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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा पंद्रहवां 15 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा पंद्रहवां 15 अध्याय

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श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादमें “पुरुषोत्तमयोग” नामक पंद्रहवाँ अध्याय ॥१५॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के पंद्रहवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) श्रीमहादेवजी कहते हैं-—पार्वती ! अब गीता के पंद्रहवें अध्याय का माहात्म्य सुनो। गौड़देश में कृपाण-नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवार की धार से युद्ध में देवता भी परास्त हो जाते थे। उनका बुद्धिमान् सेनापति शस्त्र और शास्त्र की कलाओं का भण्डार था। उसका नाम था सरभमेरुण्ड। उसकी भुजाओं में प्रचण्ड बल था।

एक समय उस पापी ने राजकुमारों सहित महाराज का वध करके स्वयं ही राज्य करने का विचार किया। इस निश्चय के कुछ ही दिनों बाद वह हैजे का शिकार होकर मर गया। थोड़े समय में वह पापात्मा अपने पूर्व कर्म के कारण सिन्धु देश में एक तेजस्वी घोड़ा हुआ।

उसका पेट सटा हुआ था। घोड़े के लक्षणों का ठीक-ठीक ज्ञान रखने वाले किसी वैश्य के पुत्र ने बहुत-सा मूल्य देकर उस अश्व को खरीद लिया और यत्न के साथ उसे राजधानी तक वह ले आया।

वैश्य कुमार वह अश्व राजा को देने को लाया था। यद्यपि राजा उस वैश्य कुमार से परिचित थे, तथापि द्वारपाल ने जाकर उसके आगमन की सूचना दी।

राजा ने पूछा-—’किसलिये आये हो ?’ तब उसने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया-‘देव ! सिन्धु देश में एक उत्तम लक्षणों से सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकों का एक रत्न समझकर मैंने बहुत-सा मूल्य देकर खरीद लिया है।’

राजा ने आज्ञा दी–’—उस अश्व को यहाँ ले आओ।’ । वास्तव में वह घोड़ा गुणों में उच्चैःश्रवा के समान था। सुन्दर रूप का तो मानो घर ही था। शुभ लक्षणों का समुद्र जान पड़ता था। वैश्य घोड़ा ले आया और राजा ने उसे देखा।

अश्व का लक्षण जानने वाले अमात्यों ने इसकी बड़ी प्रशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्द में निमग्न हो गये और उन्होंने वैश्य को मुँह माँगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस अश्व को खरीद लिया।

कुछ दिनों के बाद एक समय राजा शिकार खेलने के लिये उत्सुक हो उसी घोड़े पर चढ़कर वन में गये। वहाँ मृगों के पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया। पीछे-पीछे सब ओर से दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकों का साथ छूट गया।

वे हिरनों द्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गये। प्यास ने उन्हें व्याकुल कर दिया। तब वे घोड़े से उतरकर जल की खोज करने लगे। घोड़े को तो उन्होंने वृक्ष की डाली में बाँध दिया और स्वयं एक चट्टान पर चढ़ने लगे।

कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि एक पत्ते का टुकड़ा हवा से उड़कर शिलाखण्ड पर गिरा है। उसमें गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा हुआ था। राजा उसे बाँचने लगे।

उनके मुख से गीता के अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्व-शरीर को छोड़कर तुरंत ही दिव्य विमान पर बैठकर वह स्वर्गलोक को चला गया। तत्पश्चात् राजा ने पहाड़ पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेशर, केले, आम और नारियल के वृक्ष लहरा रहे थे।

आश्रम के भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसार की वासनाओं से मुक्त थे। राजा ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी भक्ति के साथ पूछा-‘ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभी-अभी स्वर्ग को चला गया है, उसमें क्या कारण है ?’

राजा की बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मन्त्रवेत्ता एवं महापुरुषों में श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मण ने कहा-‘राजन् ! पूर्वकाल में तुम्हारे यहाँ जो ‘सरभमेरुण्ड’ नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रों सहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेने को तैयार था।

इसी बीच में हैजे का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके बाद वह उसी पाप से घोड़ा हुआ था। यहाँ कहीं गीता के पंद्रहवें अध्याय का आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसे ही तुम बाँचने लगे। उसी को तुम्हारे मुख से सुनकर वह अश्व स्वर्ग को प्राप्त हुआ है।’

तदनन्तर राजा के पार्श्ववर्ती सैनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन सबके साथ ब्राह्मण को प्रणाम करके राजा प्रसन्नतापूर्वक वहाँ से चले और गीता के पंद्रहवें अध्याय bhagwat geeta in hindi के श्लोकाक्षरों से अङ्कित उसी पत्र को बाँच-बाँचकर प्रसन्न होने लगे।

उनके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे। घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियों के साथ अपने पुत्र सिंहबल को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्याय bhagwat geeta katha के जप से विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

पंद्रहवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ৷৷1৷৷
ūrdhvamūlamadhaḥśākhamaśvatthaṅ prāhuravyayam.
chandāṅsi yasya parṇāni yastaṅ vēda sa vēdavit ৷৷1৷৷

उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले कि — हे अर्जुन ! आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाले* (* आदिपुरुष नारायण वासुदेव भगवान् ही नित्य और अनन्त तथा सबके आधार होने के कारण और सबके ऊपर नित्यधाम में सगुणरूप से वास करने के कारण ऊर्ध्व नाम से कहे गये हैं और वे मायापति सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ही इस संसारवृक्ष के कारण हैं, इसलिये इस संसार-वृक्षको ‘ऊर्ध्वमूलवाला’ कहते हैं।)

और ब्रह्मारूप मुख्य शाखावाले ( उस आदिपुरुष परमेश्वर से उत्पत्तिवाला होने के कारण तथा नित्यधाम से नीचे ब्रह्मलोक में वास करने के कारण हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा को परमेश्वर की अपेक्षा अधः कहा है और वही इस संसार का विस्तार करनेवाला होने से इसकी मुख्य शाखा है, इसलिये इस संसार-वृक्ष को “अध:शाखावाला” कहते हैं।)

जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी (इस वृक्ष का मूलकारण परमात्मा अविनाशी है तथा अनादिकाल से इसकी परम्परा चली आती है, इसलिये इस संसार को ‘अविनाशी’ कहते हैं।) कहते हैं

तथा जिसके वेद पत्ते कहे गये हैं; ( इस वृक्ष की शाखारूप ब्रह्मा से प्रकट होने वाले और यज्ञादिक कर्मो के द्वारा इस संसार वृक्ष की रक्षा और वृद्धि के करने वाले एवं शोभा को बढ़ाने वाले होने से वेद “पत्ते” कहे गये हैं।)

उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जाननेवाला है* (* भगवान की योगमाया से उत्पन्न हुआ संसार क्षणभङ्गर, नाशवान् और दुःखरूप है, इसके चिन्तन को त्यागकर केवल परमेश्वर का ही नित्य-निरन्तर अनन्य प्रेम से चिन्तन करना “वेद के तात्पर्य को जानना” है।)। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ৷৷2৷৷
adhaścōrdhvaṅ prasṛtāstasya śākhā
guṇapravṛddhā viṣayapravālāḥ.
adhaśca mūlānyanusantatāni
karmānubandhīni manuṣyalōkē ৷৷2৷৷

हे अर्जुन ! उस संसार-वृक्ष की तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषयभोग रूप कोंपलों वाली ( (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँचों स्थूल देह और इन्द्रियों की अपेक्षा सूक्ष्म होने के कारण, उन शाखाओं की ‘कोंपलों के’ रूप में कहे गये हैं।)

देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनिरूप शाखाएँ ( मुख्य शाखारूप ब्रह्मा से सम्पूर्ण लोकों के सहित देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है, इसलिये उनका यहाँ “शाखाओं” के रूप में वर्णन किया है।)

नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य योनि में (अहंता, ममता और वासनारूप मूलों को केवल मनुष्य योनि में कर्मो के अनुसार बाँधने  वाली कहने का कारण यह है कि अन्य सब योनियों में तो केवल पूर्वकृत कर्मो के फल को भोगने का ही अधिकार है और मनुष्य योनि में नवीन कर्मो के करने का भी अधिकार है।)

कर्मो के अनुसार बाँधनेवाली अहंता, ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ৷৷3৷৷
na rūpamasyēha tathōpalabhyatē
nāntō na cādirna ca saṅpratiṣṭhā.
aśvatthamēnaṅ suvirūḍhamūla-
masaṅgaśastrēṇa dṛḍhēna chittvā ৷৷3৷৷

परंतु इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है, वैसा यहाँ विचारकाल में नहीं पाया जाता है;*(*  इस संसार का जैसा स्वरूप शास्त्रों में वर्णन किया गया है और जैसा देखा-सुना जाता है, वैसा तत्त्वज्ञान होने के उपरान्त नहीं पाया जाता, जिस प्रकार आँख खुलने के उपरान्त स्वप्न का संसार नहीं पाया जाता।)

क्योंकि न तो इसका आदि है (इसकी परम्परा कब से चली आती है, इसका कोई पता नहीं है। ) और न अन्त है (इसकी परम्परा कब तक चलती रहेगी, इसका कोई पता नहीं है।)

तथा न अच्छी प्रकार से स्थिति ही है (इसकी अच्छी प्रकार स्थिति भी नहीं है, यह कहने का यह प्रयोजन है कि वास्तव में यह क्षणभङ्गर और नाशवान् है।);

इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र ( ब्रह्मलोक तक के भोग क्षणिक और नाशवान् हैं, ऐसा समझकर इस संसार के समस्त विषयभोगों में सत्ता, सुख, प्रीति और रमणीयता का न भासना ही “दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र” है।)

द्वारा काटकर (स्थावर, जङ्गमरूप यावन्मात्र संसार के चिन्तन का तथा अनादिकाल से अज्ञान के द्वारा दृढ़ हुई अहंता, ममता और वासनारूप मूलों का त्याग करना ही संसार-वृक्ष का अवान्तर “मूलोंके सहित काटना” है।)। ३।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ৷৷4৷৷
tataḥ padaṅ tatparimārgitavya
yasmingatā na nivartanti bhūyaḥ.
tamēva cādyaṅ puruṣaṅ prapadyē
yataḥ pravṛttiḥ prasṛtā purāṇī ৷৷4৷৷

उसके उपरान्त उस परमपदरूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिये कि जिसमें गये हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते हैं और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसारवृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके। ४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ৷৷5৷৷
nirmānamōhā jitasaṅgadōṣā
adhyātmanityā vinivṛttakāmāḥ.
dvandvairvimuktāḥ sukhaduḥkhasaṅjñai-
rgacchantyamūḍhāḥ padamavyayaṅ tat ৷৷5৷৷

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है तथा आसक्तिरूप दोष जिसने जीत लिया है और जिनकी स्थिति  निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में है  तथा जिनकी कामना अच्छी प्रकार से नष्ट हो गयी है, ऐसे वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन, उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ৷৷6৷৷
na tadbhāsayatē sūryō na śaśāṅkō na pāvakaḥ.
yadgatvā na nivartantē taddhāma paramaṅ mama ৷৷6৷৷

उस स्वयं प्रकाशमय परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं, वही मेरा परमधाम है । ६।

(परमधाम का अर्थ गीता अध्याय ८, श्लोक २१ में देखना चाहिये।)

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ৷৷7৷৷
mamaivāṅśō jīvalōkē jīvabhūtaḥ sanātanaḥ.
manaḥṣaṣṭhānīndriyāṇi prakṛtisthāni karṣati ৷৷7৷৷

हे अर्जुन ! इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है* (* जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश घटों में पृथक्-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतों में एकीरूप स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक्-पृथक की भाँति प्रतीत होता है; इसी से देह में स्थित जीवात्मा को भगवान्ने अपना “सनातन अंश’ कहा है।)

और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मनसहित पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌ ৷৷8৷৷
śarīraṅ yadavāpnōti yaccāpyutkrāmatīśvaraḥ.
gṛhītvaitāni saṅyāti vāyurgandhānivāśayāt ৷৷8৷৷

वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ৷৷9৷৷
śrōtraṅ cakṣuḥ sparśanaṅ ca rasanaṅ ghrāṇamēva ca.
adhiṣṭhāya manaścāyaṅ viṣayānupasēvatē ৷৷9৷৷

उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयोंको सेवन करता है। ९।

bhagwat geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌ ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ৷৷10৷৷
utkrāmantaṅ sthitaṅ vāpi bhuñjānaṅ vā guṇānvitam.
vimūḍhā nānupaśyanti paśyanti jñānacakṣuṣaḥ ৷৷10৷৷

परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए  को अथवा शरीरमें स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रोंवाले ज्ञानीजन ही तत्त्वसे जानते हैं। १०।

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌ ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ৷৷11৷৷
yatantō yōginaścainaṅ paśyantyātmanyavasthitam.
yatantō.pyakṛtātmānō nainaṅ paśyantyacētasaḥ ৷৷11৷৷

क्योंकि योगीजन भी अपने हृदय में स्थित हुए इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्त्वसे जानते हैं और जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं। ११।।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌ ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌ ৷৷12৷৷
yadādityagataṅ tējō jagadbhāsayatē.khilam.
yaccandramasi yaccāgnau tattējō viddhi māmakam ৷৷12৷৷

हे अर्जुन ! जो तेज सूर्य में स्थित हुआ सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है उसको तू मेरा ही तेज जान। १२।

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ৷৷13৷৷
gāmāviśya ca bhūtāni dhārayāmyahamōjasā.
puṣṇāmi cauṣadhīḥ sarvāḥ sōmō bhūtvā rasātmakaḥ ৷৷13৷৷

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूँ और रस स्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ। १३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्‌ ৷৷14৷৷
ahaṅ vaiśvānarō bhūtvā prāṇināṅ dēhamāśritaḥ.
prāṇāpānasamāyuktaḥ pacāmyannaṅ caturvidham ৷৷14৷৷

तथा मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ चार* प्रकार के अन्न (* भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य ऐसे चार प्रकार के अन्न होते हैं। उनमें जो चबाकर खाया जाता है, वह भक्ष्य है, जैसे रोटी आदि; जो निगला जाता है, वह भोज्य है, जैसे दूध आदि तथा जो चाटा जाता है, वह लेह्य है, जैसे चटनी आदि; और जो चूसा जाता है, वह चोष्य है, जैसे ऊख आदि। ) को पचाता हूँ। १४।

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्‌  ৷৷15৷৷
sarvasya cāhaṅ hṛdi sanniviṣṭō
mattaḥ smṛtirjñānamapōhanaṅ ca.
vēdaiśca sarvairahamēva vēdyō
vēdāntakṛdvēdavidēva cāham ৷৷15৷৷

और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (विचार के द्वारा बुद्धि में रहने वाले संशय, विपर्यय आदि दोषोंको हटाने का नाम ‘अपोहन’ है।) होता है

और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूँ ( सर्व वेदों का तात्पर्य परमेश्वर को जनाने का है, इसलिये सब वेदों द्वारा “जाननेके योग्य” एक परमेश्वर ही है।) तथा वेदान्तका कर्ता और वेदों को जाननेवाला भी मैं ही हूँ। १५।

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ৷৷16৷৷
dvāvimau puruṣau lōkē kṣaraścākṣara ēva ca.
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni kūṭasthō.kṣara ucyatē  ৷৷16৷৷

हे अर्जुन! इस संसार में नाशवान् और अविनाशी भी यह दो प्रकार के (गीता अध्याय ७ श्लोक ४-५ में जो अपरा और परा प्रकृति के नाम से कहे गये हैं तथा अध्याय १३ श्लोक १ में जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के नाम से कहे गये हैं, उन्हीं दोनों को यहाँ क्षर और अक्षर के नाम से वर्णन किया है।)  पुरुष हैं। उनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है। १६।

Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ৷৷17৷৷
uttamaḥ puruṣastvanyaḥ paramātmētyudāhṛtaḥ.
yō lōkatrayamāviśya bibhartyavyaya īśvaraḥ ৷৷17৷৷

तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है  जो कि तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ऐसे कहा गया है। १७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ৷৷18৷৷
yasmātkṣaramatītō.hamakṣarādapi cōttamaḥ.
atō.smi lōkē vēdē ca prathitaḥ puruṣōttamaḥ  ৷৷18৷৷

क्योंकि मैं नाशवान्, जडवर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ। १८।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌ ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ৷৷19৷৷
yō māmēvamasammūḍhō jānāti puruṣōttamam.
sa sarvavidbhajati māṅ sarvabhāvēna bhārata ৷৷19৷৷

हे भारत ! इस प्रकार तत्त्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है। १९।

श्लोक 20 का अर्थ

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत  ৷৷20৷৷
iti guhyatamaṅ śāstramidamuktaṅ mayā.nagha.
ētadbuddhvā buddhimānsyātkṛtakṛtyaśca bhārata ৷৷20৷৷

हे निष्पाप अर्जुन ! ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्वसे जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है अर्थात् उसको और कुछ भी करना शेष नहीं रहता। २०।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादमें “पुरुषोत्तमयोग” नामक पंद्रहवाँ अध्याय ॥१५॥

नोट—

इस अध्याय में भगवान ने अपना परम गोपनीय प्रभाव भली प्रकार से कहा है। जो मनुष्य उक्त प्रकार से भगवान को सर्वोत्तम समझ लेता है, फिर उसका मन एक क्षण भी भगवान के चिन्तन का त्याग नहीं कर सकता; क्योंकि जिस वस्तु को मनुष्य उत्तम समझता है, उसी में उसका प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसी का चिन्तन होता है।

अतएव सबका मुख्य कर्तव्य है कि भगवान के परम गोपनीय प्रभाव को भली प्रकार समझने के लिये नाशवान्, क्षणभर संसार की आसक्ति का सर्वथा त्याग करके एवं परमात्मा के शरण होकर भजन और  सत्संग  की ही विशेष चेष्टा करें।

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