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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा सोलहवां 16 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा सोलहवां 16 अध्याय

Table of Contents

श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें “दैवासुरसम्पद्विभागयोग” नामक सोलहवाँ अध्याय ॥१६॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के सोलहवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) श्रीमहादेवजी कहते हैं—पार्वती ! अब मैं गीता के सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बताऊँगा, सुनो। गुजरात में सौराष्ट्र नामक एक नगर है। वहाँ खड्गबाहु नाम के राजा राज्य करते थे, जो दूसरे इन्द्र के समान प्रतापी थे। उनके एक हाथी था, जो मद बहाया करता और सदा मद से उन्मत्त रहता था। उस हाथीका नाम अरिमर्दन था।

एक दिन रात में वह हठात् साँकलों और लोहे के खम्भों को तोड़-फोड़कर बाहर निकला। हाथीवान् उसके दोनों ओर अङ्कश लेकर डरा रहे थे। किंतु क्रोधवश उन सबकी अवहेलना करके उसने अपने रहने के स्थान–हथिसार को ढहा दिया।

उस पर चारों ओर से भालों की मार पड़ रही थी; फिर भी हाथीवान् ही डरे हुए थे, हाथी को तनिक भी भय नहीं होता था। इस कौतूहलपूर्ण घटना को सुनकर राजा स्वयं हाथी को मनाने की कला में निपुण राजकुमारों के साथ वहाँ आये।

आकर उन्होंने उस बलवान् दंतैले हाथी को देखा। नगर के निवासी अन्य काम-धंधों की चिन्ता छोड़ अपने बालकों को भय से बचाते हुए बहुत दूर खड़े होकर उस महाभयंकर गजराज को देखते रहे।

इसी समय कोई ब्राह्मण तालाब से नहाकर उसी मार्ग से लौटे। वे गीता के सोलहवें अध्याय के ‘अभयम्’ आदि कुछ श्लोकों का जप कर रहे थे। पुरवासियों और पीलवानों (महावतों)-ने उन्हें बहुत मना किया, किंतु उन्होंने किसी की न मानी।

उन्हें हाथी से भय नहीं था, इसीलिये वे विचलित नहीं हुए। उधर हाथी अपने फूत्कार से चारों दिशाओं को व्याप्त करता हुआ लोगों को कुचल रहा था। वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मद को हाथ से छूकर कुशलपूर्वक (निर्भयता)-से निकल गये।

इससे वहाँ राजा तथा देखने वाले पुरवासियों के मन में इतना विस्मय हुआ कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। राजा के कमलनेत्र चकित हो उठे थे।

उन्होंने ब्राह्मण को बुला सवारी से उतरकर उन्हें प्रणाम किया और पूछा-‘ब्रह्मन् ! आज आपने यह महान् अलौकिक कार्य किया है; क्योंकि इस काल के समान भयंकर गजराज के सामने से आप सकुशल लौट आये हैं।

प्रभो ! आप किस देवता का पूजन तथा किस मन्त्र का जप करते हैं? बताइये, आपने कौन-सी सिद्धि प्राप्त की है ?

ब्राह्मणने कहा -राजन् ! मैं प्रतिदिन गीता के सोलहवें अध्याय के कुछ श्लोकों का जप किया करता हूँ, इसीसे  ये सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।

श्रीमहादेवजी कहते हैं-तब हाथी का कौतूहल देखने की इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मण देवता को साथ ले अपने महल में आये। वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्णमुद्राओं की दक्षिणा दे उन्होंने ब्राह्मण को संतुष्ट किया और उनसे गीता-मन्त्र की दीक्षा ली bhagwat geeta in hindi।

गीताके सोलहवें अध्याय के ‘अभयम्’ आदि कुछ श्लोकों का अभ्यास कर लेने के बाद उनके मन में हाथी को छोड़कर उसके कौतुक देखने की इच्छा जाग्रत् हुई। फिर तो एक दिन सैनिकों के साथ बाहर निकलकर राजा ने हाथीवानों से उसी मत्त गजराज का बन्धन खुलवाया।

वे निर्भय हो गये। राज्य के सुख—विलास के प्रति आदर का भाव नहीं रहा। वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथी के सामने चले गये। साहसी मनुष्यों में अग्रगण्य राजा खड्गबाहु मन्त्र पर विश्वास करके हाथी के समीप गये और मद की अनवरत धारा बहते हुए उसके गण्डस्थल को हाथ से छूकर सकुशल लौट आये।

काल के मुख से धार्मिक और खल के मुख से साधु पुरुष की भाँति राजा उस गजराज के मुख से बचकर निकल आये। नगर में आने पर उन्होंने अपने राजकुमार को राज्य पर अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं गीता के सोलहवें अध्याय का bhagwat geeta katha पाठ करके परमगति प्राप्त की।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

सोलहवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌॥1॥
abhayaṅ sattvasaṅśuddhiḥ jñānayōgavyavasthitiḥ.
dānaṅ damaśca yajñaśca svādhyāyastapa ārjavam ৷1৷৷

श्रीकृष्ण भगवान् बोले, —हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी सम्पदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक्-पृथक् कहता हूँ, उनमें से सर्वथा भय का अभाव, अन्तःकरण की अच्छी प्रकार से स्वच्छता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति

( परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिये सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम ‘ज्ञानयोगव्यवस्थिति’ समझना चाहिये।) और सात्त्विक दान ( गीता अध्याय १७ श्लोक २० में जिसका विस्तार किया है।)।

तथा इन्द्रियों का दमन, भगवत्पूजा और अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों के पठन-पाठनपूर्वक भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन तथा स्वधर्म-पालन के लिये कष्ट  सहन करना एवं शरीर और इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥2॥
ahiṅsā satyamakrōdhastyāgaḥ śāntirapaiśunam.
dayā bhūtēṣvalōluptvaṅ mārdavaṅ hrīracāpalam ৷৷2৷৷

तथा मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना तथा यथार्थ और प्रिय भाषण* (* अन्त:करण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम “सत्यभाषण” है।),

अपना अपकार करनेवाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग एवं अन्तःकरण की उपरामता अर्थात् चित्त की चञ्चलताका अभाव और किसी की भी निन्दादि न करना तथा सब भूत-प्राणियों में हेतुरहित दया; इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना और कोमलता तथा लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥3॥
tējaḥ kṣamā dhṛtiḥ śaucamadrōhō nātimānitā.
bhavanti sampadaṅ daivīmabhijātasya bhārata ৷৷3৷৷

तथा तेज (श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम “तेज” है कि जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं।),

क्षमा, धैर्य और बाहर-भीतर की शुद्धि एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव, यह सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। ३।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌॥4॥
dambhō darpō.bhimānaśca krōdhaḥ pāruṣyamēva ca.
ajñānaṅ cābhijātasya pārtha sampadamāsurīm ৷৷4৷৷

हे पार्थ ! पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान भी, यह सब आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं। ४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥5॥
daivī sampadvimōkṣāya nibandhāyāsurī matā.
mā śucaḥ sampadaṅ daivīmabhijātō.si pāṇḍava ৷৷5৷৷

उन दोनों प्रकार की सम्पदाओं में दैवी सम्पदा तो मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिये मानी गयी है, इसलिये हे अर्जुन ! तू शोक मत कर; क्योंकि तू दैवी सम्पदा को प्राप्त हुआ है। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥6॥
dvau bhūtasargau lōkē.smin daiva āsura ēva ca.
daivō vistaraśaḥ prōkta āsuraṅ pārtha mē śrṛṇu ৷৷6৷৷

हे अर्जुन ! इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के माने गये हैं। एक तो देवों के जैसा और दूसरा असुरों के जैसा, उनमें देवों का स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया है, इसलिये अब असुरों के स्वभाव को भी विस्तारपूर्वक मेरे से सुन। ६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥7॥
pravṛttiṅ ca nivṛttiṅ ca janā na vidurāsurāḥ.
na śaucaṅ nāpi cācārō na satyaṅ tēṣu vidyatē ৷৷7৷৷

हे अर्जुन ! आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं, इसलिये उनमें न तो बाहर-भीत रकी शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण और न सत्यभाषण ही है। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्‌॥8॥
asatyamapratiṣṭhaṅ tē jagadāhuranīśvaram.
aparasparasambhūtaṅ kimanyatkāmahaitukam ৷৷8৷৷

वे आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य कहते हैं कि जगत् आश्रयरहित और सर्वथा झूठा एवं बिना ईश्वर के अपने-आप स्त्री-पुरुष के संयोगसे उत्पन्न हुआ है; इसलिये केवल भोगों को भोगने के लिये ही है, इसके सिवा और क्या है। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥9॥
ētāṅ dṛṣṭimavaṣṭabhya naṣṭātmānō.lpabuddhayaḥ.
prabhavantyugrakarmāṇaḥ kṣayāya jagatō.hitāḥ ৷৷9৷৷

इस प्रकार इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मन्द है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अपकार करनेवाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत का नाश करने के लिये ही उत्पन्न होते हैं। ९।

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्‍गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥10॥
kāmamāśritya duṣpūraṅ dambhamānamadānvitāḥ.
mōhādgṛhītvāsadgrāhānpravartantē.śucivratāḥ ৷৷10৷৷

वे मनुष्य दम्भ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होनेवाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं। १०।

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥11॥
cintāmaparimēyāṅ ca pralayāntāmupāśritāḥ.
kāmōpabhōgaparamā ētāvaditi niśicatāḥ ৷৷11৷৷

वे मरणपर्यन्त रहनेवाली अनन्त चिन्ताओं को आश्रय किये हुए और विषयभोगों के भोगने में तत्पर हुए एवं इतना मात्र ही आनन्द है, ऐसे मानने वाले हैं।११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌॥12॥
āśāpāśaśatairbaddhāḥ kāmakrōdhaparāyaṇāḥ.
īhantē kāmabhōgārthamanyāyēnārthasañcayān ৷৷12৷৷

इसलिये आशारूप सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए और काम-क्रोध के परायण हुए विषय-भोगोंकी पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं। १२।

Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥13॥
idamadya mayā labdhamimaṅ prāpsyē manōratham.
idamastīdamapi mē bhaviṣyati punardhanam ৷৷13৷৷

उन पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त होऊँगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह होवेगा।१३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥14॥
asau mayā hataḥ śatrurhaniṣyē cāparānapi.
īśvarō.hamahaṅ bhōgī siddhō.haṅ balavānsukhī ৷৷14৷৷

वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मारूँगा तथा मैं ईश्वर और ऐश्वर्यको भोगनेवाला हूँ और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान् और सुखी हूँ।१४।

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥15॥
āḍhyō.bhijanavānasmi kō.nyō.sti sadṛśō mayā.
yakṣyē dāsyāmi mōdiṣya ityajñānavimōhitāḥ ৷৷15৷৷

मैं बड़ा धनवान् और बड़े कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है, मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा, हर्ष को प्राप्त होऊँगा, इस प्रकार के अज्ञान से मोहित हैं। १५। 

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥16॥
anēkacittavibhrāntā mōhajālasamāvṛtāḥ.
prasaktāḥ kāmabhōgēṣu patanti narakē.śucau ৷৷16৷৷

इसलिये वे अनेक प्रका रसे भ्रमित हुए चित्तवाले अज्ञानीजन मोहरूप जाल में फँसे हुए एवं विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त हुए महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं। १६।

Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌॥17॥
ātmasambhāvitāḥ stabdhā dhanamānamadānvitāḥ.
yajantē nāmayajñaistē dambhēnāvidhipūrvakam ৷৷17৷৷

वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त हुए, शास्त्रविधि से रहित केवल नाममात्र के यज्ञोंद्वारा पाखण्ड से यजन करते हैं। १७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥18॥
ahaṅkāraṅ balaṅ darpaṅ kāmaṅ krōdhaṅ ca saṅśritāḥ.
māmātmaparadēhēṣu pradviṣantō.bhyasūyakāḥ ৷৷18৷৷

वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण हुए एवं दूसरों की निन्दा करनेवाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामीसे द्वेष करनेवाले हैं। १८।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥19॥
tānahaṅ dviṣataḥ krūrānsaṅsārēṣu narādhamān.
kṣipāmyajasramaśubhānāsurīṣvēva yōniṣu ৷৷19৷৷

ऐसे उन द्वेष करनेवाले पापाचारी नराधमों को मैं संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात्  शूकर, कूकर आदि नीच योनियों में ही उत्पन्न करता हूँ। १९।

Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥20॥
asurīṅ yōnimāpannā mūḍhā janmani janmani.
māmaprāpyaiva kauntēya tatō yāntyadhamāṅ gatim ৷৷20৷৷

इसलिये हे अर्जुन ! वे मूढ़ पुरुष जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए मेरे को न प्राप्त होकर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं। २०।

श्लोक 21 का अर्थ

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥21॥
trividhaṅ narakasyēdaṅ dvāraṅ nāśanamātmanaḥ.
kāmaḥ krōdhastathā lōbhastasmādētattrayaṅ tyajēt ৷৷21৷৷

हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकार के नरक के द्वार (सब अनर्थो के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को “नरक का द्वार’ कहा है।) आत्मा का नाश करनेवाले हैं अर्थात् अधोगति में ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनों को त्याग देना चाहिये। २१।

श्लोक 22 का अर्थ

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌॥22॥
ētairvimuktaḥ kauntēya tamōdvāraistribhirnaraḥ.
ācaratyātmanaḥ śrēyastatō yāti parāṅ gatim ৷৷22৷৷

क्योंकि हे अर्जुन ! इन तीनों नरक के द्वारोंसे मुक्त हुआ अर्थात् काम, क्रोध और लोभादि विकारों से छूटा हुआ पुरुष अपने कल्याण का आचरण ( अपने उद्धारके लिये भगवत्-आज्ञानुसार बर्तना ही “अपने कल्याण का आचरण करना” है।) करता है। इससे वह परम गति को जाता है अर्थात् मेरे को प्राप्त होता है। २२।

श्लोक 23 का अर्थ

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥23॥
yaḥ śāstravidhimutsṛjya vartatē kāmakārataḥ.
na sa siddhimavāpnōti na sukhaṅ na parāṅ gatim ৷৷23৷৷

जो पुरुष शास्त्र की विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से बर्तता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है और न परमगति को तथा न सुख को ही प्राप्त होता है। २३।

श्लोक 24 का अर्थ

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥24॥
tasmācchāstraṅ pramāṇaṅ tē kāryākāryavyavasthitau.
jñātvā śāstravidhānōktaṅ karma kartumihārhasi ৷৷24৷৷

इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्म को ही करने के लिये योग्य है। २४।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥16॥

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें “दैवासुरसम्पद्विभागयोग” नामक सोलहवाँ अध्याय ॥१६॥

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