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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवतद्गीता : माहात्म्य तथा बारहवां 12 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा बारहवां 12 अध्याय

Table of Contents

श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवाद में “भक्तियोग” नामक बारहवाँ अध्याय ॥१२॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के बारहवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) श्रीमहादेवजी कहते हैं. पार्वती ! दक्षिण दिशा में कोल्हापुर नामका एक नगर है जो सब प्रकार के सुखोंका आधार‚ सिद्ध‚ महात्माओं का  निवास स्थान तथा सिद्धि—प्राप्ति का क्षेत्र है। वह पराशक्ति भगवती लक्ष्मी का प्रधान पीठ है।

सम्पूर्ण देवता उसका सेवन करते हैं। वह पुराणप्रसिद्ध तीर्थ भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाला है। वहाँ करोड़ों तीर्थ और शिवलिङ्ग हैं। रुद्रगया भी वहीं है। वह विशाल नगर लोगों में बहुत विख्यात है।

एक दिन कोई युवक पुरुष उस नगर में आया।  वह कहीं का राजकुमार था, उसके शरीर का रंग गोरा‚ नेत्र सुन्दर‚ ग्रीवा शन्खके समान‚ कंधे मोटे‚ छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी—बड़ी थीं।

नगर में प्रवेश करके सब ओर महलों की शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मी के दर्शनार्थ उत्कण्ठित हो मणिकण्ठ तीर्थ में गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरों का तर्पण किया। फिर महामाया महालक्ष्मीजी को प्रणाम करके भक्तिपूर्वक स्तवन करना आरम्भ किया।

राजकुमार बोला— जिसके हृदयमें असीम दया भरी हुई है जो समस्त कामनाओं को देती तथा अपने कटाक्ष मात्र से सारे जगत्की सृष्टि‚ पालन और संहार करती है उस जगन्माता महालक्ष्मी की जय हो।

जिस शक्तिके सहारे उसी के आदेश के अनुसार परमेष्ठी ब्रह्मा सृष्टि करते हैं भगवान् अच्युत जगत का पालन करते हैं तथा भगवान् रुद्र अखिल विश्वका संहार करते हैं उस सृष्टि‚ पालन और संहार की शक्ति से सम्पन्न भगवती पराशक्ति का मैं भजन करता हूँ।

कमले! योगिजन तुम्हारे चरण कमलों का चिन्तन करते हैं। कमलालये ! तुम अपनी स्वाभाविक सत्ता से ही हमारे समस्त इन्द्रियगोचर विषयों को जानती हो। तुम्ही कल्पनाओं के समूह को तथा उसका संकल्प करनेवाले मन को उत्पन्न करती हो।

इच्छाशक्ति‚ ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति—ये सब तुम्हारे ही रूप हैं। तुम परासंवित् ; परमज्ञानरूपिणी हो। तुम्हारा स्वरूप निष्कल ‚ निर्मल‚ नित्य‚ निराकार‚ निरञ्जन‚ अन्तरहित‚ आतङ्कशून्य‚ आलम्बहीन तथा निरामय है।

देवि ! तुम्हारी महिमा का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है। जो षट्चक्रों का भेदन करके अन्तःकरण के बारह स्थानों में विहार करती है‚ अनाहत‚ ध्वनि‚ विन्दु‚ नाद और कला— ये जिसके स्वरूप हैं‚ उस माता महालक्ष्मी को मैं प्रणाम करता हूँ।

माता ! तुम अपने मुखरूपी, पूर्णचन्द्रमा से प्रकट होनेवाली अमृतराशि को बहाया करती हो। तुम्हीं परा‚ पश्यन्ती‚ मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो। मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। देवि ! तुम जगत्की रक्षाके लिये अनेक रूप धारण किया करती हो।

अम्बिके । तुम्ही ब्राह्मी‚ वैष्णवी तथा माहेश्वरी शक्ति हो। वाराही‚ महालक्ष्मी‚ नारसिंही‚ ऐन्द्री‚ कौमारी‚ चण्डिका‚ जगत को पवित्र करने वाली लक्ष्मी‚ जगन्माता सावित्री‚ चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो।

परमेश्वरि ! तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिये कल्पलता के समान हो। मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।

उसके इस प्रकार स्तुति करने पर अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके भगवती महालक्ष्मी बोलीं —राजकुमार ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम कोई उत्तम वर माँगो।

राजपुत्र बोला—माँ ! मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध नामक महान् यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। वे दैवयोग से रोगग्रस्त होकर स्वर्गगामी हो गये। इसी बीचमें यूपमें बँधे हुए मेरे यज्ञसम्बन्धी घोड़े को‚ जो समूची पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटा था‚ किसी ने रात्रि में बन्धन काटकर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया।

उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था  किंतु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं तब मैं सब ऋत्विजों से आज्ञा लेकर तुम्हारी शरण में आया हूँ।

देवि ! यदि तुम मुझपर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञ का घोड़ा मुझे मिल जाय‚ जिससे यज्ञ पूर्ण
हो सके। तभी मैं अपने पिता महाराज का ऋण उतार सकूँगा। शरणागतो पर दया करने वाली जगज्जननी लक्ष्मी ! जिससे मेरा यज्ञ पूर्ण होए वह उपाय करो।

भगवती लक्ष्मीने कहाराजकुमार! मेरे मन्दिर के दरवाजे पर एक ब्राह्मण रहते हैं जो लोगों में सिद्धसमाधि के नामसे विख्यात हैं। वे मेरी आज्ञा से तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे। महालक्ष्मी के इस प्रकार कहने पर राजकुमार उस स्थान पर आये‚ जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे।

उनके चरणों में प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ खड़े हो गये। तब ब्राह्मण ने   कहा —तुम्हें माताजी ने यहाँ भेजा है। अच्छा देखो‚ अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ।

यों कहकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण ने  सब देवताओं को वहीं खींचा। राजकुमार ने देखा उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर—थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये। तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मण ने समस्त देवताओं से कहा देवगण ! इस राजकुमार का अश्व‚ जो यज्ञके लिये निश्चित हो चुका था रात में देवराज इन्द्र ने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है उसे शीघ्र ले आओ।

तब देवताओं ने मुनि के कहने से यज्ञ का घोड़ा लाकर दे दिया। इसके बाद उन्होंने उन्हें जाने की आज्ञा दी। देवताओंका आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्वको पाकर राजकुमार ने मुनिके चरणोंमें प्रणाम करके कहा महर्षे ! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है।

आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं‚ दूसरा कोई नहीं। ब्रह्मन् ! मेरी प्रार्थना सुनिये मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोग से मृत्युको प्राप्त हो गये हैं। अभी तक उनका शरीर तपाये हुए तेल में सुखाकर मैंने रख छोड़ा है।

साधुश्रेष्ठ ! आप उन्हें पुनः जीवित कर दीजिये। यह सुनकर महामुनि ब्राह्मण ने किंचित् मुसकराकर कहा — चलो‚ जहाँ यज्ञमण्डप में तुम्हारे पिता मौजूद हैं चलें। तब सिद्धसमाधि ने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे उस शव के मस्तक पर रखा।

उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे। फिर उन्होंने ब्राह्मण को देखकर पूछा धर्मस्वरूप ! आप कौन हैं  तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल कह सुनाया।

राजा ने अपने को पुनः जीवनदान देने वाले ब्राह्मण को नमस्कार करके पूछा ब्रह्मन् ! किस पुण्य से आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है ? उनके यों कहने पर ब्राह्मण ने मधुर वाणी में कहा— राजन् ! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीता के बारहवें अध्याय bhagwat geeta katha का जप करता हूँ उसी से मुझे यह शक्ति मिली है जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है।

यह सुनकर ब्राह्मणों सहित राजा ने उन ब्रह्मर्षि से गीता के बारहवें अध्याय bhagwat geeta in hindi का अध्ययन किया। उसके माहात्म्य से उन सबकी सद्गति हो गयी। दूसरे—दूसरे जीव भी उसके पाठ से परम मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं।

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ॐ श्रीपरमात्मने नमः

बारहवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
ēvaṅ satatayuktā yē bhaktāstvāṅ paryupāsatē.
yēcāpyakṣaramavyaktaṅ tēṣāṅ kē yōgavittamāḥ ৷৷1৷৷

इस प्रकार भगवान  के वचनों को सुनकर अर्जुन बोले —हे मनमोहन ! जो अनन्य प्रेमी भक्तजन इस पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन—ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप परमेश्वर को अति श्रेष्ठभाव से उपासते हैं और जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन  निराकार को ही उपासते हैं‚ उन दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
mayyāvēśya manō yē māṅ nityayuktā upāsatē.
śraddhayā parayōpētāstē mē yuktatamā matāḥ ৷৷2৷৷

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले हे अर्जुन ! मेरे में मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन—ध्यान में लगे हुए 〈 अर्थात् गीता अध्याय ११ श्लोक ५५ में लिखे हुए प्रकार से निरन्तर मेरे में लगे हुए।〉 जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं‚ वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात् उनको मैं अतिश्रेष्ठ मानता हूँ। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03-04 का अर्थ

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
yē tvakṣaramanirdēśyamavyaktaṅ paryupāsatē.
sarvatragamacintyaṅ ca kūṭasthamacalaṅ dhruvam ৷৷3৷৷
saṅniyamyēndriyagrāmaṅ sarvatra samabuddhayaḥ.
tē prāpnuvanti māmēva sarvabhūtahitē ratāḥ ৷৷4৷৷

और जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में करके मन—बुद्धि से परे सर्वव्यापी अकथनीयस्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले‚ नित्य‚ अचल‚ निराकार‚ अविनाशी‚ सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते हैं‚ वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सबमें समान भाववाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं। ३—४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌ ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
klēśō.dhikatarastēṣāmavyaktāsaktacētasām.
avyaktā hi gatirduḥkhaṅ dēhavadbhiravāpyatē ৷৷5৷৷

किंतु उन सच्चिदानन्दघन‚ निराकार ब्रह्म में आसक्त हुए चित्तवाले पुरुषों के साधन में केश अर्थात् परिश्रम विशेष है‚ क्योंकि देहाभिमानियों से अव्यक्त विषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है अर्थात् जब तक शरीर में अभिमान रहता है‚ तब तक शुद्ध‚ सच्चिदानन्दघन‚ निराकार ब्रह्म में स्थिति होनी कठिन है। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
yē tu sarvāṇi karmāṇi mayi saṅnyasya matparāḥ.
ananyēnaiva yōgēna māṅ dhyāyanta upāsatē ৷৷6৷৷

और जो मेरे परायण हुए भक्तजन‚ सम्पूर्ण कर्मो को मेरे में अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही तैलधाराके सदृश अनन्य—ध्यानयोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं । ६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌ ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌ ॥
tēṣāmahaṅ samuddhartā mṛtyusaṅsārasāgarāt.
bhavāmi nacirātpārtha mayyāvēśitacētasām ৷৷7৷৷

हे अर्जुन ! उन मेरे में चित्त को लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार—समुद्र से उद्धार करनेवाला होता हूँ। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥
mayyēva mana ādhatsva mayi buddhiṅ nivēśaya.
nivasiṣyasi mayyēva ata ūrdhvaṅ na saṅśayaḥ ৷৷8৷৷

इसलिये हे अर्जुन ! तू मेरे में मन को लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा इसके उपरान्त तू मेरे में ही निवास करेगा अर्थात् मेरे को ही प्राप्त होगा इसमें कुछ भी संशय नहीं है। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌ ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥
atha cittaṅ samādhātuṅ na śaknōṣi mayi sthiram.
abhyāsayōgēna tatō māmicchāptuṅ dhanañjaya ৷৷9৷৷

यदि तू मन को मेरे में अचल स्थापन करने के लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन ! अभ्यासरूप    〈 भगवान के नाम और गुणों का श्रवण‚ कीर्तन‚ मनन तथा श्वास के द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रोंका पठन—पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिये बारम्बार करने का नाम अभ्यास है। 〉 योग के द्वारा मेरे को प्राप्त होने के लिये इच्छा कर।९।

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥
abhyāsē.pyasamarthō.si matkarmaparamō bhava.
madarthamapi karmāṇi kurvan siddhimavāpsyasi ৷৷10৷৷

यदि तू ऊपर कहे हुए अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करने के ही परायण 〈 स्वार्थको त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर निष्काम प्रेमभाव से सतीशिरोमणि‚ पतिव्रता स्त्री की भाँति मन‚ वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिये यज्ञ‚ दान और तपादि सम्पूर्ण कर्त्तव्य—कर्मो के करने का नाम भगवत— अर्थ कर्म करने के परायण होना है।〉 हो‚ इस प्रकार मेरे अर्थ कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा। १०।

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Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌ ॥
athaitadapyaśaktō.si kartuṅ madyōgamāśritaḥ.
sarvakarmaphalatyāgaṅ tataḥ kuru yatātmavān ৷৷11৷৷

और यदि इसको भी करने के लिये असमर्थ  है तो जीते हुए मनवाला और मेरी प्राप्तिरूप योग के शरण हुआ सब कर्मों के फल का मेरे लिये त्याग कर। ११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥
śrēyō hi jñānamabhyāsājjñānāddhyānaṅ viśiṣyatē.
dhyānātkarmaphalatyāgastyāgācchāntiranantaram ৷৷12৷৷

क्योंकि मर्म को न जानकर किये हुए अभ्यास से परोक्षज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्षज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से भी सब कर्मों के फल का मेरे लिये त्याग करना श्रेष्ठ है और त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है। १२।

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
advēṣṭā sarvabhūtānāṅ maitraḥ karuṇa ēva ca.
nirmamō nirahaṅkāraḥ samaduḥkhasukhaḥ kṣamī ৷৷13৷৷

इस प्रकार शान्ति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित‚ सुख—दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देनेवाला है। १३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
santuṣṭaḥ satataṅ yōgī yatātmā dṛḍhaniścayaḥ.
mayyarpitamanōbuddhiryō madbhaktaḥ sa mē priyaḥ ৷৷14৷৷

तथा जो ध्यानयोग में युक्त हुआ‚ निरन्तर लाभ—हानि में संतुष्ट है तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए मेरे में दृढ़ निश्चयवाला है‚ वह मेरे में अर्पण किये हुए मन—बुद्धिवाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। १४।

श्लोक 15 का अर्थ

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥
yasmānnōdvijatē lōkō lōkānnōdvijatē ca yaḥ.
harṣāmarṣabhayōdvēgairmuktō yaḥ sa ca mē priyaḥ ৷৷15৷৷

जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है तथा जो हर्ष‚ अमर्ष 〈 दूसरे की उन्नतिको देखकर संताप होने का नाम  अमर्ष है 〉 भय और उद्वेगादिकोंसे रहित है वह भक्त मेरे को प्रिय है। १५।

श्लोक 16 का अर्थ

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
anapēkṣaḥ śucirdakṣa udāsīnō gatavyathaḥ.
sarvārambhaparityāgī yō madbhaktaḥ sa mē priyaḥ ৷৷16৷৷

जो पुरुष आकाङ्क्षासे रहित तथा बाहर—भीतर से शुद्ध और चतुर है अर्थात् जिस काम के लिये आया था‚ उसको पूरा कर चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुःखोंसे छूटा हुआ है वह सर्व आरम्भों का त्यागी अर्थात् मन‚ वाणी और शरीर द्वारा प्रारब्ध से होनेवाले सम्पूर्ण स्वाभाविक कर्मो में कर्तापन के अभिमान का त्यागी मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। १६।

श्लोक 17 का अर्थ

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
yō na hṛṣyati na dvēṣṭi na śōcati na kāṅkṣati.
śubhāśubhaparityāgī bhakitamānyaḥ sa mē priyaḥ ৷৷17৷৷

जो न कभी हर्षित होता है‚ न द्वेष करता है‚ न शोच करता है‚ न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है‚ वह भक्तियुक्त पुरुष मेरेको प्रिय है। १७।

श्लोक 18 का अर्थ

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥
samaḥ śatrau ca mitrē ca tathā mānāpamānayōḥ.
śītōṣṇasukhaduḥkhēṣu samaḥ saṅgavivarjitaḥ ৷৷18৷৷

जो पुरुष शत्रु—मित्रमें और मान—अपमान में सम है तथा सर्दी—गर्मी और सुख—दुःखादिक द्वन्द्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है। १८।

श्लोक 19 का अर्थ

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
tulyanindāstutirmaunī santuṣṭō yēnakēnacit.
anikētaḥ sthiramatirbhakitamānmē priyō naraḥ ৷৷19৷৷

तथा जो निन्दा—स्तुतिको समान समझने वाला और मननशील है अर्थात् ईश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करनेवाला है एवं जिस—किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है‚ वह स्थिर बुद्धिवाला भक्तिमान् पुरुष मेरेको प्रिय है। १९।

श्लोक 20 का अर्थ

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥
yē tu dharmyāmṛtamidaṅ yathōktaṅ paryupāsatē.
śraddadhānā matparamā bhaktāstē.tīva mē priyāḥ ৷৷20৷৷

और जो मेरे परायण हुए अर्थात् मेरे को परम आश्रय और परम गति एवं सबका आत्मरूप और सबसे परे‚ परमपूज्य समझकर विशुद्ध प्रेम से मेरी प्राप्ति के लिये तत्पर हुए श्रद्धायुक्त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृतको निष्कामभाव से सेवन करते हैं‚ वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं। २०।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥12॥

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवाद में “भक्तियोग” नामक बारहवाँ अध्याय ॥१२॥

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