaḥ sarvēṣu bhūtēṣu madbhaktiṅ labhatē parām ৷৷54৷৷

फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्न चित्तवाला पुरुष न तो किसी वस्तुके लिये शोक करता है और न किसी की आकाङ्क्षा ही करता है एवं सब भूतों में समभाव हुआ  मेरी पराभक्ति को (जो तत्त्वज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता, वही यहाँ “पराभक्ति”, “ज्ञानकी परानिष्ठा”, “परमनैष्कर्म्यसिद्धि” और “परमसिद्धि” इत्यादि नामोंसे कही गयी है। )प्राप्त होता है। ५४।

श्लोक 55 का अर्थ

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌ ৷৷55৷৷
bhaktyā māmabhijānāti yāvānyaścāsmi tattvataḥ.
tatō māṅ tattvatō jñātvā viśatē tadanantaram ৷৷55৷৷

उस पराभक्ति के द्वारा मेरे को तत्त्वसे भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाववाला हूँ तथा उस भक्ति से मेरेको तत्त्वसे जानकर तत्काल ही मेरे में प्रवेश हो जाता है अर्थात् अनन्यभाव  से मेरेको प्राप्त हो जाता है, फिर उसकी दृष्टिमें  मुझ वासुदेवके सिवा और कुछ भी नहीं रहता। ५५।।

श्लोक 56 का अर्थ

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌ ৷৷56৷৷
sarvakarmāṇyapi sadā kurvāṇō madvyapāśrayaḥ.
matprasādādavāpnōti śāśvataṅ padamavyayam ৷৷56৷৷

मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मो को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परम पद को प्राप्त हो जाता है। ५६।

श्लोक 57 का अर्थ

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ৷৷57৷৷
cētasā sarvakarmāṇi mayi saṅnyasya matparaḥ.
buddhiyōgamupāśritya maccittaḥ satataṅ bhava ৷৷57৷৷

इसलिये हे अर्जुन ! तू सब कर्मो को मन से मेरे में अर्पण करके, मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग का अवलम्बन करके निरन्तर मेरे में चित्तवाला हो। ५७।

श्लोक 58 का अर्थ

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ৷৷58৷৷
maccittaḥ sarvadurgāṇi matprasādāttariṣyasi.
atha cēttvamahaṅkārānna śrōṣyasi vinaṅkṣyasi ৷৷58৷৷

इस प्रकार तू मेरे में निरन्तर मनवाला हुआ मेरी कृपा से जन्म-मृत्यु आदि सब संकटों को अनायास ही तर जायगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जायगा। ५८।

श्लोक 59 का अर्थ

यदहङ्‍कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति  ৷৷59৷৷
yadahaṅkāramāśritya na yōtsya iti manyasē.
mithyaiṣa vyavasāyastē prakṛtistvāṅ niyōkṣyati ৷৷59৷৷

जो तू अहंकार को अवलम्बन करके ऐसा मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है; क्योंकि क्षत्रियपन का स्वभाव तेरे को जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा। ५९।।

श्लोक 60 का अर्थ

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्‌  ৷৷60৷৷
svabhāvajēna kauntēya nibaddhaḥ svēna karmaṇā.
kartuṅ nēcchasi yanmōhātkariṣyasyavaśō.pi tat ৷৷60৷৷

हे अर्जुन ! जिस कर्म को तू मोह से नहीं करना चाहता है, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा। ६०।

श्लोक 61 का अर्थ

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ৷৷61৷৷
īśvaraḥ sarvabhūtānāṅ hṛddēśē.rjuna tiṣṭhati.
bhrāmayansarvabhūtāni yantrārūḍhāni māyayā ৷৷61৷৷

क्योंकि हे अर्जुन! शरीररूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मो के अनुसार भ्रमाता हुआ सब भूतप्राणियोंके हृदय में स्थित है। ६१।

श्लोक 62 का अर्थ

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌ ৷৷62৷৷
tamēva śaraṇaṅ gaccha sarvabhāvēna bhārata.
tatprasādātparāṅ śāntiṅ sthānaṅ prāpsyasi śāśvatam ৷৷62৷৷

bhagwat geeta

इसलिये हे भारत ! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्यशरण को*(* लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता-ममता से रहित होकर केवल एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परमगति और सर्वस्व समझना ,

तथा अनन्य भावसे, अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान्के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना एवं भगवान्का भजन-स्मरण रखते हुए ही उनके आज्ञानुसार कर्तव्यकर्मों का नि:स्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिये आचरण करना, यह “सब प्रकार से परमात्मा के अनन्यशरण” होना है।) प्राप्त हो। उस परमात्मा की  कृपासे ही परमशान्ति को और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा। ६२

श्लोक 63 का अर्थ

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ৷৷63৷৷
iti tē jñānamākhyātaṅ guhyādguhyataraṅ mayā.
vimṛśyaitadaśēṣēṇa yathēcchasi tathā kuru ৷৷63৷৷

इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तेरे लिये कहा है, इस रहस्ययुक्त ज्ञान को सम्पूर्णता से अच्छी प्रकार विचार के फिर तू जैसे चाहता है वैसे ही कर अर्थात् जैसी तेरी इच्छा हो वैसे ही कर। ६३।

श्लोक 64 का अर्थ

सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्‌ ৷৷64৷৷
sarvaguhyatamaṅ bhūyaḥ śrṛṇu mē paramaṅ vacaḥ.
iṣṭō.si mē dṛḍhamiti tatō vakṣyāmi tē hitam ৷৷64৷৷

इतना कहने पर भी अर्जुन का कोई उत्तर नहीं मिलने के कारण श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले कि हे अर्जुन ! सम्पूर्ण गोपनीयों से भी अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन; क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिये कहूँगा।६४।

श्लोक 65 का अर्थ

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ৷৷65৷৷
manmanā bhava madbhaktō madyājī māṅ namaskuru.
māmēvaiṣyasi satyaṅ tē pratijānē priyō.si mē ৷৷65৷৷

हे अर्जुन! तू केवल मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य प्रेमसे नित्य-निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्वर को ही अतिशय श्रद्धा-भक्तिसहित, निष्कामभाव से नाम, गुण और प्रभाव के श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठन द्वारा निरन्तर भजनेवाला हो तथा मेरा (शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और किरीट, कुण्डल आदि भूषणोंसे युक्त, पीताम्बर, वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका)

मन, वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान, विभूति, बल, ऐश्वर्य, माधुर्य, गम्भीरता, उदारता, वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणों से सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेव को विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम कर । ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा, यह मैं तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय सखा है। ६५।

श्लोक 66 का अर्थ

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ৷৷66৷৷
sarvadharmānparityajya māmēkaṅ śaraṇaṅ vraja.
ahaṅ tvā sarvapāpēbhyō mōkṣayiṣyāmi mā śucaḥ ৷৷66৷৷

इसलिये सर्वधर्मो को अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के आश्रय को त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्यशरण को* (* इसी अध्याय के श्लोक ६२ की टिप्पणीमें “अनन्यशरण” का भाव देखना चाहिये ।) प्राप्त हो; मैं तेरे को सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर। ६६।

श्लोक 67 का अर्थ

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ৷৷67৷৷
idaṅ tē nātapaskāya nābhaktāya kadācana.
na cāśuśrūṣavē vācyaṅ na ca māṅ yō.bhyasūyati ৷৷67৷৷

हे अर्जुन ! इस प्रकार तेरे हित के लिये कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिये और न भक्ति ( वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्यभाव का नाम “भक्ति” है। ) रहित के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छावाले के ही प्रति कहना चाहिये एवं जो मेरी निन्दा करता है, उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिये, परंतु जिनमें यह सब दोष नहीं हों, ऐसे भक्तोंके प्रति प्रेमपूर्वक, उत्साहके सहित कहना चाहिये। ६७।

श्लोक 68 का अर्थ

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ৷৷68৷৷
ya imaṅ paramaṅ guhyaṅ madbhaktēṣvabhidhāsyati.
bhakitaṅ mayi parāṅ kṛtvā māmēvaiṣyatyasaṅśayaḥ ৷৷68৷৷

क्योंकि जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा अर्थात् निष्कामभाव से प्रेमपूर्वक मेरे भक्तों को पढ़ावेगा या अर्थ की व्याख्या द्वारा इसका प्रचार करेगा, वह निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा। ६८।

श्लोक 69 का अर्थ

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ৷৷69৷৷
na ca tasmānmanuṣyēṣu kaśicanmē priyakṛttamaḥ.
bhavitā na ca mē tasmādanyaḥ priyatarō bhuvi ৷৷69৷৷

और न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्यारा पृथ्वी में दूसरा कोई होवेगा। ६९।

श्लोक 70 का अर्थ

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ৷৷70৷৷
adhyēṣyatē ca ya imaṅ dharmyaṅ saṅvādamāvayōḥ.
jñānayajñēna tēnāhamiṣṭaḥ syāmiti mē matiḥ ৷৷70৷৷

तथा हे अर्जुन ! जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनोंके संवादरूप गीताशास्त्रको पढ़ेगा अर्थात् नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से*(गीता अध्याय ४ श्लोक ३३ ) पूजित होऊँगा, ऐसा मेरा मत है। ७०।

श्लोक 71 का अर्थ

श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌ ৷৷71৷৷
śraddhāvānanasūyaśca śrṛṇuyādapi yō naraḥ.
sō.pi muktaḥ śubhāōllōkānprāpnuyātpuṇyakarmaṇām ৷৷71৷৷

जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित हुआ इस गीताशास्त्र का श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त हुआ उत्तम कर्म करनेवालों के श्रेष्ठ लोकोंको प्राप्त होवेगा। ७१।

श्लोक 72 का अर्थ

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ৷৷72৷৷
kaccidētacchrutaṅ pārtha tvayaikāgrēṇa cētasā.
kaccidajñānasaṅmōhaḥ pranaṣṭastē dhanañjaya ৷৷72৷৷

इस प्रकार गीता का माहात्म्य कहकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्दने अर्जुन से पूछा, हे पार्थ! क्या यह मेरा वचन तैंने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय ! क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न हुआ मोह नष्ट हुआ?।७२।

श्लोक 73 का अर्थ

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ৷৷73৷৷
naṣṭō mōhaḥ smṛtirlabdhā tvatprasādānmayācyuta.
sthitō.smi gatasandēhaḥ kariṣyē vacanaṅ tava ৷৷73৷৷

इस प्रकार भगवान के पूछने पर अर्जुन बोले,— हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा पालन करूँगा।७३। 

श्लोक 74 का अर्थ

इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌ ৷৷74৷৷
ityahaṅ vāsudēvasya pārthasya ca mahātmanaḥ.
saṅvādamimamaśrauṣamadbhutaṅ rōmaharṣaṇam ৷৷74৷৷

इसके उपरान्त सञ्जय बोले, हे राजन्! इस प्रकार मैंने श्रीवासुदेव के और महात्मा अर्जुनके इस अद्भुत रहस्ययुक्त और रोमाञ्चकारक संवाद को सुना। ७४।

श्लोक 75 का अर्थ

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌ ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌ ৷৷75৷৷
vyāsaprasādācchrutavānētadguhyamahaṅ param.
yōgaṅ yōgēśvarātkṛṣṇātsākṣātkathayataḥ svayam ৷৷75৷৷

कैसे कि श्रीव्यासजी की कृपा से दिव्यदृष्टिद्वारा मैंने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योग को साक्षात् कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्णभगवान से सुना है। ७५।

श्लोक 76 का अर्थ

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌ ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ৷৷76৷৷
rājansaṅsmṛtya saṅsmṛtya saṅvādamimamadbhutam.
kēśavārjunayōḥ puṇyaṅ hṛṣyāmi ca muhurmuhuḥ ৷৷76৷৷

इसलिये हे राजन् ! श्रीकृष्णभगवान् और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूँ। ७६ ।

श्लोक 77 का अर्थ

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ৷৷77৷৷
tacca saṅsmṛtya saṅsmṛtya rūpamatyadbhutaṅ harēḥ.
vismayō mē mahān rājan hṛṣyāmi ca punaḥ punaḥ ৷৷77৷৷

तथा हे राजन्! श्रीहरिके *(* जिसका स्मरण करने से पापोंका नाश होता है, उसका नाम “हरि” है।) उस अति अद्भुत रूप को भी पुनः पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान् आश्चर्य होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूँ। ७७।

श्लोक 78 का अर्थ

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ৷৷78৷৷
yatra yōgēśvaraḥ kṛṣṇō yatra pārthō dhanurdharaḥ.
tatra śrīrvijayō bhūtirdhruvā nītirmatirmama ৷৷78৷৷

हे राजन्! विशेष क्या कहूँ, जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्णभगवान् हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है। ७८ ।

bhagwat geeta

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः৷৷18.18॥

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में “मोक्षसंन्यासयोग” नामक अठारहवाँ अध्याय ॥१८॥

Garbh Geeta

आरती

जय भगवद्गीते, जय भगवद्गीते। हरि-हिय-कमल-विहारिणि, सुन्दर सुपुनीते॥

कर्म-सुमर्म-प्रकाशिनि, कामासक्तिहरा। तत्त्वज्ञान-विकाशिनि, विद्या ब्रह्म परा॥ जय०

निश्चल-भक्ति-विधायिनि, निर्मल, मलहारी। शरण-रहस्य-प्रदायिनि, सब विधि सुखकारी॥जय०

राग-द्वेष-विदारिणि, कारिणि मोद सदा। भव-भय-हारिणि, तारिणि, परमानन्दप्रदा॥ जय०

आसुरभाव-विनाशिनि, नाशिनि तम रजनी। दैवी सद्गुणदायिनि, हरि-रसिका सजनी॥ जय०

समता-त्याग सिखावनि, हरि-मुखकी बानी। सकल शास्त्रकी स्वामिनि, श्रुतियोंकी रानी॥ जय०

दया-सुधा बरसावनि मातु ! कृपा कीजै। हरि-पद-प्रेम दान कर अपनो कर लीजै॥ जय०

 

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