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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा नवां 09 अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा नवां 09 अध्याय

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श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवाद में “राजविद्याराजगुह्ययोग” नामक नवा अध्याय॥९॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के नवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) महादेवजी कहते हैं– पार्वती ! अब मैं आदरपूर्वक नवम अध्याय के माहात्म्य का वर्णन करूँगा, तुम स्थिर होकर सुनो। नर्मदा के तट पर माहिष्मती नाम की एक नगरी है। वहाँ माधव नाम के एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेद-वेदाङ्गोंके तत्त्वज्ञ और समय-समय पर आनेवाले अतिथियों के प्रेमी थे।

उन्होंने विद्या के द्वारा बहुत धन कमाकर एक महान् यज्ञ का अनशन आरम्भ किया। उस यज्ञ में बलि देनेके लिये एक बकरा मँगाया गया।

जब उसके शरीर की पूजा हो गयी, तब सबको आश्चर्य में डालते हुए उस बकरे ने हँसकर उच्च स्वर से कहा— ‘ब्रह्मन इन बहुत‌‌- से यज्ञों द्वारा क्या लाभ है। इनका फल तो नष्ट हो जानेवाला है तथा ये जन्म, जरा और मृत्यु के भी कारण हैं।

यह सब करने पर भी मेरी जो वर्तमान दशा है, इसे देख लो।’ बकरे के इस अत्यन्त कौतूहलजनक वचन को सुनकर यज्ञमण्डप में रहने वाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए। तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड अपलक नेत्रों से देखते हुए बकरे को प्रणाम करके श्रद्धा और आदर के साथ पूछने लगे।

ब्राह्मण बोले— आप किस जाति के थे ? आपका स्वभाव और आचरण कैसा था ? तथा किस कर्म से आपको बकरे की योनि प्राप्त हुई ? यह सब मुझे बताइये।

बकरा बोला ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्म में ब्राह्मणों के अत्यन्त निर्मल कुल में उत्पन्न हुआ था। समस्त यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाला और वेद-विद्या में प्रवीण था। एक दिन मेरी स्त्री ने भगवती दुर्गा की भक्ति से विनम्र होकर अपने बालक के रोग  की शान्तिके लिये बलि देने के निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा।

तत्पश्चात् जब चण्डिका के मन्दिर  में वह बकरा मारा जाने लगा, उस समय उसकी माता ने मुझे शाप दिया-‘ओ ब्राह्मणों में नीच, पापी ! तू मेरे बच्चे का वध करना चाहता है; इसलिये तू भी बकरे की योनिमें जन्म लेगा।’

बकरे ने कहा द्विजश्रेष्ठ ! तब कालवश मृत्यु को प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ। यद्यपि मैं पशु-योनि में पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्वजन्मों का स्मरण बना हुआ है। ब्रह्मन् ! यदि आपको सुनने की उत्कण्ठा हो, तो मैं एक और भी आश्चर्य की बात बताता हूँ।

कुरुक्षेत्र नाम का एक नगर है, जो मोक्ष प्रदान करने वाला है। वहाँ चन्द्रशर्मा नामक एक सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे। एक समय जब कि सूर्यग्रहण लगा था, राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ कालपुरुष का दान करने की तैयारी की।

उन्होंने वेद-वेदाङ्गों के पारगामी एक विद्वान् ब्राह्मण को बुलवाया और पुरोहित के साथ वे तीर्थ के पावन जल से स्नान करने को चले। तीर्थ के पास पहुँचकर राजाने  स्नान किया और दो वस्त्र धारण किये।

फिर पवित्र एवं प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया और बगल में  खड़े हुए पुरोहित का हाथ पकड़कर तत्कालोचित मनुष्यों से घिरे हुए अपने स्थान  पर लौट आये। आनेपर राजा ने यथोचित विधि से भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को कालपुरुष का दान किया।

तब कालपुरुष का हृदय चीरकर उसमें से एक पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ। फिर थोड़ी देर के बाद निन्दा भी चाण्डाली का रूप धारण करके कालपुरुष के शरीर से निकली और ब्राह्मण के पास आ गयी।

इस प्रकार चाण्डालों की वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली और ब्राह्मण के शरीर में हठात् प्रवेश करने लगी। ब्राह्मण मन-ही-मन गीता के नवम अध्याय bhagwat geeta in hindi का जप करते थे और राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे।

ब्राह्मण के अन्तःकरण में भगवान् गोविन्द शयन करते थे। वे उन्हीं का ध्यान करने लगे। ब्राह्मण ने जब गीता के नवम अध्याय का जप करते हुए  अपने आश्रयभूत भगवान  का ध्यान किया, उस समय गीता के अक्षरों से प्रकट हुए विष्णु दूतों द्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले। उनका उद्योग निष्फल हो गया।

इस प्रकार इस घटना को प्रत्यक्ष देखकर राजा के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे। उन्होंने ब्राह्मणसे पूछा-—’विप्रवर ! इस महाभयंकर आपत्ति को आपने कैसे पार किया ? आप किस मन्त्र का जप तथा किस देवता का स्मरण कर रहे थे ? वह पुरुष तथा वह स्त्री कौन थी ? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए ? फिर वे शान्त कैसे हो गये ? यह सब मुझे बतलाइये।’ ।

ब्राह्मण ने कहा-—राजन् ! चाण्डाल का रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दा की साक्षात् मूर्ति थी। मैं इन दोनों को ऐसा ही समझता हूँ। उस समय मैं गीता के नवें अध्याय के मन्त्रोंकी माला जपता था। उसी का माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया।

महीपते ! मैं नित्य ही गीता के नवम अध्याय का जप करता हूँ उसी के प्रभाव से प्रतिग्रहजनित आपत्तियों के पार हो सका हूँ। यह सुनकर राजा ने उसी ब्राह्मण से गीता के नवम अध्याय bhagwat geeta katha का अभ्यास किया, फिर वे दोनों ही परमशान्ति (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।

[यह कथा सुनकर ब्राह्मण ने बकरे को बन्धन से मुक्त कर दिया और गीता के नवें अध्याय के अभ्यास से परमगति को प्राप्त किया।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

नवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥1॥
śrī bhagavānuvāca
idaṅ tu tē guhyatamaṅ pravakṣyāmyanasūyavē.
jñānaṅ vijñānasahitaṅ yajjñātvā mōkṣyasē.śubhāt ৷৷1৷৷

 श्रीकृष्ण भगवान् बोले, —हे अर्जुन ! तुझ दोष दृष्टि रहित भक्त के लिये इस परम गोपनीय ज्ञान को रहस्य के सहित कहूँगा कि जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जायगा। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌ ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌ ॥2॥
rājavidyā rājaguhyaṅ pavitramidamuttamam.
pratyakṣāvagamaṅ dharmyaṅ susukhaṅ kartumavyayam ৷৷2৷৷

यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा तथा सब गोपनीयों  का भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला और धर्मयुक्त है, साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥3॥
aśraddadhānāḥ puruṣā dharmasyāsya parantapa.
aprāpya māṅ nivartantē mṛtyusaṅsāravartmani ৷৷3৷৷

हे परंतप ! इस तत्त्वज्ञानरूप धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मेरे को न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते हैं। ३।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥4॥
mayā tatamidaṅ sarvaṅ jagadavyaktamūrtinā.
matsthāni sarvabhūtāni na cāhaṅ tēṣvavasthitaḥ ৷৷4৷৷

हे अर्जुन ! मझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह सब जगत् जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं इसलिये वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। ४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥5॥
na ca matsthāni bhūtāni paśya mē yōgamaiśvaram.
bhūtabhṛnna ca bhūtasthō mamātmā bhūtabhāvanaḥ ৷৷5৷৷

और वे सब भूत मेरे में स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी योगमाया और प्रभाव  को देख कि भूतों का धारण-पोषण करनेवाला और भूतों को उत्पन्न करनेवाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतोंमें स्थित नहीं है। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥6॥
yathā৷৷kāśasthitō nityaṅ vāyuḥ sarvatragō mahān.
tathā sarvāṇi bhūtāni matsthānītyupadhāraya ৷৷6৷৷

क्योंकि जैसे आकाश से उत्पन्न हुआ, सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा ही आकाश में स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पत्ति वाले होने से सम्पूर्ण भूत मेरे में स्थित हैं, ऐसे जान।६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥7॥
sarvabhūtāni kauntēya prakṛtiṅ yānti māmikām.
kalpakṣayē punastāni kalpādau visṛjāmyaham ৷৷7৷৷

हे अर्जुन ! कल्पके अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लय होते हैं और कल्पके आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌ ॥8॥
prakṛtiṅ svāmavaṣṭabhya visṛjāmi punaḥ punaḥ.
bhūtagrāmamimaṅ kṛtsnamavaśaṅ prakṛtērvaśāt ৷৷8৷৷

कैसे कि अपनी त्रिगुणमयी माया को अङ्गीकार करके, स्वभाव के वश  से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदाय को बारम्बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09 का अर्थ

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥9॥
na ca māṅ tāni karmāṇi nibadhnanti dhanañjaya.
udāsīnavadāsīnamasaktaṅ tēṣu karmasu ৷৷9৷৷

हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीनके सदृश स्थित हुए मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते हैं। ९।

Bhagwat Geeta श्लोक 10 का अर्थ

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥10॥
mayā.dhyakṣēṇa prakṛtiḥ sūyatē sacarācaram.
hētunā.nēna kauntēya jagadviparivartatē ৷৷10৷৷

हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाशसे यह मेरी माया चराचरसहित सर्व जगत को रचती है और इस ऊपर कहे हुए हेतु से ही यह संसार आवागमन रूप चक्र में घूमता है। १०।

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥11॥
avajānanti māṅ mūḍhā mānuṣīṅ tanumāśritam.
paraṅ bhāvamajānantō mama bhūtamahēśvaram ৷৷11৷৷

ऐसा होने पर भी सम्पूर्ण भूतो के महान् ईश्वररूप मेरे परम भावको (* गीता अध्याय ७ श्लोक २४ में देखना चाहिये।) न जानने वाले मूढलोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार  के लिये मनुष्य रूप में विचरते हुए को साधारण मनुष्य मानते हैं। ११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12 का अर्थ

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥12॥
mōghāśā mōghakarmāṇō mōghajñānā vicētasaḥ.
rākṣasīmāsurīṅ caiva prakṛtiṅ mōhinīṅ śritāḥ ৷৷12৷৷

जो कि वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञानवाले अज्ञानीजन राक्षसों के और असुरोंके-जैसे मोहित करने वाले तामसी स्वभाव को ( जिसको आसुरी सम्पदा के नामसे विस्तारपूर्वक भगवान्ने गीता अध्याय १६ श्लोक ४ तथा श्लोक ७ से २१ तक कहा है)   ही धारण किये हुए हैं। १२।

Bhagwat Geeta श्लोक 13 का अर्थ

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌ ॥13॥
mahātmānastu māṅ pārtha daivīṅ prakṛtimāśritāḥ.
bhajantyananyamanasō jñātvā bhūtādimavyayam ৷৷13৷৷

परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के ( इसका विस्तारपूर्वक वर्णन गीता अध्याय १६ श्लोक १,२,३ में देखना चाहिये।) आश्रित हुए जो महात्माजन हैं, वे तो मेरे को सब भूतों का  सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त हुए निरन्तर भजते हैं। १३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥14॥
satataṅ kīrtayantō māṅ yatantaśca dṛḍhavratāḥ.
namasyantaśca māṅ bhaktyā nityayuktā upāsatē ৷৷14৷৷

वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करते हुए और मेरे को बारम्बार प्रणाम करते हुए, सदा मेरे ध्यान में युक्त हुए अनन्य भक्ति से मुझे उपासते हैं। १४।

bhagwat geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥15॥
jñānayajñēna cāpyanyē yajantō māmupāsatē.
ēkatvēna pṛthaktvēna bahudhā viśvatōmukham ৷৷15৷৷

उनमें कोई तो मुझ विराट्स्वरूप परमात्मा को ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए एकत्वभाव से अर्थात् जो कुछ है, सब वासुदेव ही है, इस भाव से उपासते हैं और दूसरे पृथक्त्व भाव से अर्थात् स्वामी-सेवक भाव से और कोई-कोई बहुत प्रकार से भी उपासते हैं। १५ ।

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥16॥
ahaṅ kraturahaṅ yajñaḥ svadhā.hamahamauṣadham.
maṅtrō.hamahamēvājyamahamagnirahaṅ hutam ৷৷16৷৷

क्योंकि क्रतु अर्थात् श्रौतकर्म मैं हूँ, यज्ञ अर्थात् पञ्चमहायज्ञादिक स्मार्तकर्म मैं हूँ, स्वधा अर्थात् पितरों के निमित्त दिया जानेवाला अन्न मैं हूँ, ओषधि अर्थात् सब वनस्पतियाँ मैं हूँ, एवं मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ। १६।

Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥17॥
pitā.hamasya jagatō mātā dhātā pitāmahaḥ.
vēdyaṅ pavitramōṅkāra ṛk sāma yajurēva ca ৷৷17৷৷

हे अर्जुन ! मैं ही इस सम्पूर्ण जगत  का धाता अर्थात् धारण-पोषण करनेवाला एवं कर्मों के फल को देनेवाला तथा पिता, माता और पितामह हूँ और जानने योग्य (‘गीता अध्याय १३ श्लोक १२ से १७ तकमें देखना चाहिये।) पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। १७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌ ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌॥18॥
gatirbhartā prabhuḥ sākṣī nivāsaḥ śaraṇaṅ suhṛt.
prabhavaḥ pralayaḥ sthānaṅ nidhānaṅ bījamavyayam ৷৷18৷৷

हे अर्जुन ! प्राप्त होने योग्य तथा भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखनेवाला, सबका वासस्थान और शरण लेने योग्य तथा प्रति-उपकार न चाहकर हित करनेवाला और उत्पत्ति, प्रलयरूप तथा सबका आधार, निधान ( प्रलयकाल में सम्पूर्ण भूत सूक्ष्म रूपसे जिसमें लय होते हैं उसका नाम “निधान” है।)और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ। १८।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्‌णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥19॥
tapāmyahamahaṅ varṣaṅ nigṛhṇāmyutsṛjāmi ca.
amṛtaṅ caiva mṛtyuśca sadasaccāhamarjuna ৷৷19৷৷

मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूँ तथा वर्षा को आकर्षण करता हूँ और वर्षाता हूँ और हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु एवं सत् और असत् भी सब कुछ मैं ही हूँ। १९।

Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ॥20॥
traividyā māṅ sōmapāḥ pūtapāpā
yajñairiṣṭvā svargatiṅ prārthayantē.
tē puṇyamāsādya surēndralōka-
maśnanti divyāndivi dēvabhōgān ৷৷20৷৷

परंतु जो तीनों वेदों में  विधान किये हुए सकाम कर्मो को करनेवाले और सोमरस को पीनेवाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष*(* यहाँ स्वर्गप्राप्ति के प्रतिबन्धक देव-ऋणरूप पाप से पवित्र होना समझना चहिये) मेरे को यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति को चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप इन्द्रलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। २०।

श्लोक 21 का अर्थ

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥21॥
tē taṅ bhuktvā svargalōkaṅ viśālaṅ
kṣīṇē puṇyē martyalōkaṅ viśanti.
ēva trayīdharmamanuprapannā
gatāgataṅ kāmakāmā labhantē ৷৷21৷৷

वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामनावाले पुरुष बारम्बार जाने—आने को प्राप्त होते हैं अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेसे मृत्युलोक में आते हैं। २१।

श्लोक 22 का अर्थ

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ॥22॥
ananyāśicantayantō māṅ yē janāḥ paryupāsatē.
tēṣāṅ nityābhiyuktānāṅ yōgakṣēmaṅ vahāmyaham ৷৷22৷৷

जो अनन्य भावसे मेरे में स्थित  हुए भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं उन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थितिवाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत के स्वरूप की प्राप्ति का नाम “योग” है और भगवत्-प्राप्ति के निमित्त किये हुए साधन की रक्षा का नाम “क्षेम’ है।)। मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ। २२।

श्लोक 23 का अर्थ

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ॥23॥
yē.pyanyadēvatā bhaktā yajantē śraddhayā.nvitāḥ.
tē.pi māmēva kauntēya yajantyavidhipūrvakam ৷৷23৷৷

हे अर्जुन ! यद्यपि श्रद्धा से युक्त हुए जो सकामी भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मेरे को ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजना अविधिपूर्वक है अर्थात् अज्ञानपूर्वक है। २३।

श्लोक 24 का अर्थ

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥24॥
ahaṅ hi sarvayajñānāṅ bhōktā ca prabhurēva ca.
na tu māmabhijānanti tattvēnātaścyavanti tē ৷৷24৷৷

क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ अधियज्ञस्वरूप परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते हैं, इसी से गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं। २४।

श्लोक 25 का अर्थ

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌ ॥25॥
yānti dēvavratā dēvān pitṛnyānti pitṛvratāḥ.
bhūtāni yānti bhūtējyā yānti madyājinō.pi mām ৷৷25৷৷

कारण, यह नियम है कि देवताओं को पूजनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते  हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं, इसीलिये मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता(* गीता अध्याय ८ श्लोक १६ में देखना चाहिये।)। २५ ।

श्लोक 26 का अर्थ

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥26॥
patraṅ puṣpaṅ phalaṅ tōyaṅ yō mē bhaktyā prayacchati.
tadahaṅ bhaktyupahṛtamaśnāmi prayatātmanaḥ ৷৷26৷৷

हे अर्जुन ! मेरे पूजन में यह सुगमता भी है कि पत्र, पुष्प, फल, जल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेम से अर्पण करता है, उस शुद्ध-बुद्धि, निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादिक मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ। २६।

श्लोक 27 का अर्थ

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌ ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌ ॥27॥
yatkarōṣi yadaśnāsi yajjuhōṣi dadāsi yat.
yattapasyasi kauntēya tatkuruṣva madarpaṇam ৷৷27৷৷

इसलिये हे अर्जुन ! तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ स्वधर्माचरणरूप तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। २७।

श्लोक 28 का अर्थ

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।
सन्न्यासयोगमुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥28॥
śubhāśubhaphalairēvaṅ mōkṣyasē karmabandhanaiḥ.
saṅnyāsayōgayuktātmā vimuktō māmupaiṣyasi ৷৷28৷৷

इस प्रकार कर्मो को मेरे अर्पण करनेरूप संन्यासयोग से युक्त हुए मनवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धन से मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त हुआ मेरे को ही प्राप्त होवेगा। २८।

श्लोक 29 का अर्थ

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥29॥
samō.haṅ sarvabhūtēṣu na mē dvēṣyō.sti na priyaḥ.
yē bhajanti tu māṅ bhaktyā mayi tē tēṣu cāpyaham ৷৷29৷৷

यद्यपि मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मेरे को प्रेम से भजते हैं, वे मेरे में और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हू ( जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजनेवाले के ही अन्त:करण में प्रत्यक्षरूप से प्रकट होता है।) । २९।

श्लोक 30 का अर्थ

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥30॥
api cētsudurācārō bhajatē māmananyabhāk.
sādhurēva sa mantavyaḥ samyagvyavasitō hi saḥ ৷৷30৷৷

मेरी भक्ति का और भी प्रभाव सुन, यदि कोई अतिशय  दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त हुआ मेरे को निरन्तर भजता है, वह साधू ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भली प्रकार निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। ३०।

श्लोक 31 का अर्थ

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥31॥
kṣipraṅ bhavati dharmātmā śaśvacchāntiṅ nigacchati.
kauntēya pratijānīhi na mē bhaktaḥ praṇaśyati ৷৷31৷৷

इसलिये वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परमशान्ति को प्राप्त होता है, हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता। ३१।

श्लोक 32 का अर्थ

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌ ॥32॥
māṅ hi pārtha vyapāśritya yē.pi syuḥ pāpayōnayaḥ.
striyō vaiśyāstathā śūdrāstē.pi yānti parāṅ gatim ৷৷32৷৷

क्योंकि हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य और शूद्रादिक तथा पापयोनि वाले भी जो कोई होवें वे भी मेरे शरण होकर तो परमगति को ही प्राप्त होते हैं। ३२।

श्लोक 33 का अर्थ

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्‌ ॥33॥
kiṅ punarbrāhmaṇāḥ puṇyā bhaktā rājarṣayastathā.
anityamasukhaṅ lōkamimaṅ prāpya bhajasva mām ৷৷33৷৷

फिर क्या कहना है कि पुण्यशील ब्राह्मणजन तथा राजर्षि भक्तजन परमगति को प्राप्त होते हैं, इसलिये तू सुखरहित और क्षणभङ्गर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर अर्थात् मनुष्य-शरीर बड़ा दुर्लभ है, परंतु है नाशवान् और सुखरहित, इसलिये काल का भरोसा न करके तथा अज्ञान से सुखरूप भासनेवाले विषय-भोगों में न फँसकर निरन्तर मेरा ही भजन कर। ३३।

श्लोक 34 का अर्थ

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥34॥
manmanā bhava madbhaktō madyājī māṅ namaskuru.
māmēvaiṣyasi yuktvaivamātmānaṅ matparāyaṇaḥ ৷৷34৷৷

केवल मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा में ही अनन्य प्रेम से नित्य, निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्वर को ही श्रद्धा-प्रेम सहित, निष्काम भाव से नाम, गुण और प्रभाव के श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठन द्वारा निरन्तर भजने वाला हो

तथा मुझ शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और किरीट, कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर, वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णु का मन, वाणी और शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से विह्वलतापूर्वक पूजन करने वाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान्, विभूति, बल, ऐश्वर्य, माधुर्य, गम्भीरता, उदारता, वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणों से सम्पन्न, सबके आश्रयरूप वासुदेव को विनयभावपूर्वक, भक्तिसहित, साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम कर, इस प्रकार मेरे शरण हुआ तू आत्मा को मेरे में एकीभाव करके मेरे को ही प्राप्त होवेगा। ३४।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्री कृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥9॥

 इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवाद में “राजविद्याराजगुह्ययोग” नामक नवा अध्याय॥९॥

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