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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा चौदहवां 14 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा चौदहवां 14 अध्याय

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श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवाद में “गुणत्रयविभागयोग” नामक चौदहवाँ अध्याय॥१४॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के चौदहवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) श्रीमहादेवजी कहते हैं-—पार्वती! अब मैं भव-बन्धन से छुटकारा पाने के साधनभूत चौदहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो। सिंहलद्वीप में विक्रम बेताल नामक एक राजा थे, जो सिंह के समान पराक्रमी और कलाओं के भण्डार थे।

एक दिन वे शिकार खेलने के लिये उत्सुक होकर राजकुमारों सहित दो कुतियों को साथ लिये वन में गये। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने तीव्र गति से भागते हुए खरगोश के पीछे अपनी कुतिया छोड़ दी।

उस समय सब प्राणियों के देखते-देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो। दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जाने के कारण वह एक बड़ी खंदक (गहरे गड़हे)-में गिर पड़ा। गिरने पर भी वह कुतिया के हाथ नहीं आया और उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ का वातावरण बहुत ही शान्त था।

वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षों की छाया में बैठे रहते थे। बंदर भी अपने-आप टूटकर गिरे हुए नारियल के फलों और पके हुए आमों से पूर्ण तृप्त रहते थे। वहाँ सिंह हाथी के बच्चों के साथ खेलते और साँप निडर होकर मोर की पाँखों में घुस जाते थे।

उस स्थान पर एक आश्रम के भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय एवं शान्त-भाव से निरन्तर गीता के चौदहवें अध्यायका पाठ किया करते थे। आश्रम  के पास ही वत्समुनि के किसी शिष्य ने अपना पैर धोया था, (ये भी चौदहवें अध्यायका पाठ करनेवाले थे।)

उसके जल से वहाँकी मिट्टी गीली हो गयी थी। खरगोश का जीवन कुछ शेष था। वह हाँफता हुआ आकर उसी कीचड़ में गिर पड़ा। उसके स्पर्शमात्र से ही खरगोश दिव्य विमान पर बैठकर स्वर्गलोक को चला गया।

फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी। वहाँ उसके शरीर में भी कुछ कीचड़ के छींटे लग गये। फिर भूख-प्यास की पीड़ा से रहित हो कुतिया का रूप त्यागकर उसने दिव्याङ्गना का रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धर्वो से सुशोभित दिव्य विमान पर आरूढ हो वह भी स्वर्गलोक को चली गयी।

यह देख मुनि के मेधावी शिष्य स्वकन्धर हँसने लगे। उन दोनों के पूर्वजन्म के वैर का कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था। उस समय राजा के नेत्र भी आश्चर्य से चकित हो उठे।

उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ प्रणाम करके पूछा-‘विप्रवर ! नीच योनि में पड़े हुए दोनों प्राणी-कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्ग में चले गये-इसका क्या कारण है ? इसकी कथा सुनाइये।’

शिष्य ने कहा -भूपाल! इस वन में वत्स नामक ब्राह्मण रहते हैं। वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा हैं; गीता के चौदहवें अध्याय का सदा जप किया करते हैं। मैं उन्हीं का शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्मविद्या में विशेषज्ञता प्राप्त की है। गुरुजी की ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्याय bhagwat geeta katha का प्रतिदिन जप करता हूँ।

मेरे पैर धोने के जल में लोटने के कारण यह खरगोश कुतिया के साथ ही स्वर्गलोक को प्राप्त हुआ है। अब मैं अपने हँसने का कारण बताता हूँ। महाराष्ट्र में प्रत्युदक नामक महान् नगर है, वहाँ केशव नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जो कपटी मनुष्यों में अग्रगण्य था।

उसकी स्त्री का नाम विलोभना था। वह स्वच्छन्द विहार करनेवाली थी। इससे क्रोध में आकर जन्मभर के वैर को याद करके ब्राह्मण ने अपनी स्त्री का वध कर डाला और उसी पाप से उसको खरगोश की योनि में जन्म मिला। ब्राह्मणी भी अपने पाप के कारण कुतिया हुई।

श्रीमहादेवजी कहते हैं-यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजा ने गीता के चौदहवें अध्याय bhagwat geeta in hindi का पाठ आरम्भ कर दिया। इससे उन्हें परमगति की प्राप्ति हुई।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

चौदहवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌ ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ (१)
paraṅ bhūyaḥ pravakṣyāmi jñānānāṅ jñānamuttamam.
yajjñātvā munayaḥ sarvē parāṅ siddhimitō gatāḥ ৷৷1৷৷

श्रीकृष्णभगवान् बोले,  हे अर्जुन ! ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर भी तेरे लिये कहूँगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ (२)
idaṅ jñānamupāśritya mama sādharmyamāgatāḥ.
sargē.pi nōpajāyantē pralayē na vyathanti ca ৷৷2৷৷

हे अर्जुन ! इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात् धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं; क्योंकि उनकी दृष्टि में मुझ वासुदेव से भिन्न कोई वस्तु है ही नहीं। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (३)
mama yōnirmahadbrahma tasmin garbhaṅ dadhāmyaham.
saṅbhavaḥ sarvabhūtānāṅ tatō bhavati bhārata ৷৷3৷৷

हे अर्जुन ! मेरी महत् ब्रह्मरूप प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात् गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतनरूप बीज को स्थापन करता हूँ। उस जड़चेतन  के संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है। ३।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (४)
sarvayōniṣu kauntēya mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ.
tāsāṅ brahma mahadyōnirahaṅ bījapradaḥ pitā ৷৷4৷৷

हे अर्जुन ! नाना  प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया तो गर्भ को धारण करनेवाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ। ४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌ ॥ (५)
sattvaṅ rajastama iti guṇāḥ prakṛtisaṅbhavāḥ.
nibadhnanti mahābāhō dēhē dēhinamavyayam ৷৷5৷৷

हे अर्जुन ! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण ऐसे यह प्रकृति से उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्‌ ।
सुखसङ्‍गेन बध्नाति ज्ञानसङ्‍गेन चानघ ॥ (६)
tatra sattvaṅ nirmalatvātprakāśakamanāmayam.
sukhasaṅgēna badhnāti jñānasaṅgēna cānagha ৷৷6৷৷

हे निष्पाप ! उन तीनों गुणों में प्रकाश करनेवाला, निर्विकार सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात् ज्ञानके अभिमानसे बाँधता है। ६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍गसमुद्भवम्‌ ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌ ॥ (७)
rajō rāgātmakaṅ viddhi tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam.
tannibadhnāti kauntēya karmasaṅgēna dēhinam ৷৷7৷৷

हे अर्जुन ! रागरूप रजोगण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान, वह इस जीवात्मा को कर्मों की और उनके फल की आसक्ति से बाँधता है। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌ ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८)
tamastvajñānajaṅ viddhi mōhanaṅ sarvadēhinām.
pramādālasyanidrābhistannibadhnāti bhārata ৷৷8৷৷

और है अर्जुन ! सर्वदेहाभिमानियों के मोहने वाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान, वह इस जीवात्मा को प्रमाद, * ( इन्द्रियाँ और अन्त:करणकी व्यर्थ चेष्टाओं का नाम “प्रमाद” है।) आलस्य (  कर्तव्यकर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमताका नाम “आलस्य” है।) और निद्रा के द्वारा बाँधता है। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥ (९)
sattvaṅ sukhē sañjayati rajaḥ karmaṇi bhārata.
jñānamāvṛtya tu tamaḥ pramādē sañjayatyuta ৷৷9৷৷

क्योंकि हे अर्जुन ! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में लगाता है तथा तमोगुण तो ज्ञानको आच्छादन करके अर्थात् ढक के प्रमाद में भी लगाता है। ९।

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ (१०)
rajastamaścābhibhūya sattvaṅ bhavati bhārata.
rajaḥ sattvaṅ tamaścaiva tamaḥ sattvaṅ rajastathā ৷৷10৷৷

और हे अर्जुन ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण होता है अर्थात् बढ़ता है तथा रजोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है, वैसे ही तमोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है। १०।

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ (११)
sarvadvārēṣu dēhē.sminprakāśa upajāyatē.
jñānaṅ yadā tadā vidyādvivṛddhaṅ sattvamityuta ৷৷11৷৷

इसलिये जिस काल में इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और बोध शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिये कि सत्त्वगुण बढ़ा है। ११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ (१२)
lōbhaḥ pravṛttirārambhaḥ karmaṇāmaśamaḥ spṛhā.
rajasyētāni jāyantē vivṛddhē bharatarṣabha ৷৷12৷৷

और हे अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात् सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थबुद्धि से आरम्भ एवं अशान्ति अर्थात् मन की चञ्चलता और विषयभोगों की लालसा, यह सब उत्पन्न होते हैं। १२।

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ (१३)
aprakāśō.pravṛttiśca pramādō mōha ēva ca.
tamasyētāni jāyantē vivṛddhē kurunandana ৷৷13৷৷

तथा हे अर्जुन ! तमोगुण के बढ़नेपर अन्तःकरण और इन्द्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात् व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ यह सब ही उत्पन्न होते हैं। १३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्‌ ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ (१४)
yadā sattvē pravṛddhē tu pralayaṅ yāti dēhabhṛt.
tadōttamavidāṅ lōkānamalānpratipadyatē ৷৷14৷৷

हे अर्जुन ! जब यह जीवात्मा सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु  को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करनेवालों के मलरहित अर्थात् दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। १४।

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ (१५)
rajasi pralayaṅ gatvā karmasaṅgiṣu jāyatē.
tathā pralīnastamasi mūḍhayōniṣu jāyatē ৷৷15৷৷

रजोगुण के बढ़ने पर, अर्थात् जिस काल में रजोगुण बढ़ता है उस काल में मृत्यु को प्राप्त होकर, कर्मों  की आसक्तिवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तथा तमोगुणके बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष कीट, पशु आदि मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है। १५।

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्‌ ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्‌ ॥ (१६)
karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ sāttvikaṅ nirmalaṅ phalam.
rajasastu phalaṅ duḥkhamajñānaṅ tamasaḥ phalam ৷৷16৷৷

क्योंकि सात्त्विक कर्म का तो सात्त्विक अर्थात् सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है और राजस कर्मका फल दुःख एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। १६।

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Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ (१७)
sattvātsañjāyatē jñānaṅ rajasō lōbha ēva ca.
pramādamōhau tamasō bhavatō.jñānamēva ca ৷৷17৷৷

सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसंदेह लोभ उत्पन्न होता है तथा तमोगुण से प्रमाद* और मोह (  प्रमाद* और मोह इसी अध्यायके श्लोक १३ में देखना चाहिये।)। उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है। १७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ (१८)
ūrdhvaṅ gacchanti sattvasthā madhyē tiṣṭhanti rājasāḥ.
jaghanyaguṇavṛttisthā adhō gacchanti tāmasāḥ ৷৷18৷৷

इसलिये सत्त्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं और रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात् मनुष्य लोक में ही रहते हैं एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। १८।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ (१९)
nānyaṅ guṇēbhyaḥ kartāraṅ yadā draṣṭānupaśyati.
guṇēbhyaśca paraṅ vētti madbhāvaṅ sō.dhigacchati ৷৷19৷৷

हे अर्जुन ! जिस काल में द्रष्टा अर्थात् समष्टि-चेतन में एकीभाव से स्थित हुआ साक्षी पुरुष तीनों गुणों के सिवा अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात् गुण ही गुणों में बर्तते हैं* (त्रिगुणमयी माया से उत्पन्न हुए अन्त:करण के सहित इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयों में विचरना ही “गणों का गुणों में बर्तना” है) ऐसा देखता है और तीनों गुणोंसे अति परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्त्वसे जानता  है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है। १९।

Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌ ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ (२०)
guṇānētānatītya trīndēhī dēhasamudbhavān.
janmamṛtyujarāduḥkhairvimuktō.mṛtamaśnutē ৷৷20৷৷

तथा यह पुरुष इन स्थूल ( बुद्धी, अहंकार और मन तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच भूत, पाँच इन्द्रियों के विषय-इस प्रकार इन २३ तत्त्वोंका पिण्डरूप यह स्थूल शरीर प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले गुणों का ही कार्य है, इसलिये इन तीनों गुणों को इसकी उत्पत्ति का कारण कहा है।)  शरीर की उत्पत्ति के कारण तीनों गुणों को उल्लङ्घन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुःखोंसे मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त होता है। २०।

Bhagwat Geeta श्लोक 21 का अर्थ

कैर्लिङ्‍गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ (२१)
kairliṅgaistrīnguṇānētānatītō bhavati prabhō.
kimācāraḥ kathaṅ caitāṅstrīnguṇānativartatē ৷৷21৷৷

इस प्रकार भगवान्के रहस्ययुक्त वचनों को सुनकर अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम ! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है ? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है तथा हे प्रभो ! मनुष्य किस उपाय से इन  तीनों गुणोंसे अतीत होता है? । २१।

श्लोक 22 का अर्थ

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्‍क्षति ॥ (२२)
prakāśaṅ ca pravṛttiṅ ca mōhamēva ca pāṇḍava.
na dvēṣṭi sampravṛttāni na nivṛttāni kāṅkṣati ৷৷22৷৷

इस प्रकार अर्जुन के पूछनेपर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को (‘ अन्तःकरण और इन्द्रियादिकों में आलस्य का अभाव होकर जो एक प्रकार की चेतनता होती है, उसका नाम “प्रकाश” है।)

और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को (निद्रा और आलस्य आदि की बहुलता से अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनशक्ति के लय होनेको यहाँ “मोह” नाम से समझना चाहिये।)

भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकाङ्क्षा करता है ( जो पुरुष एक सच्चिदानन्दधन परमात्मामें ही नित्य एकीभाव से स्थित हुआ इस त्रिगुणमयी माया के प्रपन्च रूप संसार से  सर्वथा अतीत हो गया है, उस गुणातीत पुरुष के अभिमानरहित अन्त:करण में तीनों गुणों के कार्यरूप प्रकाश, प्रवृत्ति और मोहादि वृत्तियोंके प्रकट होने और न होने पर किसी काल में भी इच्छा-द्वेष आदि विकार नहीं होते हैं। यही उसके गुणों से  अतीत होने के प्रधान लक्षण हैं।)। २२।

श्लोक 23 का अर्थ

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्‍गते ॥ (२३)
udāsīnavadāsīnō guṇairyō na vicālyatē.
guṇā vartanta ityēva yō.vatiṣṭhati nēṅgatē ৷৷23৷৷

तथा जो साक्षी के सदश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित  नहीं किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हैं* (इसी अध्याय के श्लोक १९ की टिप्पणीमें देखना चाहिये।) ऐसा समझता हआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है। २३।

श्लोक 24 का अर्थ

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ (२४)
samaduḥkhasukhaḥ svasthaḥ samalōṣṭāśmakāñcanaḥ.
tulyapriyāpriyō dhīrastulyanindātmasaṅstutiḥ ৷৷24৷৷

जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित हुआ दुःख-सुख को समान समझनेवाला है तथा मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण में समान भाववाला और धैर्यवान् है तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाववाला है। २४।

श्लोक 25 का अर्थ

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥ (२५)
mānāpamānayōstulyastulyō mitrāripakṣayōḥ.
sarvārambhaparityāgī guṇātītaḥ sa ucyatē ৷৷25৷৷

तथा जो मान और अपमान में सम है एवं मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है। २५।

श्लोक 26 का अर्थ

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (२६)
māṅ ca yō.vyabhicārēṇa bhakitayōgēna sēvatē.
sa guṇānsamatītyaitān brahmabhūyāya kalpatē ৷৷26৷৷

और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तिरूप योगके (केवल एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर वासुदेव भगवान्को ही अपना स्वामी मानता हुआ स्वार्थ और अभिमान को  त्याग्कर  श्रद्धा भाव के सहित परम प्रेम से निरन्तर चिन्तन करने को ‘अव्यभिचारी भक्तियोग’ कहते हैं।) द्वारा मेरे को निरन्तर भजता है, वह इन तीनों गुणों कोअच्छी प्रकार उल्लङ्घन करके सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें एकीभाव होने के लिये योग्य होता है। २६।

श्लोक 27 का अर्थ

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ (२७)
brahmaṇō hi pratiṣṭhā.hamamṛtasyāvyayasya ca.
śāśvatasya ca dharmasya sukhasyaikāntikasya ca ৷৷27৷৷

हे अर्जुन ! उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्यधर्म का और अखण्ड एकरस आनन्द का मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् उपर्युक्त ब्रह्म, अमृत, अव्यय और शाश्वतधर्म तथा ऐकान्तिक सुख, यह सब मेरे ही नाम हैं, इसलिये इनका मैं परम आश्रय हूँ। २७।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे प्राकृतिकगुणविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः॥

 इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवाद में “गुणत्रयविभागयोग” नामक चौदहवाँ अध्याय॥१४॥

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