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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा दसवां अध्याय

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Bhagwat Geeta | श्रीमद्भागवद्गीता : माहात्म्य तथा दसवां 10 अध्याय

Table of Contents

श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें “विभूतियोग” नामक दसवाँ अध्याय ॥ १० ॥

श्रीमद्भागवद्गीता Shrimad Bhagwat Geeta के दसवां अध्याय का माहात्म्य

(Bhagwat Geeta) भगवान् शिव कहते हैं-— पार्वती! अब तुम दशम अध्याय के माहात्म्य की परम पावन कथा सुनो, जो स्वर्गरूपी दुर्ग में जाने के लिये सुन्दर सोपान और प्रभाव की चरम सीमा है। काशीपुरी में धीरबुद्धि नाम से विख्यात एक ब्राह्मण था, जो मुझमें प्रिय नन्दी के समान भक्ति रखता था।

वह पावन कीर्ति के अर्जन में तत्पर रहनेवाला, शान्तचित्त और हिंसा, कठोरता एवं दुःसाहस से दूर रहने वाला था। जितेन्द्रिय होने के कारण वह निवृत्ति मार्ग में ही स्थित रहता था। उसने वेदरूपी समुद्र का पार पा लिया था।

वह सम्पूर्ण शास्त्रों के तात्पर्य का ज्ञाता था। उसका चित्त सदा मेरे ध्यान में संलग्न रहता था। वह मन को अन्तरात्मा में लगाकर सदा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया करता था; अतः जब वह चलने लगता, तब मैं प्रेमवश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथ का सहारा देता रहता था।

यह देख मेरे पार्षद भृङ्गिरिटिने पूछा-—भगवन् ! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा। इस महात्मा ने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पद-पदपर इसे हाथ का सहारा देते चलते हैं?

भृङ्गिरिटि का यह प्रश्न सुनकर मैंने इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया। एक समय की बात है, कैलास पर्वत के पार्श्वभाग में पुन्नाग वन के भीतर चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से धुली हुई भूमि में एक वेदी का आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था।

मेरे बैठने के क्षणभर बाद ही सहसा बड़े जोर की आँधी उठी, वहाँ के वृक्षों की शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपस में टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गयीं। पर्वत की अविचल छाया भी हिलने लगी।

इसके बाद वहाँ महान् भयंकर शब्द हुआ, जिससे पर्वत की कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं। तदनन्तर आकाश से कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघ के समान थी। वह कज्जल की राशि, अन्धकार के समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत–सा जान पड़ता था।

पैरों से पृथ्वी का सहारा लेकर उस पक्षी ने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणों में रखकर स्पष्ट वाणी में स्तुति करनी आरम्भ की।

पक्षी बोला-देव ! आपकी जय हो। आप चिदानन्दमयी सुधा के सागर तथा जगत के पालक हैं। सदा सद्भावना से युक्त एवं अनासक्ति की लहरों से उल्लसित हैं। आपके वैभव का कहीं अन्त नहीं है। आपकी जय हो। अद्वैतवासना से परिपूर्ण बुद्धि के द्वारा आप त्रिविध मलों से रहित हैं।

आप जितेन्द्रिय भक्तों के अधीन रहते हैं तथा ध्यान में आपके स्वरूप का साक्षात्कार होता है। आप अविद्यामय उपाधि से रहित, नित्यमुक्त, निराकार, निरामय, असीम, अहंकारशून्य, आवरणरहित और निर्गुण हैं। आपके चरणकमल शरणागत भक्तों की रक्षा करने में प्रवीण हैं।

अपने भयंकर ललाटरूपी महासर्प की विषज्वाला से आपने कामदेव को भस्म किया है। आपकी जय हो। आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से दूर होते हुए भी प्रामाण्यस्वरूप हैं। आपको बार-बार नमस्कार है।

चैतन्य के स्वामी तथा त्रिभुवनरूपधारी आपको प्रणाम है। मैं श्रेष्ठ योगियों द्वारा चुम्बित आपके उन चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ, जो अपार भव-पापके समुद्र से पार उतारने में अद्भुत शक्तिशाली हैं।

महादेव ! साक्षात् बृहस्पति भी आपकी स्तुति करने की धृष्टता नहीं कर सकते। सहस्र मुखोंवाले नागराज शेष में भी इतनी चातुरी नहीं है कि वे आपके गुणोंका वर्णन कर सकें। फिर मेरे-जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षी की तो बिसात ही क्या है।

उस पक्षीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रको सुनकर मैंने उससे पूछा—’विहङ्गम! तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ? तुम्हारी आकृति तो हंस-जैसी है, मगर रंग कौए का मिला है। तुम जिस प्रयोजन को लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।’

पक्षी बोला-—देवेश ! मुझे ब्रह्माजी का हंस जानिये। धूर्जटे ! जिस कर्म से मेरे शरीर में इस समय कालिमा आ गयी है, उसे सुनिये। प्रभो ! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं [ अतः आपसे कोई भी बात छिपी नहीं है ] तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ।

सौराष्ट्र (सूरत) नगरके पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते हैं। उसी में से बालचन्द्रमा के टुकड़े-जैसे श्वेत मृणालों के ग्रास लेकर मैं बड़ी तीव्र गति से आकाश में उड़ रहा था।

उड़ते-उड़ते सहसा वहाँ से पृथ्वी पर गिर पड़ा जब होश में आया और अपने गिरने का कोई कारण न देख सका तो मन-ही-मन सोचने लगा-‘अहो ! यह मुझ पर क्या आ पड़ा ? आज मेरा पतन कैसे हो गया ?’ पके हुए कपूर के समान मेरे श्वेत शरीर में यह कालिमा कैसे आ गयी?

इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरे के कमलों में से मुझे ऐसी वाणी सुनायी दी-—’हंस ! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और काले होने का कारण बताती हूँ।’

तब मैं उठकर सरोवर के बीचमें गया और वहाँ पाँच कमलों से युक्त एक सुन्दर कमलिनी को देखा। उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतन का सारा कारण पूछा।

कमलिनी बोली—-कलहंस ! तुम आकाश मार्ग से मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातक के परिणामवश तुम्हें पृथ्वी पर गिरना पड़ा है तथा उसी के कारण तुम्हारे शरीर में कालिमा दिखायी देती है।

तुम्हें गिरा देख मेरे हृदय में दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमल के द्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुख से निकली हुई सुगन्ध को सूंघकर साठ हजार भँवरे स्वर्गलोक को प्राप्त हो गये हैं।

पक्षिराज ! जिस कारण मुझमें इतना वैभव-ऐसा प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ; सुनो। इस जन्म से पहले तीसरे जन्म में मैं इस पृथ्वी पर एक ब्राह्मण की कन्याके रूप में उत्पन्न हुई थी। उस समय मेरा नाम सरोजवदना था। मैं गुरुजनोंकी सेवा करती हुई सदा एकमात्र पातिव्रत के पालन में तत्पर रहती थी।

एक दिनकी बात है, मैं एक मैना को पढ़ा रही थी। इससे पति सेवा में कुछ विलम्ब हो गया। इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया’—पापिनी ! तू मैना हो जा।’ मरनेके बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि पातिव्रत्य के प्रसाद से मुनियों के ही घर में मुझे आश्रय मिला।

किसी मुनि कन्या ने मेरा पालन-पोषण किया। मैं जिनके घर में थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातःकाल विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध गीता के दसवें अध्याय का पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्याय को सुना करती थी।

विहङ्गम ! काल आने पर मैं मैना का शरीर छोड़कर दशम अध्याय के माहात्म्य से स्वर्गलोक में अप्सरा हुई। मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्मा की प्यारी सखी हो गयी।

एक दिन मैं विमान से आकाश में विचर रही थी। उस समय सुन्दर कमलों से सुशोभित इस रमणीय सरोवर पर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतरकर ज्यों ही मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके। उन्होंने वस्त्रहीन अवस्थामें मुझे देख लिया।

उनके भय से मैंने स्वयं ही एक कमलिनी का रूप धारण कर लिया। मेरे दोनों पैर दो कमल हुए। दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अङ्गोंके साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ। इस प्रकार मैं पाँच कमलोंसे युक्त हुई। मुनिवर दुर्वासा ने मुझे देखा। उनके नेत्र क्रोधाग्नि से जल रहे थे।

वे बोले-—’पापिनी ! तू इसी रूप में सौ वर्षों तक पड़ी रह।’ यह शाप देकर वे क्षणभर में अन्तर्धान हो गये। कमलिनी होने पर भी विभूतियोगाध्याय के माहात्म्य से मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है। मुझे लाँघने  मात्र के अपराधसे तुम पृथ्वीपर गिरे हो।

पक्षिराज ! यहाँ खड़े हुए  तुम्हारे सामने ही आज मेरे शाप की निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये। मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम अध्याय को तुम भी सुन लो। उसके श्रवण मात्रसे तुम भी आज ही मुक्त हो जाओगे।

यों कहकर पद्मिनी ने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणी में दसवें अध्याय bhagwat geeta in hindi का पाठ किया और वह मुक्त हो गयी। उसे सुनने के बाद उसी के दिये हुए इस उत्तम कमल को लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।

इतनी कथा सुनाकर उस पक्षी ने अपना शरीर त्याग दिया। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई। वही पक्षी अब दसवें अध्याय के प्रभाव से ब्राह्मणकुल  में उत्पन्न हुआ है। जन्म से ही अभ्यास होने के कारण शैशवावस्था से ही इसके मुख से सदा गीता के दसवें अध्याय का उच्चारण हुआ करता है।

दसवें अध्याय bhagwat geeta katha के अर्थ-चिन्तन का यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतों में स्थित शङ्ख-चक्रधारी भगवान् विष्णुका सदा ही दर्शन करता रहता है। इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारी के शरीर पर पड़ जाती है, तब वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न  हो, मुक्त हो जाता है। तथा पूर्वजन्म में अभ्यास किये हुए दसवें अध्याय के माहात्म्य से इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त है तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है।

अतः जब यह रास्ता चलने लगता है तो मैं इसे हाथका सहारा दिये रहता हूँ। भृङ्गिरिटे ! यह सब दसवें अध्यायकी ही महामहिमा है।

पार्वती ! इस प्रकार मैंने भृङ्गिरिटि के सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही यहाँ तुमसे भी कही है। नर हो या नारी अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें अध्याय के श्रवणमात्र से उसे सब आश्रमों के पालन का फल प्राप्त होता है।

bhagwat geeta

ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

दसवाँ अध्याय : Bhagwat Geeta

Bhagwat Geeta श्लोक 01 का अर्थ

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ৷৷1৷৷
bhūya ēva mahābāhō śrṛṇu mē paramaṅ vacaḥ.
yattē.haṅ prīyamāṇāya vakṣyāmi hitakāmyayā ৷৷1৷৷

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी बोले, — हे महाबाहो ! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन श्रवण कर जो कि मैं तुझ अतिशय प्रेम रखनेवाले के लिये हित की इच्छा से कहूँगा। १।

Bhagwat Geeta श्लोक 02 का अर्थ

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥2॥
na mē viduḥ suragaṇāḥ prabhavaṅ na maharṣayaḥ.
ahamādirhi dēvānāṅ maharṣīṇāṅ ca sarvaśaḥ ৷৷12৷৷

हे अर्जुन ! मेरी उत्पत्ति को अर्थात् विभूति सहित लीला से प्रकट होनेको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ। २।

Bhagwat Geeta श्लोक 03 का अर्थ

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥3॥
yō māmajamanādiṅ ca vētti lōkamahēśvaram.
asammūḍhaḥ sa martyēṣu sarvapāpaiḥ pramucyatē ৷৷3৷৷

जो मेरे को अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित और अनादि* (* अनादि उसे कहते हैं कि जो आदिरहित होवे और सबका कारण होवे।) तथा लोकों का महान् ईश्वर तत्त्वसे जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। ३।

Bhagwat Geeta श्लोक 04 का अर्थ

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥4॥
buddhirjñānamasaṅmōhaḥ kṣamā satyaṅ damaḥ śamaḥ.
sukhaṅ duḥkhaṅ bhavō.bhāvō bhayaṅ cābhayamēva ca ৷৷4৷৷

हे अर्जुन ! निश्चय करने की शक्ति एवं तत्त्वज्ञान और अमूढ़ता, क्षमा, सत्य तथा इन्द्रियों का वश में करना और मन का निग्रह तथा सुख, दुःख, उत्पत्ति और प्रलय एवं भय और अभय भी। ४।

Bhagwat Geeta श्लोक 05 का अर्थ

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥5॥
ahiṅsā samatā tuṣṭistapō dānaṅ yaśō.yaśaḥ.
bhavanti bhāvā bhūtānāṅ matta ēva pṛthagvidhāḥ ৷৷5৷৷

तथा अहिंसा, समता, संतोष, तप (स्वधर्म के आचरण से इन्द्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है।), दान, कीर्ति और अपकीर्ति ऐसे यह प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मेरे से ही होते हैं। ५।

Bhagwat Geeta श्लोक 06 का अर्थ

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥6॥
maharṣayaḥ sapta pūrvē catvārō manavastathā.
madbhāvā mānasā jātā yēṣāṅ lōka imāḥ prajāḥ ৷৷6৷৷

हे अर्जुन ! सात तो महर्षिजन और चार उनसे भी पूर्व में होनेवाले सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु, यह मेरे में भाववाले सब-के-सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं कि जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है।६।

Bhagwat Geeta श्लोक 07 का अर्थ

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥7॥
ētāṅ vibhūtiṅ yōgaṅ ca mama yō vētti tattvataḥ.
sō.vikampēna yōgēna yujyatē nātra saṅśayaḥ ৷৷7৷৷

जो पुरुष इस मेरी परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्वसे जानता है (जो कुछ दृश्यमात्र संसार है, सो सब भगवान्की माया है और एक वासुदेव भगवान् ही सर्वत्र परिपूर्ण है, यह जानना ही तत्त्वसे जानना है।) वह पुरुष निश्चल ध्यानयोग द्वारा मेरे में ही एकीभाव से स्थित होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। ७।

Bhagwat Geeta श्लोक 08 का अर्थ

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥
ahaṅ sarvasya prabhavō mattaḥ sarvaṅ pravartatē.
iti matvā bhajantē māṅ budhā bhāvasamanvitāḥ ৷৷8৷৷

मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति का कारण हूँ और मेरे से ही सब जगत् चेष्टा करता है, इस प्रकार तत्त्व से समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त हुए, बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरन्तर भजते हैं। ८।

Bhagwat Geeta श्लोक 09-10 का अर्थ

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌ ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥9॥
maccittā madgataprāṇā bōdhayantaḥ parasparam.
kathayantaśca māṅ nityaṅ tuṣyanti ca ramanti ca ৷৷9৷৷

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥10॥
tēṣāṅ satatayuktānāṅ bhajatāṅ prītipūrvakam.
dadāmi buddhiyōgaṅ taṅ yēna māmupayānti tē ৷৷10৷৷

वे निरन्तर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए निरन्तर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ कि जिसे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं। (09 – १०)

Bhagwat Geeta श्लोक 11 का अर्थ

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥11॥
tēṣāmēvānukampārthamahamajñānajaṅ tamaḥ.
nāśayāmyātmabhāvasthō jñānadīpēna bhāsvatā ৷৷11৷৷

हे अर्जुन ! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये ही मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से उत्पन्न हुए अन्धकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।११।

Bhagwat Geeta श्लोक 12-13 का अर्थ

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌ ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌ ॥12॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥13॥
paraṅ brahma paraṅ dhāma pavitraṅ paramaṅ bhavān.
puruṣaṅ śāśvataṅ divyamādidēvamajaṅ vibhum ৷৷12৷৷
āhustvāmṛṣayaḥ sarvē dēvarṣirnāradastathā.
asitō dēvalō vyāsaḥ svayaṅ caiva bravīṣi mē ৷৷13৷৷

इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोले, —हे भगवन् । आप परम ब्रह्म और परम धाम एवं परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋषिजन सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों का भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं, वैसे ही देवर्षि नारद तथा असित और देवलऋषि तथा महर्षि व्यास और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं। १२-१३।

Bhagwat Geeta श्लोक 14 का अर्थ

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥14॥
sarvamētadṛtaṅ manyē yanmāṅ vadasi kēśava.
na hi tē bhagavan vyakitaṅ vidurdēvā na dānavāḥ ৷৷14৷৷

हे केशव ! जो कुछ भी मेरे प्रति आप कहते हैं, इस समस्त को मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन् ! आपके लीलामय* (* गीता अध्याय ४ श्लोक ६ में इसका विस्तार देखना चाहिये। ) स्वरूप को न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं। १४।

Bhagwat Geeta श्लोक 15 का अर्थ

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥15॥
svayamēvātmanā.tmānaṅ vēttha tvaṅ puruṣōttama.
bhūtabhāvana bhūtēśa dēvadēva jagatpatē ৷৷15৷৷

हे भूतों को उत्पन्न करनेवाले ! हे भूतों के ईश्वर ! हे देवों के देव ! हे जगत के स्वामी ! हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। १५।

Bhagwat Geeta श्लोक 16 का अर्थ

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥16॥
vaktumarhasyaśēṣēṇa divyā hyātmavibhūtayaḥ.
yābhirvibhūtibhirlōkānimāṅstvaṅ vyāpya tiṣṭhasi ৷৷16৷৷

इसलिये हे भगवन् ! आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से कहने के लिये योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं। १६।

Bhagwat Geeta श्लोक 17 का अर्थ

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्‌ ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥17॥
kathaṅ vidyāmahaṅ yōgiṅstvāṅ sadā paricintayan.
kēṣu kēṣu ca bhāvēṣu cintyō.si bhagavanmayā ৷৷17৷৷

हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन् ! आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं। १७।

Bhagwat Geeta श्लोक 18 का अर्थ

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌ ॥18॥
vistarēṇātmanō yōgaṅ vibhūtiṅ ca janārdana.
bhūyaḥ kathaya tṛptirhi śrṛṇvatō nāsti mē.mṛtam ৷৷18৷৷

हे जनार्दन ! अपनी योगशक्ति को और परमैश्वर्यरूप विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिये, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी  तर्प्ति  नहीं होती है अर्थात सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है। १८।।

Bhagwat Geeta श्लोक 19 का अर्थ

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥19॥
hanta tē kathayiṣyāmi divyā hyātmavibhūtayaḥ.
prādhānyataḥ kuruśrēṣṭha nāstyantō vistarasya mē ৷৷19৷৷

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले, —हे कुरुश्रेष्ठ ! अब मैं तेरे लिये अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूँगा, क्योंकि मेरे विस्तार का अन्त नहीं है। १९।

Bhagwat Geeta श्लोक 20 का अर्थ

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥20॥
ahamātmā guḍākēśa sarvabhūtāśayasthitaḥ.
ahamādiśca madhyaṅ ca bhūtānāmanta ēva ca ৷৷20৷৷

हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ। २०।

Bhagwat Geeta श्लोक 21 का अर्थ

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्‌ ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥21॥
ādityānāmahaṅ viṣṇurjyōtiṣāṅ raviraṅśumān.
marīcirmarutāmasmi nakṣatrāṇāmahaṅ śaśī ৷৷21৷৷

हे अर्जुन ! मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु अर्थात् वामन अवतार और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायु देवताओं में मरीचि नामक वायुदेवता और नक्षत्रों में नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ। २१।

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Bhagwat Geeta श्लोक 22 का अर्थ

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥22॥
vēdānāṅ sāmavēdō.smi dēvānāmasmi vāsavaḥ.
indriyāṇāṅ manaścāsmi bhūtānāmasmi cētanā ৷৷22৷৷

मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ और इन्द्रियों में मन हूँ, भूतप्राणियों में चेतनता अर्थात् ज्ञानशक्ति हूँ। २२ ।

Bhagwat Geeta श्लोक 23 का अर्थ

रुद्राणां शङ्‍करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्‌ ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्‌ ॥23॥
rudrāṇāṅ śaṅkaraścāsmi vittēśō yakṣarakṣasām.
vasūnāṅ pāvakaścāsmi mēruḥ śikhariṇāmaham ৷৷23৷৷

मैं एकादश रुद्रों में शङ्कर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धनका स्वामी कुबेर हूँ और मैं आठ वसुओं में अग्नि हूँ तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूँ। २३।

Bhagwat Geeta श्लोक 24 का अर्थ

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्‌ ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥24॥
purōdhasāṅ ca mukhyaṅ māṅ viddhi pārtha bṛhaspatim.
sēnānīnāmahaṅ skandaḥ sarasāmasmi sāgaraḥ ৷৷24৷৷

पुरोहितों में मुख्य अर्थात् देवताओं का पुरोहित बृहस्पति मेरे को जान तथा हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्वामिकार्तिक और जलाशयों में समुद्र हूँ। २४।

Bhagwat Geeta श्लोक 25 का अर्थ

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌ ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥25॥
maharṣīṇāṅ bhṛgurahaṅ girāmasmyēkamakṣaram.
yajñānāṅ japayajñō.smi sthāvarāṇāṅ himālayaḥ ৷৷25৷৷

हे अर्जुन ! मैं महर्षियों में भृगु और वचनों  में एक अक्षर अर्थात् ओंकार हूँ तथा सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालों में हिमालय पहाड़ हूँ। २५ ।

Bhagwat Geeta श्लोक 26 का अर्थ

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥26॥
aśvatthaḥ sarvavṛkṣāṇāṅ dēvarṣīṇāṅ ca nāradaḥ.
gandharvāṇāṅ citrarathaḥ siddhānāṅ kapilō muniḥ ৷26৷৷

सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष और देव-ऋषियों में नारद मुनि तथा गन्धर्वो में चित्ररथ और सिद्धों में कपिलमुनि हूँ। २६।

Bhagwat Geeta श्लोक 27 का अर्थ

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम्‌ ।
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्‌ ॥27॥
uccaiḥśravasamaśvānāṅ viddhi māmamṛtōdbhavam.
airāvataṅ gajēndrāṇāṅ narāṇāṅ ca narādhipam ৷৷27৷৷

हे अर्जुन ! तू घोड़ों में अमृत से उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा और हाथियों में ऐरावत नामक हाथी तथा मनुष्यों में राजा मेरे को ही  जान। २७।

श्लोक 28-29 का अर्थ

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्‌ ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥28॥
āyudhānāmahaṅ vajraṅ dhēnūnāmasmi kāmadhuk.
prajanaścāsmi kandarpaḥ sarpāṇāmasmi vāsukiḥ ৷৷28৷৷

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्‌ ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्‌ ॥29॥
anantaścāsmi nāgānāṅ varuṇō yādasāmaham.
pitṛṇāmaryamā cāsmi yamaḥ saṅyamatāmaham ৷৷29৷৷

हे अर्जुन ! मैं शस्त्रों में वज्र और गौ में कामधेनु हूँ और शास्त्रोक्त रीति से संतान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ, सर्पो में सर्पराज वासुकि हू। मैं नागों में ( नाग और सर्प यह दो प्रकार की  जाति हैं।) शेषनाग और जलचरों में उनका अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमानामक पित्रेश्वर तथा शासन करनेवालों में यमराज मैं हूँ। (28 – २९)

श्लोक 30 का अर्थ

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्‌ ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्‌ ॥30॥
prahlādaścāsmi daityānāṅ kālaḥ kalayatāmaham.
mṛgāṇāṅ ca mṛgēndrō.haṅ vainatēyaśca pakṣiṇām ৷৷30৷৷

हे अर्जुन ! मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गिनती करनेवालों में समय ( क्षण, घड़ी, दिन, पक्ष, मास आदि में जो समय है सो मैं हूँ।) हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ। ३०।।

श्लोक 31 का अर्थ

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्‌ ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥31॥
pavanaḥ pavatāmasmi rāmaḥ śastrabhṛtāmaham.
jhaṣāṇāṅ makaraścāsmi srōtasāmasmi jāhnavī ৷৷31৷৷

मैं पवित्र करनेवालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूँ तथा मछलियों में मगरमच्छ हूँ और नदियों में श्रीभागीरथी गङ्गा हूँ। ३१।

श्लोक 32 का अर्थ

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌ ॥32॥
sargāṇāmādirantaśca madhyaṅ caivāhamarjuna.
adhyātmavidyā vidyānāṅ vādaḥ pravadatāmaham ৷৷32৷৷

हे अर्जुन! सृष्टियोंका आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ तथा मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या एवं परस्पर में विवाद करने वालों में तत्त्वनिर्णय के लिये किया जानेवाला वाद हूँ। ३२।

श्लोक 33 का अर्थ

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥33॥
akṣarāṇāmakārō.smi dvandvaḥ sāmāsikasya ca.
ahamēvākṣayaḥ kālō dhātā.haṅ viśvatōmukhaḥ ৷৷33৷৷

मैं अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व नामक समास हूँ तथा अक्षय काल अर्थात् काल का भी महाकाल और विराट्स्वरूप सबका धारण पोषण करनेवाला भी मैं ही हूँ। ३३।

श्लोक 34 का अर्थ

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌ ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥34॥
mṛtyuḥ sarvaharaścāhamudbhavaśca bhaviṣyatām.
kīrtiḥ śrīrvākca nārīṇāṅ smṛtirmēdhā dhṛtiḥ kṣamā ৷৷34৷৷

हे अर्जुन ! मैं सबका नाश करनेवाला मृत्यु और आगे होनेवालों की उत्पत्ति का कारण हूँ तथा स्त्रियोंमें कीर्ति* (* कीर्ति आदि यह सात देवताओंकी स्त्रियाँ और स्त्रीवाचक नामवाले गुण भी प्रसिद्ध है, इसलिये दोनों प्रकारसे ही भगवान्की विभूतियाँ हैं।), श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ। ३४।

श्लोक 35 का अर्थ

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्‌ ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥35॥
bṛhatsāma tathā sāmnāṅ gāyatrī chandasāmaham.
māsānāṅ mārgaśīrṣō.hamṛtūnāṅ kusumākaraḥ ৷৷35৷৷

तथा मैं गायन करनेयोग्य श्रुतियों में बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छन्द तथा महीनों में मार्गशीर्ष का महीना और ऋतुओं में वसन्त ऋतु मैं हूँ। ३५।

श्लोक 36 का अर्थ

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌ ॥36॥
dyūtaṅ chalayatāmasmi tējastējasvināmaham.
jayō.smi vyavasāyō.smi sattvaṅ sattvavatāmaham ৷৷36৷৷

हे अर्जुन ! मैं छल करने वालों में जुआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ तथा मैं जीतनेवालों की विजय हूँ और निश्चय करनेवालों का निश्चय एवं सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ। ३६।

श्लोक 37 का अर्थ

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥37॥
vṛṣṇīnāṅ vāsudēvō.smi pāṇḍavānāṅ dhanaṅjayaḥ.
munīnāmapyahaṅ vyāsaḥ kavīnāmuśanā kaviḥ ৷৷37৷৷

वृष्णिवंशियों में * (* यादवों के ही अन्तर्गत एक वृष्णिवंश भी था।) वासुदेव अर्थात् मैं स्वयं तुम्हारा सखा और पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात् तू एवं मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ। ३७।

श्लोक 38 का अर्थ

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌ ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌ ॥38॥
daṇḍō damayatāmasmi nītirasmi jigīṣatām.
maunaṅ caivāsmi guhyānāṅ jñānaṅ jñānavatāmaham ৷৷38৷৷

और दमन करनेवालों का दण्ड अर्थात दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ और गोपनीयों में अर्थात् गुप्त रखनेयोग्य भावों में मौन हूँ तथा ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ। ३८।

श्लोक 39 का अर्थ

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥39॥
yaccāpi sarvabhūtānāṅ bījaṅ tadahamarjuna.
na tadasti vinā yatsyānmayā bhūtaṅ carācaram ৷৷39৷৷

और हे अर्जुन ! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ; क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरे से रहित होवे, इसलिये सब कुछ मेरा ही स्वरूप है। ३९।

श्लोक 40 का अर्थ

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥40॥
nāntō.sti mama divyānāṅ vibhūtīnāṅ paraṅtapa.
ēṣa tūddēśataḥ prōktō vibhūtērvistarō mayā ৷৷40৷৷

हे परंतप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, यह तो मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिये एकदेश से अर्थात् संक्षेपसे कहा है। ४०।

श्लोक 41 का अर्थ

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌ ॥41॥
yadyadvibhūtimatsattvaṅ śrīmadūrjitamēva vā.
tattadēvāvagaccha tvaṅ mama tējōṅ.śasaṅbhavam ৷৷41৷৷

इसलिये हे अर्जुन ! जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त एवं कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जान। ४१।

श्लोक 42 का अर्थ

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥42॥
athavā bahunaitēna kiṅ jñātēna tavārjuna.
viṣṭabhyāhamidaṅ kṛtsnamēkāṅśēna sthitō jagat ৷৷42৷৷

अथवा हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है, मैं इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योगमाया के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ, इसलिये मेरे को ही तत्त्व से जानना चाहिये। ४२।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥10॥

इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी Bhagwat Geeta उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें “विभूतियोग” नामक दसवाँ अध्याय ॥ १० ॥

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