Gajendra Moksha : गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित
Table of Contents
नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट Gajendra Moksha में आपका स्वागत है। आज की पोस्ट में हम जानेंगे भगवान विष्णु को प्रिय गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र के बारे में। पौराणिक कथा के अनुसार एक समय एक हाथी सरोवर के तट पर पानी पीने के लिए गया तब एक ग्राह अर्थात मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया।
वह ग्राह हाथी को घसीटकर सरोवर के अंदर ले जाने लगा तब उस हाथी ने भगवान विष्णु की आराधना करते हुये अपने प्राणों की रक्षा हेतु प्रार्थना की। श्री विष्णु ने उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर उसके प्राणों की रक्षा की।
दोस्तों, हाथी के द्वारा की गई यही प्रार्थना गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र के नाम से जानी जाती है।
गजेंद्र स्तोत्र का वर्णन हिन्दू धर्म के प्रमुख ग्रंथ ”श्रीमद्भगवदगीता” के तीसरे अध्याय में है। श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष (Gajendra Moksha Stotra) की कथा है । द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्रकृत भगवान के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग है तथा चतुर्थ अध्याय में गज ग्राह के पूर्व जन्म के इतिहास का वर्णन मिलता है ।
शास्त्रों के अनुसार श्री हरि विष्णु को अति प्रिय इस स्तोत्र का जाप करने से जीवन में सभी प्रकार की परेशानियों से मुक्ति मिलती है साथ ही कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि इसका पाठ करने से पित्र दोष का भी समाधान हो जाता है। आज की पोस्ट में हम इस स्तोत्र पर तो चर्चा करेंगे ही, साथ ही इसका हिन्दी अर्थ भी जानेंगे। तो आईए, पोस्ट शुरू करते हैं।
Gajendra Moksha : गजेंद्र मोक्ष स्त्रोत प्रारम्भ
Gajendra Moksha Stotra
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥
भावार्थ — शुक जी बोले, कि बुद्धि के अनुसार पिछले अध्याय में वर्णन किए गए रीति से अपने मन को नियंत्रित कर और हृदय को स्थिर करके गजेंद्र अपने पिछले जन्म में याद किए गए सर्वोच्च और बार-बार जाप किए योग्य स्रोत का जाप करने लगा।
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
भावार्थ — गजेंद्र ने मन ही मन श्री हरी को ध्यान करते हुए कहा कि, जिनके प्रवेश करने से शरीर और मस्तिष्क चेतन की तरह व्यवहार करने लगते हैं, ॐ द्वारा लक्षित और पूरे शरीर में प्रकृति और पुरुष के रूप में प्रवेश करने वाले उस सर्व शक्तिमान देवता का मैं मन ही मन स्मरण करता हूँ।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥
भावार्थ — जिनके सहारे ये पूरा संसार टिका हुआ है, जिनसे ये संसार अवतरित हुआ है, जिन्होनें प्रकृति की रचना की है और जो खुद उसके रूप में प्रकट हैं, किंतु इस दुनिया से सर्वोपरि और श्रेष्ठ हैं। ऐसे अपने आप और बिना किसी कारण के भगवान् की मैं शरण में जाता हूँ।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥
भावार्थ — अपने संकल्प शक्ति के बल पर अपने ही स्वरूप में रचित और सृष्टि काल में प्रकट एवं प्रलय में अप्रकट रहने वाले, इस शास्त्र प्रसिद्धि प्राप्त कार्य कारण रुपी संसार को जो बिना कुंठित दृष्टि के साक्ष्य रूप में देखते रहने पर भी लिप्त नहीं होते, चक्षु आदि प्रकाशकों के परम प्रकाशक प्रभु आप मेरी रक्षा करें।
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।
भावार्थ — बीतते गए समय के साथ तीनों लोकों और ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूत में प्रवेश कर जाने पर और पंचभूतों से लेकर महत्वपूर्ण सभी कारणों के उनकी परम करूणा स्वरूप प्रकृति में मग्न हो जाने पर उस समय दुर्ज्ञेय और घोर अंधकार रूपी प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार से परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापी भगवान सभी दिशाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, वो भगवान मेरी रक्षा करें।
Gajendra Moksha
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥
भावार्थ — विभिन्न नाट्य रूपों में अभिनय करने वाले और उस अभिनेता के वास्तविक स्वरूप को जिस प्रकार से साधारण लोग भी नहीं पहचान पाते, उसी तरह से सत्त्व प्रधान देवता और महर्षि भी जिनके स्वरूप को नहीं जान पाते, ऐसे में कोई साधारण प्राणी उनका वर्णन कैसे कर सकता है। ऐसे दुर्गम चरित्र वाले भगवान मेरी रक्षा करें।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥
भावार्थ — आसक्ति से मुक्त, सभी प्राणियों को आत्मबुद्धि प्रदान करने वाले, सबके बिना कारण हित और अतिशय साधु स्वभाव ऋषि—मुनिजन जिनके परम स्वरूप को देखने की इच्छा के साथ वन में रहकर अखंड ब्रह्मचर्य तमाम अलौकिक व्रतों को नियमों के अनुसार पालन करते हैं, ऐसे प्रभु ही मेरी गति हैं।
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः स्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥
भावार्थ — वह जिनका हमारी तरह कर्मवश ना तो जन्म होता है और ना जिनका अहंकार में कोई भी काम नहीं होता है, जिनके निर्गुण रूप का ना कोई नाम है और ना कोई रूप है, किंतु फिर भी वह समय के साथ इस संसार की सृष्टि और प्रलय के लिए अपनी इच्छा से अपने जन्म को स्वीकार करते हैं।
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥
भावार्थ — उस अनंत शक्ति वाले परम ब्रह्मा परमेश्वर को मेरा नमस्कार है। प्राकृत, आकार रहित और अनेक रूप वाले अद्भुत भगवान् को मेरा बारंबार नमस्कार है।
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
भावार्थ — स्वयं प्रकाशित सभी साक्ष्य परमेश्वर को मेरा शत्—शत् नमन है। वह देव जो नम, वाणी और चित्तवृतियों से परे हैं उन्हें मेरा बारंबार नमस्कार है।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
भावार्थ — विवेक से परिपूर्ण, पुरुष के द्वारा सभी सत्त्व गुणों से परिपूर्ण, निवृति धर्म के आचरण से मिलने वाले योग्य, मोक्ष तथा सुख की अनुभूति रुपी भगवान को मेरा नमस्कार है।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
भावार्थ — सभी गुणों के स्वीकार शांत, रजोगुण को स्वीकार करके अत्यंत और तमोगुण को अपनाकर मूढ़ से जाने जाने वाले, बिना भेद के और हमेशा सद्भाव से ज्ञानधनी प्रभु को मेरा नमस्कार है।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥
भावार्थ — शरीर के इंद्रिय के समुदाय रूप , सभी पिंडों के ज्ञाता, सबों के स्वामी और साक्षी स्वरूप देव आपको मेरा नमस्कार। सभी के अंतर्यामी, प्रकृति के परम कारण लेकिन स्वयं बिना कारण भगवान को मेरा शत—शत नमस्कार।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥
भावार्थ — सभी इन्द्रियों और सभी विषयों के जानकार, सभी प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड़-प्रपंच और सबकी मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले और सभी विषयों में अविद्यारूप से भासने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है।
नमो नमस्ते खिल कारणाय निष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय॥
भावार्थ — सबके कारण, किंतु स्वयं बिना कारण होने पर भी, बिना किसी परिणाम के होने से, अन्य कारणों से भी विलक्षण कारण, आपको मेरा बार बार नमस्कार है। सभी वेदों और शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूपी और श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति देवता को मेरा नमस्कार है।
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
भावार्थ — वह जो त्रिगुण रूपों में छिपी हुई ज्ञान रुपी अग्नि हैं, वैसे गुणों में हलचल होने पर जिनके मन मस्तिष्क में संसार को रचने की वृति उत्पन्न हो उठती हो और जो आत्मा तत्व की भावना के द्वारा विधि निषेध रूप शास्त्र से भी ऊपर उठे हो, जो महाज्ञानी महात्माओं में स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं, ऐसे प्रभु को मेरा नमस्कार है।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
भावार्थ — मेरे जैसे शरणागत, पशु के समान जीवों की अविद्यारूप, फांसी को पूर्ण रूप से काट देने वाले परम दयालु और दया दिखाने में कभी भी आलस नहीं करने वाले भगवान को मेरा नमस्कार है। अपने अंश से सभी जीवों के मन में अंतर्यामी रूप से प्रकट होने वाले सर्व नियंता अनंत परमात्मा आपको मेरा नमस्कार है।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै – र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
भावार्थ — जो शरीर, पुत्र, मित्र, घर और संपत्ति सहित कुटुंबियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनाई से मिलते हों और मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरंतर चिंतित ज्ञानस्वरूप, सर्व समर्थ परमेश्वर को मेरा नमस्कार है।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥
भावार्थ — वह जिन्हें धर्म, अभिलाषित भोग, धन और मोक्ष की कामना से मनन करके लोग अपनी मनचाही इच्छा पूर्ण कर लेते हैं। अपितु जिन्हें विभिन्न प्रकार के अयाचित भोग और अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वैसे अत्यंत दयालु प्रभु मुझे इस विपदा से सदा के लिए बाहर निकालें।
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥
भावार्थ — वह जिनके एक से अधिक भक्त है, जो मुख्य रूप से एकमात्र उन्हीं भगवान् के शरण में हैं। जो धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ की कामना नहीं रखते , जो केवल उन्हीं के परम मंगलमय एवं अत्यंत विलक्षण चरित्र का गुणगान करते हुए उनके आनंदमय समुद्र में गोते लगाते रहते हैं।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमिदे॥
भावार्थ — उन अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वमान्य, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिए भी हमेशा प्रकट होने वाले, भक्तियोग द्वारा प्राप्त, अत्यंत निकट होने पर भी माया के कारण अत्यंत दूर महसूस होने वाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य और अत्यंत दुर्विज्ञेय, अंतरहित किंतु सभी के आदिकारक और सभी ओर से परिपूर्ण भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥
भावार्थ — वो जो ब्रह्मा सहित सभी देवता, चारों वेद, समस्त चर और अचर जीव के नाम और आकृति भेद से जिनके अत्यंत छुद्र अंशों से रचित हैं।
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥
भावार्थ — जिस तरह से जलती हुई अग्नि की लपटें और सूर्य की किरणें बार—बार निकलती हैं और पुन: अपने कारण में लीन हो जाती है, उसी प्रकार बुद्धि, मस्तिष्क, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर— यह गुणमय प्रपंच जिन स्वयं प्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुन: उन्हीं में लीन हो जाता है।
Gajendra Moksha
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥
भावार्थ — Gajendra Moksha वह भगवान जो न तो देवता हैं, न असुर, न मनुष्य हैं और न ही मनुष्य से नीचे किसी अन्य योनि के प्राणी। न ही वो स्त्री हैं, न पुरुष और न ही नपुंसक और न ही वो कोई ऐसे जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणी में समावेश है। वो न तो गुण हैं, न कर्म, न ही कार्य हैं और न ही कारण। इन सभी योनियों का निषेध होने पर जो बचता है, वही उनका असली रूप है। ऐसे प्रभु मेरा उत्थान करने के लिए प्रकट हों।
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥
भावार्थ — अब मैं इस ग्राह (मगरमच्छ) के चंगुल से छूट जाने के बाद जीवित नहीं रहना चाहता, इसका कारण ये है कि मैं भीतर तथा बाहर सब ओर से अज्ञानता से ढके इस हाथी के शरीर का क्या करूँ। मैं आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले अज्ञानता से युक्त इस हाथी के शरीर से मुक्त होना चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से नाश नहीं होता, बल्कि ईश्वर की दया और ज्ञान से उदय हो पाता है।
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥
भावार्थ — इस प्रकार से मोक्ष के लिए लालायित संसार के रचयिता, स्वयं संसार के रूप में प्रकट, लेकिन संसार से परे, संसार में एक खिलौने की भांति खेलने वाले, संसार में आत्मरूप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापी एवं प्राप्त्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्री हरी का केवल स्मरण करता हूँ और उनकी शरण में जाता हूँ।
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥
भावार्थ — वह जिन्होनें भगवद्शक्ति रूपी योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, जिन्हे समस्त योगी, ऋषि अपने योग के द्वारा अपनी शुद्ध ह्रदय में प्रकट देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मेरा नमस्कार है।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
भावार्थ — वह जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्व,रज,तमरूपी) शक्तियों का रागरूप वेग असह्य है, जो सभी इन्द्रियों के विषय रूप में मौजूद हैं, वह जिनकी इन्द्रियां समस्त विषयों में ही बसी रहती है, ऐसे लोगों जिनका मार्ग मिलना भी संभव नहीं है, वैसे शरणागतवत्सल एवं अपार शक्तिशाली भगवान आपको मेरा बारंबार नमस्कार है।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥
भावार्थ — वह जिनकी अविद्या नाम के शक्ति के कार्यरूप से ढँके हुए है, वह जिनके रूप को जीव समझ नहीं पाते हैं, ऐसे अपार महिमा वाले भगवान की मैं शरण लेता हूँ।
श्री शुकदेव उवाच
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात तत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥
भावार्थ — श्री शुकदेव जी कहते हैं कि, वह जिसने पूर्व प्रकार से भगवान के भेदरहित सभी निराकार रूप का वर्णन किया था, उस गजराज के समीप जब ब्रह्माजी साथ में अन्य कोई देवता नहीं आये, जो अपने विभिन्न प्रकार के विशेष विग्रहों को ही अपना रूप मानते हैं, ऐसे में साक्षात् भगवान विष्णु , जो सभी के आत्मा होने के कारण सभी देवताओं के रूप हैं, तब वहां प्रकट हुए।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥
भावार्थ — गजराज को इस प्रकार से दुखी देखकर और उसके पढ़े गए स्तुति को सुनकर चक्रधारी प्रभु इच्छानुसार वेग वाले गरुड़ की पीठ पर सवार होकर सभी देवों के साथ उस स्थान पर पहुंचे जहाँ वह गज था।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नमस्ते॥
भावार्थ — सरोवर के भीतर महाबलशाली मगरमच्छ द्वारा जकड़े और दुखी उस हाथी ने आसमान में गरुड़ की पीठ पर बैठे और हाथों में चक्र लिए भगवान् विष्णु को आते हुए जब देखा, तो वह अपनी सूँड में पहले से ही उनकी पूजा के लिए रखे कमल के फूल को श्री हरी पर बरसाते हुए कहने लगा ”सर्वपूज्य भगवान श्री हरी! आपको मेरा प्रणाम ”सर्वपूज्य भगवान् श्री हरी आपको मेरा नमस्कार”।
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥
भावार्थ — लाचार हाथी को देखकर श्री हरी विष्णु, गरुड़ से नीचे उतरकर सरोवर में उतर आये ग्राह सहित उस गज को तुरंत ही सरोवर से बाहर निकाल आये और देखते ही देखते अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह का वध कर दिया और हाथी को उस पीड़ा से उबार लिया।
Gajendra Moksha Benefits : गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र जाप के लाभ
• जो मनुष्य इस स्त्रोत का शुद्ध हृदय से पाठ करता है उस पर भगवान विष्णु की कृपा सदैव बनी रहती है।
• श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का जाप करने से व्यक्ति बड़े से बड़े कर्ज से मुक्ति पा सकता है। पौराणिक कथा गज और ग्राह की कहानी पर आधारित इस स्तोत्र को शुकदेव जी ने लिखा था।
• हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नियमित रूप से सूर्योदय के पूर्व उठकर स्नान ध्यान करके यदि इस स्तोत्र का जाप किया जाय तो इससे आपको जीवन में किसी भी प्रकार के कर्ज से मुक्ति मिल सकती है। कर्ज से मुक्ति पाने के लिए गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र को सर्वाधिक फायदेमंद माना गया है।
• इस स्त्रोत को सदैव अपने मन में धारण करने वाला मनुष्य संसार की बड़ी-से-बड़ी विपत्ति को सुगमता से पार कर लेता है।
• गजेन्द्र मोक्ष स्त्रोत का पाठ करने वाला व्यक्ति श्री हरि विष्णु के साथ-साथ माता महालक्ष्मी की कृपा का पात्र भी बन जाता है।
• प्रतिदिन, प्रत्येक ब्रहस्पतिवार अथवा समय-समय पर आने वाली एकादशी के दिन यदि मनुष्य इस स्त्रोत का पाठ करे तो ऐसा व्यक्ति कभी ऋण में नहीं फंसता बल्कि दूसरों को भी आश्रय देने योग्य हो जाता है।
गजेन्द्र मोक्ष प्रश्न व उत्तर
प्रश्न – गजेन्द्र मोक्ष का पाठ कब और कैसे करना चाहिए ?
उत्तर – यदि व्यक्ति पर किसी कारण से कर्ज हो गया है अथवा उसे आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ रहा है तो उनके लिए गजेंद्र मोक्ष का पाठ बहुत लाभकारी रहता है। इस स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन अथवा अपनी सुविधानुसार किया जा सकता है। गुरुवार तथा एकादशी जैसे अवसरों पर इसका पाठ विशेष रूप से फलदाई होता है।
प्रश्न – गजेंद्र मोक्ष का पाठ करने से क्या लाभ होता है?
उत्तर – गजेंद्र मोक्ष का पाठ करने से सुख-समृद्धि, धन-ऐश्वर्य तथा उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति तो होती ही है साथ ही पितृ दोष का भी निवारण होता है।
प्रश्न – गजेन्द्र मोक्ष किसका अंश है?
उत्तर – गजेन्द्र मोक्ष श्री मद भागवत कथा के नवे अध्याय का अंश है।
॥ इति ॥
दोस्तों, आशा करते हैं कि पोस्ट Gajendra Moksha आपके लिये अत्यंत लाभदायक सिद्ध होगी। यदि आप कुछ सुझाव देना चाहते हैं तो कृपया कमेंट करके हमें बतायें तथा साथ ही आप अपने मित्रगणों को भी यह पोस्ट शेयर कर सकते हैं जिसके वे भी लाभान्वित हो सकें। धन्यवाद, आपका दिन शुभ व मंगलमय हो।
नमस्कार दोस्तों, मैं सुगम वर्मा (Sugam Verma), Jagurukta.com का Sr. Editor (Author) & Co-Founder हूँ । मैं अपनी Education की बात करूँ तो मैंने अपनी Graduation (B.Com) Hindu Degree College Moradabad से की और उसके बाद मैने LAW (LL.B.) की पढ़ाई Unique College Of Law Moradabad से की है । मुझे संगीत सुनना, Travel करना, सभी तरह के धर्मों की Books पढ़ना और उनके बारे में जानना तथा किसी नये- नये विषयों के बारे में जानकारियॉं जुटाना और उसे लोगों के साथ share करना अच्छा लगता है जिससे उस जानकारी से और लोगों की भी सहायता हो सके। मेरी आपसे विनती है की आप लोग इसी तरह हमारा सहयोग देते रहिये और हम आपके लिए नईं-नईं जानकारी उपलब्ध करवाते रहेंगे। आशा है आप हमारी पोस्ट्स को अपने मित्रों एवं सम्बंधियों के साथ भी share करेंगे। और यदि आपका कोई question अथवा सुझाव हो तो आप हमें E-mail या comments अवश्य करें।