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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा सत्रहवां 17 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा सत्रहवां 17 अध्याय

Table of Contents

श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादमें “श्रद्धात्रयविभागयोग” नामक सत्रहवाँ अध्याय ॥ १७॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के सत्रहवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) श्रीमहादेवजी कहते हैं– —पार्वती ! सोलहवें अध्याय का माहात्म्य बतलाया गया। अब सत्रहवें अध्याय की अनन्त महिमा श्रवण करो। राजा खड्गबाहु के पुत्र का दुःशासन नामक एक नौकर था। वह बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था।

एक बार वह माण्डलीक राजकुमारों के साथ बहुत धन की बाजी लगाकर हाथी पर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जाने पर लोगों के मना करने पर भी वह मूढ़ हाथी के प्रति जोर-जोर से कठोर शब्द करने लगा।

उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोध से अंधा हो गया और दुःशासन पैर फिसल जाने के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ा। दुःशासन को गिरकर कुछ-कुछ उच्छ्वास लेते देख काल के समान निरंकुश हाथी ने क्रोध में भरकर उसे ऊपर फेंक दिया। ऊपर से गिरते ही उसके प्राण निकल गये।

इस प्रकार कालवश मृत्यु को प्राप्त होने के बाद उसे हाथी की योनि मिली और सिंहलद्वीप के महाराज के यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया। सिंहलद्वीप के राजा की महाराज खड्गबाहु से बड़ी मैत्री थी, अतः उन्होंने जल के मार्ग से उस हाथी को मित्र की प्रसन्नता के लिये भेज दिया।

एक दिन राजा ने श्लोक की समस्या पूर्ति से संतुष्ट होकर किसी कवि को पुरस्कार रूप में वह हाथी दे दिया और उन्होंने सौ स्वर्ण-मुद्राएँ लेकर उसे मालव नरेश के हाथ बेच दिया। कुछ काल व्यतीत होने पर वह हाथी यत्नपूर्वक पालित होने पर भी असाध्य ज्वर से ग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया।

हाथीवानों ने जब उसे ऐसी शोचनीय-अवस्था में देखा तो राजाके पास जाकर हाथी के हित के लिये शीघ्र ही सारा हाल कह सुनाया। ‘महाराज ! आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है। उसका खाना, पीना और सोना सब छूट गया है। हमारी समझ में नहीं आता इसका क्या कारण है। 

महाथीवानों का बताया हुआ समाचार सुनकर राजा ने हाथी के रोग  को पहचाननेवाले चिकित्सा कुशल मन्त्रियों के साथ उस स्थान पर पदार्पण किया, जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त होकर पड़ा था।

राजा को देखते ही उसने ज्वरजनित वेदना को भूलकर संसार को आश्चर्य में डालने वाली वाणी में कहा-‘सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, राजनीति के समुद्र, शत्रु-समुदाय को परास्त करने वाले तथा भगवान् विष्णु के चरणों में अनुराग रखनेवाले महाराज ! इन औषधों से क्या लेना है ?

वैद्यों से भी कुछ लाभ होनेवाला नहीं है, दान और जप से भी क्या सिद्ध होगा ? आप कृपा करके गीता के सत्रहवें अध्याय bhagwat geeta katha का पाठ करने वाले किसी ब्राह्मणको बुलवाइये।’

हाथी के कथनानुसार राजा ने सब कुछ वैसा ही किया। तदनन्तर गीता-पाठ करनेवाले ब्राह्मण ने जब उत्तम जल को अभिमन्त्रित करके उसके ऊपर डाला, तब दुःशासन गजयोनि का परित्याग करके मुक्त हो गया।

राजाने दुःशासन को दिव्य विमानपर आरूढ़ एवं इन्द्र के समान तेजस्वी देखकर पूछा-‘तुम्हारी पूर्व-जन्म में क्या जाति थी? क्या स्वरूप था ? कैसे आचरण थे? और किस कर्म से तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी बातें मुझे बताओ।’

राजा के इस प्रकार पूछने पर संकट से छूटे हुए दुःशासन ने विमान पर बैठे-ही-बैठे स्थिरता के साथ अपना पूर्वजन्म का उपर्युक्त समाचार यथावत् कह सुनाया। तत्पश्चात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश भी गीता के सत्रहवें अध्याय bhagwat geeta in hindi का पाठ करने लगे। इससे थोड़े ही समय में उनकी मुक्ति हो गयी।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

सत्रहवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ৷৷1৷৷
yē śāstravidhimutsṛjya yajantē śraddhayā.nvitāḥ.
tēṣāṅ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa sattvamāhō rajastamaḥ ৷৷1৷৷

भगवान के वचन सुनकर अर्जुन बोले, हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर केवल श्रद्धा से युक्त हुए देवादिकों का पूजन करते हैं उनकी स्थिति फिर कौन-सी है ? क्या सात्त्विकी है ? अथवा राजसी किंवा तामसी है ?। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ৷৷2৷৷
trividhā bhavati śraddhā dēhināṅ sā svabhāvajā.
sāttvikī rājasī caiva tāmasī cēti tāṅ śrṛṇu ৷৷2৷৷

इस प्रकार अर्जुनके पूछने पर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! मनुष्यों की वह बिना शास्त्रीय संस्कारों के केवल स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा* (* अनन्त जन्मों में किये हुए  कर्मो के संचित संस्कारों से उत्पन्न हुई श्रद्धा, “स्वभावजा श्रद्धा” कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है, उसको तू मेरे से सुन। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ৷৷3৷৷
sattvānurūpā sarvasya śraddhā bhavati bhārata.
śraddhāmayō.yaṅ puruṣō yō yacchraddhaḥ sa ēva saḥ ৷৷3৷৷

हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरूप है। ३।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ৷৷4৷৷
yajantē sāttvikā dēvānyakṣarakṣāṅsi rājasāḥ.
prētānbhūtagaṇāṅścānyē yajantē tāmasā janāḥ ৷৷4৷৷

उनमें सात्त्विक पुरुष तो देवों को पूजते हैं और राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं। ४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ৷৷5৷৷
aśāstravihitaṅ ghōraṅ tapyantē yē tapō janāḥ.
dambhāhaṅkārasaṅyuktāḥ kāmarāgabalānvitāḥ ৷৷5৷৷

हे अर्जुन ! जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मन:कल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌ ৷৷6৷৷
karṣayantaḥ śarīrasthaṅ bhūtagrāmamacētasaḥ.
māṅ caivāntaḥśarīrasthaṅ tānviddhyāsuraniścayān ৷৷6৷৷

तथा जो शरीररूप से स्थित भूतसमुदाय को अर्थात् शरीर, मन और इन्द्रियादिकों के रूप में परिणत हुए आकाशादि पाँच भूतों को और अन्त:करण में स्थित मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करनेवाले हैं ( शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना भूतसमुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को “कृश करना” है।), उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाववाले जान। ६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ৷৷7॥
āhārastvapi sarvasya trividhō bhavati priyaḥ.
yajñastapastathā dānaṅ tēṣāṅ bhēdamimaṅ śrṛṇu ৷৷7৷৷

हे अर्जुन ! जैसे श्रद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे ही भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस न्यारे-न्यारे भेद को तू मेरे से सुन। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ৷৷8৷৷
āyuḥsattvabalārōgyasukhaprītivivardhanāḥ.
rasyāḥ snigdhāḥ sthirā hṛdyā āhārāḥ sāttvikapriyāḥ ৷৷8৷৷

आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले*(जिस भोजन का सार शरीर में बहुत कालतक रहता है, उसको “स्थिर रहनेवाला” कहते हैं।) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ तो सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ৷৷9৷৷
kaṭvamlalavaṇātyuṣṇatīkṣṇarūkṣavidāhinaḥ.
āhārā rājasasyēṣṭā duḥkhaśōkāmayapradāḥ ৷৷9৷৷

कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त और अति गरम तथा तीक्ष्ण, रूखे और दाहकारक एवं दुःख-चिन्ता और रोगों को उत्पन्न करनेवाले आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। ९।

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌ ৷৷10৷৷
yātayāmaṅ gatarasaṅ pūti paryuṣitaṅ ca yat.
ucchiṣṭamapi cāmēdhyaṅ bhōjanaṅ tāmasapriyam ৷৷10৷৷

तथा जो भोजन अधपका, रसरहित और दुर्गन्धयुक्त एवं बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है। १०।

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ৷৷11৷৷
aphalākāṅkṣibhiryajñō vidhidṛṣṭō ya ijyatē.
yaṣṭavyamēvēti manaḥ samādhāya sa sāttvikaḥ ৷৷11৷৷

हे अर्जुन ! जो यज्ञ शास्त्रविधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है ऐसे मन को समाधान करके फल को न चाहनेवाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ तो सात्त्विक है। ११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌ ৷৷12৷৷
abhisaṅdhāya tu phalaṅ dambhārthamapi caiva yat.
ijyatē bharataśrēṣṭha taṅ yajñaṅ viddhi rājasam ৷৷12৷৷

और हे अर्जुन ! जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के ही लिये अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान। १२।

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ৷৷13৷৷
vidhihīnamasṛṣṭānnaṅ mantrahīnamadakṣiṇam.
śraddhāvirahitaṅ yajñaṅ tāmasaṅ paricakṣatē ৷৷13৷৷

तथा शास्त्रविधि से हीन और अन्नदान से रहित एवं बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा  के किये हुए यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं। १३।।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ৷৷14৷৷
dēvadvijaguruprājñapūjanaṅ śaucamārjavam.
brahmacaryamahiṅsā ca śārīraṅ tapa ucyatē ৷৷14৷৷

हे अर्जुन! देवता, ब्राह्मण, गुरु* (* यहाँ गुरु शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों उन सबको समझना चाहिये।)और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरी रसम्बन्धी तप कहा जाता है। १४।

Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ৷৷15৷৷
anudvēgakaraṅ vākyaṅ satyaṅ priyahitaṅ ca yat.
svādhyāyābhyasanaṅ caiva vāṅmayaṅ tapa ucyatē ৷৷15৷৷

तथा जो उद्वेग को न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है’ (मनऔर इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम “यथार्थ भाषण” है।) और जो वेदशास्त्रों के पढ़ने का एवं परमेश्वर के नाम जपने का अभ्यास है, वह निःसन्देह वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। १५।

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ৷৷16৷৷
manaḥprasādaḥ saumyatvaṅ maunamātmavinigrahaḥ.
bhāvasaṅśuddhirityētattapō mānasamucyatē ৷৷16৷৷

तथा मनकी प्रसन्नता और शान्तभाव एवं भगवत्-चिन्तन करने का स्वभाव, मनका निग्रह और अन्त:करण की पवित्रता ऐसे यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। १६।

Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ৷৷17৷৷
śraddhayā parayā taptaṅ tapastatitravidhaṅ naraiḥ.
aphalākāṅkṣibhiryuktaiḥ sāttvikaṅ paricakṣatē ৷৷17৷৷

परंतु हे अर्जुन ! फल को न चाहनेवाले निष्कामी योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं। १७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌ ৷৷18৷৷
satkāramānapūjārthaṅ tapō dambhēna caiva yat.
kriyatē tadiha prōktaṅ rājasaṅ calamadhruvam ৷৷18৷৷

और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये अथवा केवल पाखण्ड से ही किया जाता है, वह अनिश्चित (“अनिश्चित फलवाला” उसको कहते है कि जिसका फल होने न होने में   शन्का हो।)और क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है। १८।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ৷৷19৷৷
mūḍhagrāhēṇātmanō yatpīḍayā kriyatē tapaḥ.
parasyōtsādanārthaṅ vā tattāmasamudāhṛtam ৷৷19৷৷

जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है। १९।

Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ৷৷20৷৷
dātavyamiti yaddānaṅ dīyatē.nupakāriṇē.
dēśē kālē ca pātrē ca taddānaṅ sāttvikaṅ smṛtam ৷৷20৷৷

और हे अर्जुन ! दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल (जिस देश, काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश, काल उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिये योग्य समझा जाता है।)

और पात्र को  (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न-वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिये योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान् ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थो द्वारा सेवा करनेके लिये योग्य पात्र समझे जाते हैं।)

प्राप्त होने पर प्रत्युपकार  न करनेवाले के लिये दिया जाता है, वह दान तो सात्त्विक कहा गया है। २०।

Bhagwat Geeta श्लोक 21 का अर्थ

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌ ৷৷21৷৷
yattu pratyupakārārthaṅ phalamuddiśya vā punaḥ.
dīyatē ca parikliṣṭaṅ taddānaṅ rājasaṅ smṛtam ৷৷21৷৷

और जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे, आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अर्थात् बदले में अपना सांसारिक कार्य सिद्ध करने की आशा  से अथवा फल को उद्देश्य रखकर (अर्थात् मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिये अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिये।) फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है। २१।

Bhagwat Geeta श्लोक 22 का अर्थ

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ৷৷22৷৷
adēśakālē yaddānamapātrēbhyaśca dīyatē.
asatkṛtamavajñātaṅ tattāmasamudāhṛtam ৷৷22৷৷

और जो दान बिना सत्कार किये अथवा तिरस्कारपूर्वक,  अयोग्य देश-कालमें, कुपात्रों के लिये अर्थात् मद्य, मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं के खानेवालों एवं चोरी, जारी आदि नीच कर्म करनेवालों के लिये दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है। २२।

श्लोक 23 का अर्थ

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ৷৷23৷৷
tatsaditi nirdēśō brahmaṇastrividhaḥ smṛtaḥ.
brāhmaṇāstēna vēdāśca yajñāśca vihitāḥ purā ৷৷23৷৷

हे अर्जुन ! ॐ, तत्, सत्—ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गये हैं। २३

श्लोक 24 का अर्थ

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌ ৷৷24৷৷
tasmādōmityudāhṛtya yajñadānatapaḥkriyāḥ.
pravartantē vidhānōktāḥ satataṅ brahmavādinām ৷৷24৷৷

इसलिये वेद को कथन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘‘ ऐसे इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। २४।

श्लोक 25 का अर्थ

तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ৷৷25৷৷
tadityanabhisandhāya phalaṅ yajñatapaḥkriyāḥ.
dānakriyāśca vividhāḥ kriyantē mōkṣakāṅkṣi ৷৷25৷৷

तत् अर्थात् तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, ऐसे इस भाव से फल को न चाहकर, नाना प्रकार की यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छावाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। २५।

श्लोक 26 का अर्थ

सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ৷৷26৷৷
sadbhāvē sādhubhāvē ca sadityētatprayujyatē.
praśastē karmaṇi tathā sacchabdaḥ pārtha yujyatē ৷৷26৷৷

सत् ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी सत्-शब्द  प्रयोग किया जाता है। २६।

श्लोक 27 का अर्थ

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ৷৷27৷৷
yajñē tapasi dānē ca sthitiḥ saditi cōcyatē.
karma caiva tadarthīyaṅ sadityēvābhidhīyatē ৷৷27৷৷

तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसे कहा जाता है। २७।

श्लोक 28 का अर्थ

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ৷৷28৷৷
aśraddhayā hutaṅ dattaṅ tapastaptaṅ kṛtaṅ ca yat.
asadityucyatē pārtha na ca tatprētya nō iha ৷৷28৷৷

हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के होमा हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह समस्त असत् ऐसे कहा जाता है, इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरने के पीछे ही लाभदायक है,

इसलिये मनुष्य को चाहिये कि सच्चिदानन्दघन परमात्मा के नाम का निरन्तर चिन्तन करता हुआ निष्कामभाव से, केवल परमेश्वर के लिये, शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्मों का परम श्रद्धा और उत्साह के सहित आचरण करे। २८।।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय : ৷৷17॥

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादमें “श्रद्धात्रयविभागयोग” नामक सत्रहवाँ अध्याय ॥ १७॥

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