Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा तेरहवां 13 अध्याय
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श्रीमद्भगवदीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण के संवाद में “क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग” नामक तेरहवां अध्याय ॥१३॥
श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के तेरहवां अध्याय का माहात्म्य
(Bhagwat Geeta) श्रीमहादेवजी कहते हैं-—पार्वती! अब तेरहवें अध्याय की अगाध महिमा का वर्णन सुनो। उसको सुनने से तुम बहुत प्रसन्न होओगी। दक्षिण दिशा में तुङ्गभद्रा नाम की एक बहुत बड़ी नदी है। उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है।
वहाँ हरिहर नाम से साक्षात् भगवान् शिवजी विराजमान हैं, जिनके दर्शन मात्र से परम कल्याण की प्राप्ति होती है। हरिहरपुर में हरिदीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्याय में संलग्न तथा वेदों के पारगामी विद्वान् थे।
उनके एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचारा कहकर पुकारते थे। इस नाम के अनुसार ही उसके कर्म भी थे। वह सदा पति को कुवाच्य कहती थी। उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया।
पति से सम्बन्ध रखने वाले जितने लोग घ रपर आते, उन सबको डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर व्यभिचारियों के साथ रमण किया करती थी।
एक दिन नगर को इधर—उधर आते —जाते हुए पुरवासियों से भरा देख उसने निर्जन एवं दुर्गम वन में अपने लिये संकेत स्थान बना लिया। एक समय रात में किसी कामी को न पाकर वह घर के किवाड़ खोल नगर से बाहर संकेत स्थानपर चली गयी।
उस समय उसका चित्त काम से मोहित हो रहा था। वह एक-एक कुञ्ज में तथा प्रत्येक वृक्ष के नीचे जा-जाकर किसी प्रियतम की खोज करने लगी; किंतु उन सभी स्थानों पर उसका परिश्रम व्यर्थ गया।
उसे प्रियतम का दर्शन नहीं हुआ। तब वह उस वन में नाना प्रकार की बातें कहकर विलाप करने लगी। चारों दिशाओं में घूम—घूमकर वियोगजनित विलाप करती हुई उस स्त्री की आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाघ जाग उठा और उछलकर उस स्थान पर पहुचा, जहाँ वह रो रही थी।
उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमी की आशङ्का से उसके सामने खड़ी होने के लिये ओट से बाहर निकल आयी। उस समय व्याघ्र ने आकर उसे नखरूपी बाणों के प्रहार से पृथ्वीपर गिरा दिया।
इस अवस्था में भी वह कठोर वाणी में चिल्लाती हुई पूछ बैठी-—’अरे बाघ ! तू किसलिये मुझे मारने को यहाँ आया है ? पहले इन सारी बातों को बता दे, फिर मुझे मारना।’
उसकी यह बात सुनकर प्रचण्ड पराक्रमी व्याघ्र क्षणभर के लिये उसे अपना ग्रास बनाने से रुक गया और हँसता हुआ-सा बोला-—’दक्षिण देश में मलापहा नामक एक नदी है। उसके तटपर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है।
वहाँ पञ्चलिङ्ग नाम से प्रसिद्ध साक्षात् भगवान् शङ्कर निवास करते हैं। उसी नगरी में मैं ब्राह्मणकुमार होकर रहता था। नदी के किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञके अधिकारी नहीं हैं, उन लोगों से भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था।
इतना ही नहीं, धन के लोभ से मैं सदा अपने वेदपाठ के फल को भी बेचा करता था। मेरा लोभ यहाँ तक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओं को गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरों को नहीं देनेयोग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था।
ऋण लेने के बहाने मैं सब लोगों को छला करता था। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होने पर मैं बूढ़ा हुआ। मेरे बाल सफेद हो गये, आँखों से सूझता न था और मुँह के सारे दाँत गिर गये। इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छूटी।
पर्व आने पर प्रतिग्रह के लोभ से मैं हाथ में कुश लिये तीर्थ के समीप चला जाया करता था। तत्पश्चात् जब मेरे सारे अङ्ग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणों के घर पर माँगने— खाने के लिये गया। उसी समय मेरे पैर में कुत्ते ने काट लिया।
तब मैं मूछित होकर क्षणभर में पृथ्वी पर गिर पड़ा। मेरे प्राण निकल गये। उसके बाद मैं इसी व्याघ्र योनि में उत्पन्न हुआ। तब से इस दुर्गम वन में रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापों को याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियों को मैं नहीं खाता।
पापी-दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियों को ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ; अतः कुलटा होने के कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।’ यों कहकर वह अपने कठोर नखों से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके खा गया।
इसके बाद यमराज के दूत उस पापिनी को संयमनीपुरी में ले गये। वहाँ यमराज की आज्ञा से उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्त से भरे हुए भयानक कुण्डों में गिराया। करोड़ों कल्पोंतक उसमें रखने के बाद उसे वहाँ से ले आकर सौ मन्वन्तरों तक रौरव नरक में रखा।
फिर चारों ओर मुँह करके दीन भाव से रोती हुई उस पापिनी को वहाँ से खींचकर दहनानन नामक नरक में गिराया। उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था।
इस प्रकार घोर नरक यातना भोग चुकने पर वह महापापिनी इस लोक मे आकर चाण्डाल— योनि में उत्पन्न हुई bhagwat geeta katha। चाण्डाल के घर में भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्म के अभ्यास से पूर्ववत् पापों में प्रवृत्त रही।
फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्मा का रोग हो गया। नेत्रों में पीड़ा होने लगी। फिर कुछ कालके पश्चात् वह पुनः अपने निवासस्थान (हरिहरपुर ) को गयी, जहाँ भगवान शिव के अन्तःपुर की स्वामिनी जम्भकादेवी विराजमान हैं।
वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मण का दर्शन किया, जो निरन्तर गीता के तेरहवें अध्याय bhagwat geeta in hindi का पाठ करता रहता था। उसके मुख से गीता का पाठ सुनते ही वह चाण्डाल शरीर से मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोक में चली गयी।
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
तेरहवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta
Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ৷৷1৷৷
prakṛtiṅ puruṣaṅ caiva kṣētraṅ kṣētrajñamēva ca.
ētadvēditumicchāmi jñānaṅ jñēyaṅ ca kēśava ৷৷1৷৷
श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले, —हे अर्जुन ! यह शरीर क्षेत्र है ( * जैसे खेत में बोये हुए बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोये हुए कर्मों के संस्काररूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है. इसलिये इसका नाम ‘क्षेत्र’ ऐसा कहा है।) ऐसे कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उनके तत्वको जाननेवाले ज्ञानीजन कहते हैं। १।
Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
idaṅ śarīraṅ kauntēya kṣētramityabhidhīyatē.
ētadyō vētti taṅ prāhuḥ kṣētrajña iti tadvidaḥ ৷৷2৷৷
और हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मेरे को ही जान (गीता अध्याय १५ श्लोक ७ और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिये।) और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात् विकार सहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्त्व से जानना है ( गीता अध्याय १३ श्लोक २३ और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिये। ) वह ज्ञ।न है ऐसा मेरा मत है। २।
Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
kṣētrajñaṅ cāpi māṅ viddhi sarvakṣētrēṣu bhārata.
kṣētrakṣētrajñayōrjñānaṅ yattajjñānaṅ mataṅ mama ৷৷3৷৷
इसलिये वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेप से मेरे से सुन। ३।
Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥
tatkṣētraṅ yacca yādṛk ca yadvikāri yataśca yat.
sa ca yō yatprabhāvaśca tatsamāsēna mē śrṛṇu ৷৷4৷৷
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है अर्थात् समझाया गया है और नाना प्रकार के वेदमन्त्रों से विभागपूर्वक कहा गया है तथा अच्छी प्रकार निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी वैसे ही कहा गया है। ४।
Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥
ṛṣibhirbahudhā gītaṅ chandōbhirvividhaiḥ pṛthak.
brahmasūtrapadaiścaiva hētumadbhirviniśicataiḥ ৷৷5৷৷
हे अर्जुन ! वही मैं तेरे लिये कहता हूँ कि पाँच महाभूत अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का सूक्ष्मभाव, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया भी तथा दस इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। ५।
Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥
mahābhūtānyahaṅkārō buddhiravyaktamēva ca.
indriyāṇi daśaikaṅ ca pañca cēndriyagōcarāḥ ৷৷6৷৷
तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और स्थूल देह का पिण्ड एवं चेतनता*(* शरीर और अन्त:करण की एक प्रकार की चेतनशक्ति।) और धृति ( गीता अध्याय १८ श्लोक ३३-३५ में देखना चाहिये।) इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित* (पाँचवें श्लोक में कहा हुआ तो क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिये और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि क्षेत्र के विकार समझने चाहिये) संक्षेप से कहा गया।६।।
Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥
icchā dvēṣaḥ sukhaṅ duḥkhaṅ saṅghātaścētanādhṛtiḥ.
ētatkṣētraṅ samāsēna savikāramudāhṛtam ৷৷7৷৷
हे अर्जुन ! श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना और क्षमाभाव तथा मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्तिसहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि ( सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहारकी तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग-द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्त:करण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है। ), अन्त:करण की स्थिरता, मन और इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह। ७।
Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
amānitvamadambhitvamahiṅsā kṣāntirārjavam.
ācāryōpāsanaṅ śaucaṅ sthairyamātmavinigrahaḥ ৷৷8৷৷
इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म-मृत्यु-जरा और रोग आदि में दुःख-दोषों का बारंबार विचार करना। ८।
Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
indriyārthēṣu vairāgyamanahaṅkāra ēva ca.
janmamṛtyujarāvyādhiduḥkhadōṣānudarśanam ৷৷9৷৷
पुत्र, स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और ममता का न होना तथा प्रिय—अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना अर्थात् मन के अनुकूल तथा प्रतिकूल के प्राप्त होनेपर हर्ष-शोकादि विकारों का न होना। ९।
Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
asakitaranabhiṣvaṅgaḥ putradāragṛhādiṣu.
nityaṅ ca samacittatvamiṣṭāniṣṭōpapattiṣu ৷৷10৷৷
मुझ परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यानयोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति* (केवल एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके श्रद्धा और भावसहित, परम प्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना “अव्यभिचारिणी भक्ति” है।) तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेमका न होना। १०।
Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
mayi cānanyayōgēna bhakitaravyabhicāriṇī.
viviktadēśasēvitvamaratirjanasaṅsadi ৷৷11৷৷
तथा अध्यात्मज्ञान ( जिस ज्ञान के द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाय उस ज्ञान का नाम ” अध्यात्मज्ञान” है।) में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान ( इस अध्याय के श्लोक ७ से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं ये सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से “ज्ञान” नाम से कहे गये हैं।) है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान (ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत जो मान, दम्भ, हिंसा आदि है, वे अज्ञान की वृद्धि हेतु होने से “अज्ञान” नाम से कहे गये हैं।) है ऐसे कहा है। ११ ।
Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
adhyātmajñānanityatvaṅ tattvajñānārthadarśanam.
ētajjñānamiti prōktamajñānaṅ yadatōnyathā ৷৷12৷৷
हे अर्जुन ! जो जानने के योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूँगा, वह आदिरहित, परम ब्रह्म अकथनीय होने से न सत् कहा जाता है और न असत् ही कहा जाता है। १२।
Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥
jñēyaṅ yattatpravakṣyāmi yajjñātvā.mṛtamaśnutē.
anādimatparaṅ brahma na sattannāsaducyatē ৷৷13৷৷
परंतु वह सब ओर से हाथ-पैरवाला एवं सब ओर से नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर से श्रोत्रवाला है; क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारणरूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारणरूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है।) १३।
Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
sarvataḥ pāṇipādaṅ tatsarvatō.kṣiśirōmukham.
sarvataḥ śrutimallōkē sarvamāvṛtya tiṣṭhati ৷৷14৷৷
और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला है, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्तिरहित और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सबको धारण-पोषण करनेवाला और गुणों को भोगनेवाला है। १४।
Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
sarvēndriyaguṇābhāsaṅ sarvēndriyavivarjitam.
asaktaṅ sarvabhṛccaiva nirguṇaṅ guṇabhōktṛ ca ৷৷15৷৷
तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्षम होने से अविज्ञेय है*(* जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) तथा अति समीप में ( वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है।) और दूर में ( श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिये न जानने के कारण बहुत दूर है।) भी स्थित वही है। १५।
Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
bahirantaśca bhūtānāmacaraṅ caramēva ca.
sūkṣmatvāttadavijñēyaṅ dūrasthaṅ cāntikē ca tat ৷৷16৷৷
और वह विभागरहित एकरूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूतोंमें पृथक्-पृथक्के सदृश स्थित प्रतीत होता है तथा वह जाननेयोग्य परमात्मा, विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करनेवाला और रुद्ररूप से संहार करनेवाला तथा ब्रह्मारूप से सबका उत्पन्न करनेवाला है। १६।
Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
avibhaktaṅ ca bhūtēṣu vibhaktamiva ca sthitam.
bhūtabhartṛ ca tajjñēyaṅ grasiṣṇu prabhaviṣṇu ca ৷৷17৷৷
वह ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति ( गीता अध्याय १५ श्लोक १२में देखना चाहिये।) एवं माया से अति परे कहा जाता है जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक्-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एकरूप से स्थित हुआ भी पृथक्-पृथक की भाँति प्रतीत होता है। तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जानने के योग्य है एवं तत्त्वज्ञान से प्राप्त होनेवाला और सबके हृदयमें स्थित है। १७।
Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
jyōtiṣāmapi tajjyōtistamasaḥ paramucyatē.
jñānaṅ jñēyaṅ jñānagamyaṅ hṛdi sarvasya viṣṭhitam ৷৷18৷৷
हे अर्जुन ! इस प्रकार क्षेत्र*(* श्लोक ५-६ में विकारसहित क्षेत्रका स्वरूप कहा है।) तथा ज्ञान (श्लोक ७ से ११ तक ज्ञान अर्थात् ज्ञान का साधन कहा है।) और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप (श्लोक १२ से १७ तक ज्ञेय का स्वरूप कहा है।) संक्षेप से कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मेरा भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। १८।
Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥
iti kṣētraṅ tathā jñānaṅ jñēyaṅ cōktaṅ samāsataḥ.
madbhakta ētadvijñāya madbhāvāyōpapadyatē ৷৷19৷৷
हे अर्जुन ! प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी मेरी माया और जीवात्मा अर्थात् क्षेत्रज्ञ, इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न हुए जान। १९।
Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥
prakṛtiṅ puruṣaṅ caiva viddhyanādī ubhāvapi.
vikārāṅśca guṇāṅścaiva viddhi prakṛtisaṅbhavān ৷৷20৷৷
क्योंकि कार्य ( आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-इनका नाम कार्य है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा ! इन १३ का नाम करण है। ) के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तापन में अर्थात् भोगने में हेतु कहा जाता है। २०।
Bhagwat Geeta श्लोक 21 का अर्थ
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥
kāryakāraṇakartṛtvē hētuḥ prakṛtirucyatē.
puruṣaḥ sukhaduḥkhānāṅ bhōktṛtvē hēturucyatē ৷৷21৷৷
परंतु प्रकृति में *(* प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय ७ श्लोक १४ में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिये।) स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थों को भोगता है और इन गुणोंका सङ्ग ही इस जीवात्माके अच्छी, बुरी योनियों में जन्म लेने में कारण है (सत्वगुण के सङ्ग से देवयोनि में एवं रजोगुण के सङ्ग से मनुष्य योनि में और तमोगुण के सङ्ग से पशु —पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म होता है।) ।। २१।
Bhagwat Geeta श्लोक 22 का अर्थ
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
puruṣaḥ prakṛtisthō hi bhuṅktē prakṛtijānguṇān.
kāraṇaṅ guṇasaṅgō.sya sadasadyōnijanmasu ৷৷22৷৷
वास्तव में तो यह पुरुष इस देह में स्थित हुआ भी पर अर्थात् त्रिगुणमयी माया से सर्वथा अतीत ही है, केवल साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देनेवाला होने से अनुमन्ता एवं सबको धारण करनेवाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता तथा ब्रह्मादिकों का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा, ऐसा कहा गया है। २२।
Bhagwat Geeta श्लोक 23 का अर्थ
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
upadraṣṭā.numantā ca bhartā bhōktā mahēśvaraḥ.
paramātmēti cāpyuktō dēhē.sminpuruṣaḥ paraḥ ৷৷23৷৷
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्त्वसे जानता है*(* दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत् माया का कार्य होने से क्षणभङ्गर, नाशवान्, जड और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के सङ्गका सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको “तत्त्वसे जानना” है।) वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है अर्थात् पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता है। २३।
Bhagwat Geeta श्लोक 24 का अर्थ
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
ya ēvaṅ vētti puruṣaṅ prakṛtiṅ ca guṇaiḥsaha.
sarvathā vartamānō.pi na sa bhūyō.bhijāyatē ৷৷24৷৷
हे अर्जुन ! उस परम पुरुष परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यानके द्वारा ( जिसका वर्णन गीता अध्याय ६ में श्लोक ११ से ३२ तक विस्तारपूर्वक किया है।) हृदय में देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञानयोग के ( जिसका वर्णन गीता अध्याय २ में श्लोक ११ से ३० तक विस्तारपूर्वक किया है।) द्वारा देखते हैं और अपर कितने ही निष्काम कर्मयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय २ में श्लोक ४०से अध्याय समाप्ति पर्यन्त विस्तारपूर्वक किया है। ) के द्वारा देखते हैं। २४।
Bhagwat Geeta श्लोक 25 का अर्थ
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
dhyānēnātmani paśyanti kēcidātmānamātmanā.
anyē sāṅkhyēna yōgēna karmayōgēna cāparē ৷৷25৷৷
परंतु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं अर्थात् उन पुरुषों के कहने के अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुनने के परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार सागर को निःसंदेह तर जाते हैं। २५।
श्लोक 26 का अर्थ
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥
anyē tvēvamajānantaḥ śrutvā.nyēbhya upāsatē.
tē.pi cātitarantyēva mṛtyuṅ śrutiparāyaṇāḥ ৷৷26৷৷
हे अर्जुन ! यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर, जङ्गम वस्तु उत्पन्न होती है, उस सम्पूर्ण को तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोगसे – ही उत्पन्न हुई जान अर्थात् प्रकृति और पुरुष के परस्पर के सम्बन्ध से ही सम्पूर्ण जगत की स्थिति है, वास्तव में तो सम्पूर्ण जगत् नाशवान् और क्षणभङ्गर होनेसे अनित्य है। २६।
श्लोक 27 का अर्थ
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥
yāvatsañjāyatē kiñcitsattvaṅ sthāvarajaṅgamam.
kṣētrakṣētrajñasaṅyōgāttadviddhi bharatarṣabha ৷৷27৷৷
इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाशरहित परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही देखता है। २७।
श्लोक 28 का अर्थ
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥
samaṅ sarvēṣu bhūtēṣu tiṣṭhantaṅ paramēśvaram.
vinaśyatsvavinaśyantaṅ yaḥ paśyati sa paśyati ৷৷28৷৷
क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है अर्थात् शरीर का नाश होने से अपने आत्मा का नाश नहीं मानता है, इससे वह परमगति को प्राप्त होता है। २८।
श्लोक 29 का अर्थ
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥
samaṅ paśyanhi sarvatra samavasthitamīśvaram.
na hinastyātmanā৷৷tmānaṅ tatō yāti parāṅ gatim ৷৷29৷৷
और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मो को सब प्रकार से प्रकृति से ही किये हुए देखता है अर्थात् इस बात को तत्त्वसे समझ लेता है कि प्रकृति से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बर्तते हैं तथा आत्मा को अकर्ता देखता है, वही देखता है। २९।
श्लोक 30 का अर्थ
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
prakṛtyaiva ca karmāṇi kriyamāṇāni sarvaśaḥ.
yaḥ paśyati tathā৷৷tmānamakartāraṅ sa paśyati ৷৷30৷৷
और यह पुरुष जिस काल में भूतों के न्यारे-न्यारे भाव को एक परमात्मा के संकल्प के आधार स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उस काल में सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त होता है। ३०।
श्लोक 31 का अर्थ
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
yadā bhūtapṛthagbhāvamēkasthamanupaśyati.
tata ēva ca vistāraṅ brahma sampadyatē tadā ৷৷31৷৷
हे अर्जुन ! अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा, शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है और न लिपायमान होता है। ३१।
श्लोक 32 का अर्थ
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
anāditvānnirguṇatvātparamātmāyamavyayaḥ.
śarīrasthō.pi kauntēya na karōti na lipyatē ৷৷32৷৷
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से लिपायमान नहीं होता है। ३२।
श्लोक 33 का अर्थ
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥
yathā sarvagataṅ saukṣmyādākāśaṅ nōpalipyatē.
sarvatrāvasthitō dēhē tathā৷৷tmā nōpalipyatē ৷৷33৷৷
हे अर्जुन ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है अर्थात् नित्यबोधस्वरूप एक आत्मा की ही सत्ता से सम्पूर्ण जडवर्ग प्रकाशित होता है। ३३।
श्लोक 34 का अर्थ
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
yathā prakāśayatyēkaḥ kṛtsnaṅ lōkamimaṅ raviḥ.
kṣētraṅ kṣētrī tathā kṛtsnaṅ prakāśayati bhārata ৷৷34৷৷
इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को* (क्षेत्र को जड, विकारी, क्षणिक और नाशवान् तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही उनके भेद को जानना” है।) तथा विकारसहित प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञाननेत्रों द्वारा तत्त्वसे जानते हैं, वे महात्माजन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। ३४।
श्लोक 35 का अर्थ
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥
kṣētrakṣētrajñayōrēvamantaraṅ jñānacakṣuṣā.
bhūtaprakṛtimōkṣaṅ ca yē viduryānti tē param ৷৷35৷৷
इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही ‘उनके भेद को जानना’ है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥३५॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥
इति श्रीमद्भगवदीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण के संवाद में “क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग” नामक तेरहवां अध्याय ॥१३॥
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