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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा ग्यारहवां 11 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा ग्यारहवां 11 अध्याय

Table of Contents

श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादमें ‘विश्वरूपदर्शनयोग‘ नामक ग्यारहवाँ अध्याय॥११॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के ग्यारहवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) श्रीमहादेवजी कहते हैं-—प्रिये ! गीता के वर्णन से सम्बन्ध रखने वाली कथा एवं विश्वरूप अध्याय के पावन माहात्म्य को श्रवण करो। विशाल नेत्रों वाली पार्वती ! इस अध्याय के माहात्म्य का पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके सम्बन्धमें सहस्त्रों कथाएँ हैं। उनमें से एक यहाँ कही जाती है।

प्रणीता नदी के तटपर मेघङ्कर नाम से विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है। उसके प्राकार (चहारदिवारी) और गोपुर (द्वार) बहुत ऊँचे हैं। वहाँ बड़ी-बड़ी विश्रामशालाएँ हैं, जिनमें सोने के खंभे शोभा दे रहे हैं।

उस नगर में श्रीमान्, सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्यों का निवास है। वहाँ हाथ में शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णु विराजमान हैं। वे परब्रह्म के साकार स्वरूप हैं, संसार के नेत्रों को जीवन प्रदान करनेवाले हैं।

उनका गौरवपूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी के नेत्र-कमलों द्वारा पूजित होता है। भगवान की वह झाँकी वामन-अवतार की है। मेघके समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है। वक्षःस्थलपर श्रीवत्स का चिह्न शोभा पाता है।

वे कमल और वनमाला से विभूषित हैं। अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हो भगवान् वामन रत्नयुक्त समुद्र के सदृश जान पड़ते हैं। पीताम्बर से उनके श्याम विग्रह की कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजली से घिरा हुआ स्निग्ध मेघ शोभा पा रहा हो।

उन भगवान् वामन का दर्शन करके जीव जन्म एवं संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस नगर में मेखला नामक महान् तीर्थ है, जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधाम को प्राप्त होता है।

वहाँ जगत के स्वामी करुणासागर भगवान् नृसिंह का दर्शन करने से मनुष्य सात जन्मों के किये हुए घोर पापसे छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य मेखला में गणेशजीका दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विघ्नों के भी पार हो जाता है।

उसी मेघङ्कर नगरमें कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्यपरायण, ममता और अहंकार से रहित, वेद-शास्त्रों में प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेव के शरणागत थे। उनका नाम सुनन्द था।

प्रिये ! वे शार्ङ्गधनुष धारण करने वाले भगवान  के पास गीता के ग्यारहवें अध्याय “विश्वरूपदर्शनयोग” का पाठ किया करते थे। उस अध्याय के प्रभाव से उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी।

परमानन्द-संदोहसे पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधि के द्वारा इन्द्रियों के अन्तर्मुख हो जानेके कारण वे निश्चल स्थितिको प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त योगीकी स्थिति में रहते थे।

एक समय जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित थे, महायोगी सुनन्द ने गोदावरी तीर्थ की यात्रा आरम्भ की। वे क्रमशः विरजतीर्थ, तारातीर्थ, कपिलासंगम, अष्टतीर्थ, कपिलाद्वार, नृसिंहवन, अम्बिकापुरी तथा करस्थानपर आदि क्षेत्रों में स्नान और दर्शन करते हुए विवाहमण्डप नामक नगरमें आये।

वहाँ उन्होंने प्रत्येक घर में जाकर अपने ठहरने के लिये स्थान माँगा, परंतु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला। अन्त में गाँव के मुखिया ने उन्हें एक बहुत बडी धर्मशाला दिखा दी। ब्राह्मण ने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रात में निवास किया।

सबेरा होने पर उन्होंने अपने को तो धर्मशाला के बाहर पाया, किंतु उनके और साथी नहीं दिखायी दिये। वे उन्हें खोजने के लिये चले, इतने में ही ग्रामपाल (मुखिये) से उनकी भेंट हो गयी।

ग्रामपाल ने कहा-‘मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकार से दीर्घायु जान पड़ते हो। सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषों में तुम सबसे पवित्र हो। तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान है। तुम्हारे साथी कहाँ गये ? और कैसे इस भवन से बाहर हुए ? इसका पता लगाओ।

मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे-जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता। विप्रवर ! तुम्हें किस महामन्त्र का ज्ञान है ? किस विद्या का आश्रय लेते हो तथा किस देवता की दया से तुम्हें अलौकिक शक्ति आ गयी है ?

भगवन् ! कृपा करके इस गाँव में रहो। मैं तुम्हारी सब सेवा-शुश्रूषा करूँगा।’ यों कहकर ग्रामपाल ने मुनीश्वर सुनन्द को अपने गाँव में ठहरा लिया। वह दिन-रात बड़ी भक्ति से उनकी सेवा-टहल करने लगा।

जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुखी हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोला-‘हाय ! आज रात में राक्षस ने मुझ भाग्यहीन के बेटे को चबा लिया है। मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था।’

ग्रामपाल के इस प्रकार कहने पर योगी सुनन्द ने पूछा-‘कहाँ है वह राक्षस ? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्र का भक्षण किया है ?’ ग्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! इस नगर में एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है। वह प्रतिदिन आकर इस नगर के मनुष्यों  को खा लिया करता था।

तब एक दिन समस्त नगरवासियों ने मिलकर उससे प्रार्थना की  ‘राक्षस ! तुम हम सब लोगों की रक्षा करो। हम तुम्हारे लिये भोजन की व्यवस्था किये देते हैं। यहाँ बाहर के जो पथिक रात में आकर नींद लेने लगें, उनको खा जाना।’

इस प्रकार नागरिक मनुष्यों ने गाँव के (मुझ) मुखिया द्वारा इस धर्मशाला में भेजे हुए पथिकों को ही राक्षस का आहार निश्चित किया। अपने प्राणों की रक्षाके लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा।

तुम भी अन्य राहगीरों के साथ इस घरमें आकर सोये थे; किंतु राक्षस ने उन सबों को तो खा लिया, केवल तुम्हें छोड़ दिया है। द्विजोत्तम ! तुममें ऐसा क्या प्रभाव है, इस बात को तुम्हीं जानते हो।

इस समय मेरे पुत्र का – एक मित्र आया था, किंतु मैं उसे पहचान न सका। वह मेरे पुत्र को बहुत ही प्रिय था, किंतु अन्य राहगीरों के साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशाला में भेज दिया। मेरे पुत्र ने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँ से ले आने के लिये गया; परंतु राक्षस ने उसे भी खा लिया।

आज सबेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाच से पूछा-‘ओ दुष्टात्मन् ! तूने रात में मेरे पुत्र को भी खा लिया। तुम्हारे पेट में पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो तो बता।’

राक्षस ने कहा-ग्रामपाल ! धर्मशाला के भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्र के न जानने के कारण मैंने भक्षण किया है। अन्य पथिकों के साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजान में ही मेरा ग्रास बन गया है। वह मेरे उदर में जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वयं विधाता ने ही कर दिया है।

जो ब्राह्मण सदा गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ करता हो, उसके प्रभाव से मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा। यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशाले से बाहर कर दिया था।

वे निरन्तर गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप किया करते हैं। इस अध्याय के मन्त्र से सात बार अभिमन्त्रित करके यदि वे मेरे ऊपर जल का छींटा दें तो निस्संदेह मेरा शाप से उद्धार हो जायगा।

इस प्रकार उस राक्षस का संदेश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ। ब्राह्मण ने पूछा –ग्रामपाल ! जो रात में सोये हुए मनुष्यों को खाता है, वह प्राणी किस पाप से राक्षस हुआ है ?

ग्रामपाल बोला-ब्रह्मन् ! पहले इस गाँव में कोई किसान ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह अगहनी के खेत की क्यारियों की रक्षा करने में लगा  था। वहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राही को मारकर  खा रहा था।

उसी समय एक तपस्वी कहीं से आ निकले, जो उस राही को  बचाने के लिये दूर से ही दया दिखाते आ रहे थे। गिद्ध उस राही को  खाकर आकाश में उड़ गया। तब तपस्वी ने कुपित होकर उस किसान से कहा-‘ओ दुष्ट हलवाहे ! तुझे धिक्कार है। तू बड़ा ही कठोर और  निर्दयी है।

दूसरे की रक्षा से मुँह मोड़कर केवल पेट पालने के धंधे में लगा है। तेरा जीवन नष्टप्राय है।   अरे ! जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि , विष, जल, गीध, राक्षस, भूत तथा बेताल आदि के द्वारा घायल हुए मनुष्यों की शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह उनके वध का फल पाता है।

जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदि के चंगुल में फँसे हुए ब्राह्मण को छुड़ाने की चेष्टा नहीं करता, वह घोर नरक में पड़ता और पुनः भेड़िये की योनि में जन्म लेता है। जो वन में मारे जाते हुए तथा गृध्र और व्याघ्र की दृष्टि में पड़े हुए जीव की रक्षा के लिये ‘छोड़ो, छोड़ो’ की पुकार करता है. वह परम गति को प्राप्त होता है।

जो मनुष्य गौओं की रक्षा के लिये व्याघ्र, भील तथा दुष्ट राजाओं के हाथसे मारे जाते हैं, वे भगवान् विष्णु के उस परम पद को पाते हैं जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है। सहस्त्र अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ मिलकर शरणागत-रक्षा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते।

दीन तथा भयभीत जीव की उपेक्षा करने से पुण्यवान् पुरुष भी समय आने पर कुम्भीपाक नामक नरक में पकाया जाता है  तूने  दुष्ट गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राही को देखकर उसे बचाने में समर्थ होते हुए भी जो इसकी रक्षा नहीं की, इससे तू निर्दयी जान पड़ता है, अतः तू राक्षस हो जा।’

हलवाहा बोला -महात्मन् ! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किंतु मेरे नेत्र बहुत देर से खेत की रक्षा में लगे थे, अतः पास होने पर भी गिद्ध के द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्य को मैं नहीं जान सका। अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिये।

तपस्वी ब्राह्मणने कहा-जो प्रतिदिन गीता के ग्यारहवें अध्याय का जप करता है, उस मनुष्य के द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तक पर पड़ेगा, उस समय तुम्हें शाप से छुटकारा मिल जायगा।

यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्याय से तीर्थ के जल को अभिमन्त्रित करो। फिर अपने ही हाथसे उस राक्षस के मस्तकपर उसे छिड़क दो।

ग्रामपाल की यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय करुणासे भर आया। वे ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसके साथ राक्षस के निकट गये। वे ब्राह्मण योगी थे। उन्होंने विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्यायसे जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षसके मस्तकपर डाला।

गीता के ग्यारहवें अध्याय के प्रभाव से वह शापसे मुक्त हो गया। उसने राक्षस-देह का परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसने जिन सहस्रों पथिकों का भक्षण किया था, वे भी शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण किये चतुर्भुजरूप हो गये।

तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए। इतने में ही ग्रामपालने राक्षस से कहा–’निशाचर ! मेरा पुत्र कौन है ? उसे दिखाओ।’

उसके यों कहने पर दिव्य बुद्धिवाले राक्षसने कहा-‘ये जो तमाल के समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक्यमय मुकुट से सुशोभित तथा दिव्य मणियों के बने हुए कुण्डलों से अलंकृत हैं, हार पहनने के कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोने के भुजबंदों से विभूषित, कमल के समान नेत्रवाले, स्निग्धरूप तथा हाथ में कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमान पर बैठकर देवत्व को प्राप्त हो चुके हैं, इन्हीं को अपना पुत्र समझो।’

यह सुनकर ग्रामपाल ने उसी रूप में अपने पुत्र को देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा। यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा।पुत्र बोला-ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र हो चुके हो।

पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किंतु अब देवता हो गया हूँ। इन ब्राह्मण-देवता के प्रसाद से वैकुण्ठधाम को जाऊँगा। देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुजरूप को प्राप्त हो गया। ग्यारहवें अध्याय के माहात्म्य से यह सब लोगों के साथ श्रीविष्णुधाम को जा रहा है।

अतः तुम भी इन ब्राह्मण देव से गीता के ग्यारहवें अध्याय bhagwat geeta in hindi का अध्ययन करो और निरन्तर उसका जप करते रहो। इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी। तात ! मनुष्यों के लिये साधु पुरुषोंका सङ्ग सर्वथा दुर्लभ है।

वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है; अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्वकर्मों से क्या लेना है। विश्वरूपाध्याय के पाठ से ही परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है।

पूर्णानन्दसंदोहस्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्म के मुख से कुरुक्षेत्र में अपने मित्र अर्जुन के प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, वही श्रीविष्णु का परम तात्त्विक रूप है। तुम उसी का चिन्तन करो।

वह मोक्ष के लिये प्रसिद्ध रसायन है। संसार-भय से डरे हुए मनुष्यों की आधि-व्याधि का विनाशक तथा अनेक जन्म के दुःखोंका नाश करनेवाला है। मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधन को ऐसा नहीं देखता, अतः उसी का अभ्यास करो।

श्रीमहादेवजी कहते हैं—यों कहकर वह सबके साथ परमधाम को चला गया। तब ग्रामपाल ने ब्राह्मण के मुखसे उस अध्याय को पढ़ा। फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्य से विष्णुधाम को चले गये। पार्वती ! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्याय bhagwat geeta katha की माहात्म्य-कथा सुनायी है। इसके श्रवणमात्र से महान् पातकों का नाश हो जाता है।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

ग्यारहवाँअध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌ ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥
madanugrahāya paramaṅ guhyamadhyātmasaṅjñitam.
yattvayōktaṅ vacastēna mōhō.yaṅ vigatō mama ৷৷1৷৷

इस प्रकार भगवान के वचन सुनकर अर्जुन बोले-—हे भगवन् ! मेरे पर अनुग्रह करने के लिये परम गोपनीय, अध्यात्मविषयक वचन अर्थात् उपदेश आपके द्वारा जो कहा गया, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌ ॥
bhavāpyayau hi bhūtānāṅ śrutau vistaraśō mayā.
tvattaḥ kamalapatrākṣa māhātmyamapi cāvyayam ৷৷2৷৷

क्योंकि हे कमलनेत्र ! मैंने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपका अविनाशी प्रभाव भी सुना है। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥
ēvamētadyathāttha tvamātmānaṅ paramēśvara.
draṣṭumicchāmi tē rūpamaiśvaraṅ puruṣōttama ৷৷3৷৷

हे परमेश्वर ! आप अपने को जैसा कहते हो यह ठीक ऐसा ही है; परंतु हे पुरुषोत्तम ! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेजयुक्त रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ। ३।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌ ॥
manyasē yadi tacchakyaṅ mayā draṣṭumiti prabhō.
yōgēśvara tatō mē tvaṅ darśayā.tmānamavyayam ৷৷4৷৷

इसलिये हे प्रभो !* (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय तथा अन्तर्यामीरूप से शासन करने वाला होने से भगवान्का नाम “प्रभु” है। ) मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना शक्य है ऐसा यदि मानते हैं, तो है योगेश्वर ! आप अपने अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइये। ४।।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥
paśya mē pārtha rūpāṇi śataśō.tha sahasraśaḥ.
nānāvidhāni divyāni nānāvarṇākṛtīni ca ৷৷5৷৷

इस प्रकार अर्जुन के प्रार्थना करने पर श्रीकृष्णभगवान् बोले-हे पार्थ ! मेरे सैकड़ों तथा हजारों नाना प्रकारके और नाना वर्ण तथा आकृतिवाले अलौकिक रूपों को देख। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥
paśyādityānvasūnrudrānaśivanau marutastathā.
bahūnyadṛṣṭapūrvāṇi paśyā.ścaryāṇi bhārata ৷৷6৷৷

हे भरतवंशी अर्जुन ! मेरे में आदित्यों को अर्थात् अदिति के द्वादश पुत्रोंको और आठ वसुओंको, एकादश रुद्रों को तथा दोनों अश्विनीकुमारों को और उनचास मरुद्गणोंको देख तथा और भी बहुत-से पहिले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख। ६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्‌ ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥
ihaikasthaṅ jagatkṛtsnaṅ paśyādya sacarācaram.
mama dēhē guḍākēśa yaccānyaddraṣṭumicchasi ৷৷7৷৷

हे गुडाकेश !* (* निद्राको जीतनेवाला होने से अर्जुनका नाम “गुडाकेश” हुआ था।) अब इस मेरे शरी रमें एक जगह स्थित हुए चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता है, सो देख। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ॥
na tu māṅ śakyasē draṣṭumanēnaiva svacakṣuṣā.
divyaṅ dadāmi tē cakṣuḥ paśya mē yōgamaiśvaram ৷৷8৷৷

परंतु मेरे को इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने को निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तेरे लिये दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ, इससे तू मेरे प्रभाव को और योगशक्ति को देख। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्‌ ॥
ēvamuktvā tatō rājanmahāyōgēśvarō hariḥ.
darśayāmāsa pārthāya paramaṅ rūpamaiśvaram ৷৷9৷৷

सञ्जय बोले, —हे राजन् ! महायोगेश्वर और सब पापों के नाश करनेवाले भगवान्ने इस प्रकार कहकर उसके उपरान्त अर्जुनके लिये परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य स्वरूप दिखाया।९।

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ॥
anēkavaktranayanamanēkādbhutadarśanam.
anēkadivyābharaṇaṅ divyānēkōdyatāyudham ৷৷10৷৷

उस अनेक मुख और नेत्रोंसे युक्त तथा अनेक अद्भुत दर्शनों वाले एवं बहुत-से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत-से दिव्य शस्त्रों को हाथों में  उठाये हुए। १०।

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ॥
divyamālyāmbaradharaṅ divyagandhānulēpanam.
sarvāścaryamayaṅ dēvamanantaṅ viśvatōmukham ৷৷11৷৷

तथा दिव्य माला और वस्त्रोंको धारण किये हुए और दिव्य गन्धका अनुलेपन किये हुए एवं सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित, विराट्स्वरूप, परमदेव परमेश्वरको अर्जुन ने देखा। ११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
divi sūryasahasrasya bhavēdyugapadutthitā.
yadi bhāḥ sadṛśī sā syādbhāsastasya mahātmanaḥ ৷৷12৷৷

हे राजन् ! आकाश में हजार सूर्यो के एक साथ उदय होने से उत्पन्न हुआ जो प्रकाश होवे; वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही होवे। १२।

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥
tatraikasthaṅ jagatkṛtsnaṅ pravibhaktamanēkadhā.
apaśyaddēvadēvasya śarīrē pāṇḍavastadā ৷৷13৷৷

ऐसे आश्चर्यमय रूप को देखते हुए पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस काल में अनेक प्रकार से विभक्त हुए अर्थात् पृथक्-पृथक् हुए सम्पूर्ण जगत्को, उस देवों के देव श्रीकृष्णभगवान्के शरीर में एक जगह स्थित देखा। १३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥
tataḥ sa vismayāviṣṭō hṛṣṭarōmā dhanañjayaḥ.
praṇamya śirasā dēvaṅ kṛtāñjalirabhāṣata ৷৷14৷৷

उसके अनन्तर वह आश्चर्य से युक्त हुआ हर्षित रोमों वाला अर्जुन विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धाभक्तिसहित सिर  से प्रणाम करके हाथ जोड़े हुए बोला। १४।

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्‍घान्‌ ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्‌ ॥
paśyāmi dēvāṅstava dēva dēhē
sarvāṅstathā bhūtaviśēṣasaṅghān.
brahmāṇamīśaṅ kamalāsanastha-
mṛṣīṅśca sarvānuragāṅśca divyān ৷৷15৷৷

हे देव ! आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को और कमल के आसनपर बैठे हुए ब्रह्माको तथा महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पो को देखता हूँ। १५।

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्‌ ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥
anēkabāhūdaravaktranētraṅ
paśyāmi tvāṅ sarvatō.nantarūpam.
nāntaṅ na madhyaṅ na punastavādiṅ
paśyāmi viśvēśvara viśvarūpa ৷৷16৷৷

हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन् ! आपको अनेक हाथ, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपोंवाला देखता हूँ, हे विश्वरूप ! आपके न अन्त को देखता हूँ तथा न मध्यको और न आदिको ही देखता हूँ। १६।

Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्‌ ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌ ॥
kirīṭinaṅ gadinaṅ cakriṇaṅ ca
tējōrāśiṅ sarvatōdīptimantam.
paśyāmi tvāṅ durnirīkṣyaṅ samantā-
ddīptānalārkadyutimapramēyam ৷৷17৷৷

हे विष्णो ! आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज का पुञ्ज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, देखने में अति गहन और अप्रमेयस्वरूप सब ओर से देखता हूँ। १७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥
tvamakṣaraṅ paramaṅ vēditavyaṅ
tvamasya viśvasya paraṅ nidhānam.
tvamavyayaḥ śāśvatadharmagōptā
sanātanastvaṅ puruṣō matō mē ৷৷18৷৷

इसलिये हे भगवन् ! आप ही जाननेयोग्य परम अक्षर हैं अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं और आप ही इस जगत  के परम आश्रय हैं तथा आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं ऐसा मेरा मत है। १८।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्‌ ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्‌ ॥
anādimadhyāntamanantavīrya-
manantabāhuṅ śaśisūryanētram.
paśyāmi tvāṅ dīptahutāśavaktram
svatējasā viśvamidaṅ tapantam ৷৷19৷৷

हे परमेश्वर ! मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनन्त सामर्थ्य से युक्त और अनन्त हाथोंवाला तथा चन्द्र-सूर्यरूप नेत्रों वाला और प्रज्वलित अग्निरूप मुखवाला तथा अपने तेज से इस जगत को तपायमान करता हुआ देखता हूँ। १९।

Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्‌ ॥
dyāvāpṛthivyōridamantaraṅ hi
vyāptaṅ tvayaikēna diśaśca sarvāḥ.
dṛṣṭvā.dbhutaṅ rūpamugraṅ tavēdaṅ
lōkatrayaṅ pravyathitaṅ mahātman ৷৷20৷৷

हे महात्मन् ! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब  दिशाएँ एक आप से ही परिपूर्ण हैं तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अति व्यथा को प्राप्त हो रहे हैं। २०।

Bhagwat Geeta श्लोक 21 का अर्थ

अमी हि त्वां सुरसङ्‍घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्‍घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
amī hi tvāṅ surasaṅghāḥ viśanti
kēcidbhītāḥ prāñjalayō gṛṇanti.
svastītyuktvā maharṣisiddhasaṅghāḥ
stuvanti tvāṅ stutibhiḥ puṣkalābhiḥ ৷৷21৷৷

हे गोविन्द ! वे सब देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश करते हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम और गुणोंका उच्चारण करते हैं तथा महर्षि और सिद्धोंके समुदाय ‘कल्याण’ होवे ऐसा कहकर  उत्तम-उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। २१।

Bhagwat Geeta श्लोक 22 का अर्थ

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्‍घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥
rudrādityā vasavō yē ca sādhyā
viśvē.śivanau marutaścōṣmapāśca.
gandharvayakṣāsurasiddhasaṅghā
vīkṣantē tvāṅ vismitāścaiva sarvē ৷৷22৷৷

हे परमेश्वर ! जो एकादश रुद्र और द्वादश आदित्य तथा आठ वसु और साध्यगण, विश्वेदेव तथा अश्विनीकुमार और मरुद्गण और पितरोंका समुदाय तथा गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धगणों के समुदाय हैं, वे सब ही विस्मित हुए आपको देखते हैं। २२।

Bhagwat Geeta श्लोक 23 का अर्थ

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम्‌ ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्‌ ॥
rūpaṅ mahattē bahuvaktranētraṅ
mahābāhō bahubāhūrupādam.
bahūdaraṅ bahudaṅṣṭrākarālaṅ
dṛṣṭvā lōkāḥ pravyathitāstathā.ham ৷৷23৷৷

हे महाबाहो ! आपके बहुत मुख और नेत्रोंवाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरोंवाले और बहुत उदरोंवाले तथा बहुत-सी विकराल दाढ़ोंवाले महान् रूप को देखकर सब लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। २३।

Bhagwat Geeta श्लोक 24 का अर्थ

नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्‌ ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥
nabhaḥspṛśaṅ dīptamanēkavarṇaṅ
vyāttānanaṅ dīptaviśālanētram.
dṛṣṭvā hi tvāṅ pravyathitāntarātmā
dhṛtiṅ na vindāmi śamaṅ ca viṣṇō ৷৷24৷৷

क्योंकि हे विष्णो ! आकाश के साथ स्पर्श किये हुए देदीप्यमान अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्तःकरणवाला मैं धीरज और शान्ति को नहीं प्राप्त होता हूँ। २४।।

Bhagwat Geeta श्लोक 25 का अर्थ

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥
daṅṣṭrākarālāni ca tē mukhāni
dṛṣṭvaiva kālānalasannibhāni.
diśō na jānē na labhē ca śarma
prasīda dēvēśa jagannivāsa ৷৷25৷৷

हे भगवन्! आपके विकराल दाढ़ोंवाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख को भी नहीं प्राप्त होता हूँ, इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होवें। २५।

bhagwat geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 26 का अर्थ

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥
amī ca tvāṅ dhṛtarāṣṭrasya putrāḥ
sarvē sahaivāvanipālasaṅghaiḥ.
bhīṣmō drōṇaḥ sūtaputrastathā.sau
sahāsmadīyairapi yōdhamukhyaiḥ ৷৷26৷৷

मैं देखता हूँ कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदायसहित आपमें प्रवेश करते हैं और भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योधाओं के सहित सब-के-सब। २६।

श्लोक 27 का अर्थ

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्‍गै ॥
vaktrāṇi tē tvaramāṇā viśanti
daṅṣṭrākarālāni bhayānakāni.
kēcidvilagnā daśanāntarēṣu
saṅdṛśyantē cūrṇitairuttamāṅgaiḥ ৷৷27৷৷

वेगयुक्त हुए आपके विकराल दाढ़ोंवाले भयानक मुखोंमें प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतोंके बीचमें लगे हुए दीखते हैं। २७।

श्लोक 28 का अर्थ

यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥
yathā nadīnāṅ bahavō.mbuvēgāḥ
samudramēvābhimukhāḥ dravanti.
tathā tavāmī naralōkavīrā
viśanti vaktrāṇyabhivijvalanti ৷৷28৷৷

हे विश्वमूर्ते ! जैसे नदियों के बहुत-से जलके प्रवाह समु द्रके ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात् समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश करते हैं। २८।

श्लोक 29 का अर्थ

यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥
yathā pradīptaṅ jvalanaṅ pataṅgā
viśanti nāśāya samṛddhavēgāḥ.
tathaiva nāśāya viśanti lōkā-
stavāpi vaktrāṇi samṛddhavēgāḥ ৷৷29৷৷

अथवा जैसे पतंग मोह के वश होकर नष्ट होने के लिये प्रज्वलित अग्निमें अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही यह सब लोग भी अपने नाश के लिये आपके मुखों में अति वेग से युक्त हुए प्रवेश करते हैं। २९।

श्लोक 30 का अर्थ

लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥
lēlihyasē grasamānaḥ samantā-
llōkānsamagrānvadanairjvaladbhiḥ.
tējōbhirāpūrya jagatsamagraṅ
bhāsastavōgrāḥ pratapanti viṣṇō ৷৷30৷৷

और आप उन सम्पूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसन करते हुए सब ओर से चाट रहे हैं। हे विष्णो ! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत्को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपायमान करता है। ३०।

श्लोक 31 का अर्थ

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्‌ ॥
ākhyāhi mē kō bhavānugrarūpō
namō.stu tē dēvavara prasīda.
vijñātumicchāmi bhavantamādyaṅ
na hi prajānāmi tava pravṛttim ৷৷31৷৷

हे भगवन् ! कृपा करके मेरे प्रति कहिये कि आप उग्ररूपवाले कौन हैं? हे देवोंमें श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार होवे, आप प्रसन्न होइये, आदिस्वरूप आपको मैं तत्त्वसे जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति को मैं नहीं जानता। ३१।।

श्लोक 32 का अर्थ

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥
kālō.smi lōkakṣayakṛtpravṛddhō
lōkānsamāhartumiha pravṛttaḥ.
ṛtē.pi tvāṅ na bhaviṣyanti sarvē
yē.vasthitāḥ pratyanīkēṣu yōdhāḥ ৷৷32৷৷

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! मैं लोकों का नाश करनेवाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ, इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ, इसलिये जो प्रतिपक्षियों की सेनामें स्थित हुए योधालोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करने से भी इन सबका नाश हो जायगा। ३२।

श्लोक 33 का अर्थ

तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्‍क्ष्व राज्यं समृद्धम्‌ ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‌ ॥
tasmāttvamuttiṣṭha yaśō labhasva
jitvā śatrūn bhuṅkṣva rājyaṅ samṛddham.
mayaivaitē nihatāḥ pūrvamēva
nimittamātraṅ bhava savyasācin ৷৷33৷৷

इससे तू खड़ा हो और यश को प्राप्त कर तथा शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग और यह सब शूरवीर पहिले से ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं, हे सव्यसाचिन् ! * (बायें हाथ से बाण चलाने का अभ्यास होने से अर्जुनका नाम “सव्यसाची” हुआ था।) तू तो केवल निमित्तमात्र ही हो जा। ३३।

श्लोक 34 का अर्थ

द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्‌ ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्‌ ॥
drōṇaṅ ca bhīṣmaṅ ca jayadrathaṅ ca
karṇaṅ tathā.nyānapi yōdhavīrān.
mayā hatāṅstvaṅ jahi mā vyathiṣṭhā
yudhyasva jētāsi raṇē sapatnān ৷৷34৷৷

तथा इन द्रोणाचार्य और भीष्मपितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत-से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योधाओंको तू मार और भय मत कर, निःसन्देह तू युद्ध में वैरियोंको जीतेगा, इसलिये युद्ध कर। ३४।

श्लोक 35 का अर्थ

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥
ētacchrutvā vacanaṅ kēśavasya
kṛtāñjalirvēpamānaḥ kirīṭī.
namaskṛtvā bhūya ēvāha kṛṣṇaṅ
sagadgadaṅ bhītabhītaḥ praṇamya ৷৷35৷৷

इसके उपरान्त सञ्जय बोले कि हे राजन्! केशवभगवान  के इस वचन को सुनकर, मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, काँपता हुआ नमस्कार करके, फिर भी भयभीत हुआ प्रणाम करके, भगवान् श्रीकृष्णके प्रति गद्गद वाणीसे बोला। ३५।

श्लोक 36 का अर्थ

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्‍घा: ॥
sthānē hṛṣīkēśa tava prakīrtyā
jagat prahṛṣyatyanurajyatē ca.
rakṣāṅsi bhītāni diśō dravanti
sarvē namasyanti ca siddhasaṅghāḥ ৷৷36৷৷

हे अन्तर्यामिन् ! यह योग्य ही है कि जो आपके नाम और प्रभाव के कीर्तन से जगत् अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है तथा भयभीत हुए राक्षस लोग दिशाओंमें भागते हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार करते हैं। ३६।

श्लोक 37 का अर्थ

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्‌ गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्‌ ॥
kasmācca tē na namēranmahātman
garīyasē brahmaṇō.pyādikartrē.
ananta dēvēśa jagannivāsa
tvamakṣaraṅ sadasattatparaṅ yat ৷৷37৷৷

हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिये वे कैसे नमस्कार नहीं करें। क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात् सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं। ३७।

श्लोक 38 का अर्थ

त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप । ।
tvamādidēvaḥ puruṣaḥ purāṇa-
stvamasya viśvasya paraṅ nidhānam.
vēttāsi vēdyaṅ ca paraṅ ca dhāma
tvayā tataṅ viśvamanantarūpa ৷৷38৷৷

हे प्रभो ! आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत्के परम आश्रय और जाननेवाले तथा जाननेयोग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे यह सब जगत् व्याप्त अर्थात् परिपूर्ण है। ३८।

श्लोक 39 का अर्थ

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्‍क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
vāyuryamō.gnirvaruṇaḥ śaśāṅkaḥ
prajāpatistvaṅ prapitāmahaśca.
namō namastē.stu sahasrakṛtvaḥ
punaśca bhūyō.pi namō namastē ৷৷39৷৷

हे हरे ! आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा तथा प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्माके भी पिता हैं, आपके लिये हजारों बार नमस्कार, नमस्कार होवे, आपके लिये फिर भी बारम्बार नमस्कार, नमस्कार होवे। ३९।

श्लोक 40 का अर्थ

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
namaḥ purastādatha pṛṣṭhatastē
namō.stu tē sarvata ēva sarva.
anantavīryāmitavikramastvaṅ
sarvaṅ samāpnōṣi tatō.si sarvaḥ ৷৷40৷৷

हे अनन्त सामर्थ्यवाले ! आपके लिये आगेसे और पीछेसे भी नमस्कार होवे, हे सर्वात्मन् ! आपके लिये सब ओर से ही नमस्कार होवे, क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप सब संसार को व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं। ४०।

श्लोक 41 का अर्थ

सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥
sakhēti matvā prasabhaṅ yaduktaṅ
hē kṛṣṇa hē yādava hē sakhēti.
ajānatā mahimānaṅ tavēdaṅ
mayā pramādātpraṇayēna vāpi ৷৷41৷৷

हे परमेश्वर ! सखा ऐसे मानकर आपके इस प्रभाव को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रेम से अथवा प्रमाद से भी हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे ! इस प्रकार जो कुछ हठपूर्वक कहा गया है। ४१।

श्लोक 42 का अर्थ

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌ ॥
yaccāvahāsārthamasatkṛtō.si
vihāraśayyāsanabhōjanēṣu.
ēkō.thavāpyacyuta tatsamakṣaṅ
tatkṣāmayē tvāmahamapramēyam ৷৷42৷৷

और हे अच्युत ! जो आप हँसी के लिये विहार, शय्या, आसन और भोजनादिकों में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किये गये हैं, वह सब अपराध अप्रमेय-स्वरूप अर्थात् अचिन्त्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा कराता हूँ। ४२।

श्लोक 43 का अर्थ

पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
pitāsi lōkasya carācarasya
tvamasya pūjyaśca gururgarīyān.
na tvatsamō.styabhyadhikaḥ kutō.nyō
lōkatrayē.pyapratimaprabhāva ৷৷43৷৷

हे विश्वेश्वर ! आप इस चराचर जगत्के पिता और गुरु से भी बड़े गुरु एवं अतिपूजनीय हैं, हे अतिशय प्रभाव वाले ! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक कैसे होवे ?। ४३।

श्लोक 44 का अर्थ

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌॥
tasmātpraṇamya praṇidhāya kāyaṅ
prasādayē tvāmahamīśamīḍyam.
pitēva putrasya sakhēva sakhyuḥ
priyaḥ priyāyārhasi dēva sōḍhum ৷৷44৷৷

इससे हे प्रभो ! मैं शरीर को अच्छी प्रकार चरणों में रखके और प्रणाम करके, स्तुति करनेयोग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ । हे देव ! पिता जैसे पुत्र के और सखा जैसे सखाके और पति जैसे प्रिय स्त्रीके वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने के लिये योग्य हैं। ४४।

श्लोक 45 का अर्थ

अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥
adṛṣṭapūrvaṅ hṛṣitō.smi dṛṣṭvā
bhayēna ca pravyathitaṅ manō mē.
tadēva mē darśaya dēva rūpaṅ
prasīda dēvēśa jagannivāsa ৷৷45৷৷

हे विश्वमूर्ते ! मैं पहिले न देखे हुए आश्चर्यमय आपके इस रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिये हे देव ! आप उस अपने चतुर्भुजरूप को ही मेरे लिये दिखाइये, हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये। ४५।

श्लोक 46 का अर्थ

किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥
kirīṭinaṅ gadinaṅ cakrahasta-
micchāmi tvāṅ draṣṭumahaṅ tathaiva.
tēnaiva rūpēṇa caturbhujēna
sahasrabāhō bhava viśvamūrtē ৷৷46৷৷

हे विष्णो ! मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किये हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिये हुए देखना चाहता हूँ, इसलिये हे विश्वरूप ! हे सहस्रबाहो ! आप उस ही चतुर्भुजरूप से युक्त होइये। ४६।।

इस प्रकार अर्जुनकी प्रार्थनाको सुनकर श्रीकृष्णभगवान् बोले

श्लोक 47 का अर्थ

मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात्‌ ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्‌ ॥
mayā prasannēna tavārjunēdaṅ
rūpaṅ paraṅ darśitamātmayōgāt.
tējōmayaṅ viśvamanantamādyaṅ
yanmē tvadanyēna na dṛṣṭapūrvam ৷৷47৷৷

हे अर्जुन ! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभावसे यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराट  रूप तेरेको दिखाया है जो कि तेरे सिवा दूसरे से पहिले नहीं देखा गया। ४७।

श्लोक 48 का अर्थ

न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥
na vēdayajñādhyayanairna dānai-
rna ca kriyābhirna tapōbhirugraiḥ.
ēvaṅrūpaḥ śakya ahaṅ nṛlōkē
draṣṭuṅ tvadanyēna kurupravīra ৷৷48৷৷

हे अर्जुन। मनुष्यलोक में इस प्रकार विश्वरूपवाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से तथा न दान से और न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे सिवा दूसरेसे देखा जाने को शक्य हूँ। ४८।

श्लोक 49 का अर्थ

मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्‍ममेदम्‌।
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥
mā tē vyathā mā ca vimūḍhabhāvō
dṛṣṭvā rūpaṅ ghōramīdṛṅmamēdam.
vyapētabhīḥ prītamanāḥ punastvaṅ
tadēva mē rūpamidaṅ prapaśya ৷৷49৷৷

इस प्रकारके  मेरे इस विकराल रूप को देखकर तेरे को व्याकुलता न होवे और मूढ़भाव भी न होवे और भयरहित, प्रीतियुक्त मनवाला तू उस ही मेरे इस शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मसहित चतुर्भुजरूप को फिर देख। ४९।

श्लोक 50 का अर्थ

इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥
ityarjunaṅ vāsudēvastathōktvā
svakaṅ rūpaṅ darśayāmāsa bhūyaḥ.
āśvāsayāmāsa ca bhītamēnaṅ
bhūtvā punaḥ saumyavapurmahātmā ৷৷50৷৷

उसके उपरान्त सञ्जय बोले, हे राजन् ! वासुदेवभगवान्ने अर्जुनके प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुजरूप को दिखाया और फिर महात्मा कृष्णने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत हुए अर्जुनको धीरज दिया। ५०।

श्लोक 51 का अर्थ

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः॥
dṛṣṭvēdaṅ mānuṣaṅ rūpaṅ tavasaumyaṅ janārdana.
idānīmasmi saṅvṛttaḥ sacētāḥ prakṛtiṅ gataḥ ৷৷51৷৷

उसके उपरान्त अर्जुन बोले, हे जनार्दन ! आपके इस अति शान्त मनुष्यरूप को देखकर अब मैं शान्तचित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूँ। ५१।

श्लोक 52 का अर्थ

सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्‍क्षिणः॥
sudurdarśamidaṅ rūpaṅ dṛṣṭavānasi yanmama.
dēvā apyasya rūpasya nityaṅ darśanakāṅkṣiṇaḥ ৷৷52৷৷

इस प्रकार अर्जुन के वचन को सुनकर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! मेरा यह चतुर्भुजरूप देखने को अतिदुर्लभ है कि जिसको तुमने देखा है; क्योंकि देवता भी सदा इस रूपके दर्शन करने की इच्छावाले हैं। ५२।

श्लोक 53 का अर्थ

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥
nāhaṅ vēdairna tapasā na dānēna na cējyayā.
śakya ēvaṅvidhō draṣṭuṅ dṛṣṭavānasi māṅ yathā ৷৷53৷৷

हे अर्जुन ! न वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं देखा जाने को शक्य हूँ कि जैसे मेरेको तुमने देखा है। ५३।

श्लोक 54 का अर्थ

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
bhaktyā tvananyayā śakyamahamēvaṅvidhō.rjuna.
jñātuṅ dṛṣṭuṅ ca tattvēna pravēṣṭuṅ ca paraṅtapa ৷৷54৷৷

परंतु हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार चतुर्भुजरूप  वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये और तत्त्व से जानने के लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिये भी शक्य हूँ। ५४।

श्लोक 55 का अर्थ

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्‍गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
matkarmakṛnmatparamō madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ.
nirvairaḥ sarvabhūtēṣu yaḥ sa māmēti pāṇḍava ৷৷55৷৷

हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये, सब कुछ मेरा समझता हुआ, यज्ञ, दान और तप आदि सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मो को करनेवाला है और मेरे परायण है अर्थात् मेरे को परम  आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्तिके लिये तत्पर है तथा मेरा भक्त है।

अर्थात् मेरे नाम, गुण, प्रभाव और रहस्य के श्रवण, कीर्तन, मनन, ध्यान और पठन-पाठन का प्रेमसहित निष्काम भाव से निरन्तर अभ्यास करनेवाला है और आसक्तिरहित है अर्थात् स्त्री, पुत्र और धनादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है और सम्पूर्ण भूत-प्राणियों में वैरभावसे रहित है ऐसा वह अनन्य भक्तिवाला पुरुष मेरे को ही प्राप्त होता है। ५५।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः ॥11॥

 इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादमें ‘विश्वरूपदर्शनयोग‘ नामक ग्यारहवाँ अध्याय॥११॥

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