Sant Kabir Das Ji Ke Dohe in Hindi : संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे हिंदी अर्थ सहित

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe in Hindi : संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे हिंदी अर्थ सहित

 

KABIR DAS JI KE DOHE

नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट Sant Kabir Das Ji Ke Dohe में आपका स्वागत है। आज की पोस्ट में हम बात करेंगे भारत के अति प्रसिद्ध संत श्री कबीरदास जी के बारे में। दोस्तों, कबीर दास जी एक संत तो थे ही साथ ही वे एक विचारक और समाज सुधारक भी थे। कबीर दास जी को वेदांत, उपनिषद तथा योग आदि का कोई  ज्ञान न था किंतु वे अध्यात्मिक ज्ञान के शिरोमणी थे।

Kabir Das

 

एक स्थान पर कबीरदास जी स्वयं कहते हैं  –

” मरि कागद छुयौ नहिं, कलम गह्यौ नहिं हाथ “।

अर्थात- मैंने कागज को कभी छुआ नहीं और न ही कलम को ही कभी हाथ लगाया है।

आगे चलकर इन्होंने साधु-संतों और फकीरों की संगति में बैठकर  वेदांत, उपनिषद और योग का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि सूफी फकीरों की संगति में बैठकर उन्होंने इस्लाम धर्म के सिद्धांतों की भी जानकारी कर ली थी।

Sant Kabir Das Ji ke Dohe कबीर दास जी के दोहे अत्यंत सरल भाषा में थे, यही कारण है कि इनके लिखे दोहे आज जनमानस में अति लोकप्रिय हैं, आज भी कबीर दास जी के दोहे जीवन जीने की सही राह दिखाते हैं। दोस्तों, कबीर दास जी के दोहों (sant kabir ke dohe) का एक अत्यंत विशाल सागर है उसी सागर में से कुछ दोहे Sant Kabir Das ji ke prasiddh dohe (हिन्दीअर्थ सहित) हम आपके लिये लेकर आये हैं जिससे कि आप सरलता से दोहों का अर्थ समझ सकें तथा कबीदास जी का ज्ञान अपने जीवन में उतार सकें। तो आईये, पोस्ट शुरू करते हैं।

Sant Kabir Das : संत कबीर के दोहे

 

Kabir Das : कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित

Kabir Das

दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, दुख कहे को होय ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं की दु :ख में तो परमात्मा को सभी याद करते हैं लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। जो इसे सुख में याद करे तो फिर दुख हीं क्यों हो ।

तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहूँ उड़ आँखों मे पड़े, पीर घनेरी होय ।।

भावार्थ: तिनका को भी छोटा नहीं समझना चाहिए चाहे वो आपके पाँव तले हीं क्यूँ न हो क्यूंकि यदि वह उड़कर आपकी आँखों में चला जाए तो बहुत तकलीफ देता है ।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि माला फेरते-फेरते युग बीत गया तब भी मन का कपट दूर नहीं हुआ है । हे मनुष्य ! हाथ का मनका छोड़ दे और अपने मन रूपी मनके को फेर, अर्थात मन का सुधार कर ।

Kabir Das ji ke dohe hindi mein

कबीर माला मनहि कि, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥

भावार्थ: कबीरदास (Kabir Das Ji) ने कहा है कि माला तो मन कि होती है बाकी तो सब लोक दिखावा है । अगर माला फेरने से ईश्वर मिलता हो तो रहट के गले को देख, कितनी बार माला फिरती है । मन की माला फेरने से हीं परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है ।

kabir ke motivational dohe in hindi

सुख में सुमिरन न किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीरा ता दास की, कौन सुने फ़रियाद ॥

भावार्थ: सुख में तो कभी याद किया नहीं और जब दुख आया तब याद करने लगे, कबीर दास जी कहते हैं की उस दास की प्रार्थना कौन सुनेगा ।

साई इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मै भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय ॥

भावार्थ: (Kabir Das Ji) कबीर दास जी ने ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं की हे परमेश्वर तुम मुझे इतना दो की जिसमे परिवार का गुजारा हो जाय । मुझे भी भूखा न रहना पड़े और कोई अतिथि अथवा साधू भी मेरे द्वार से भूखा न लौटे ।

Kabir das ki sakhiyan

जाति न पुछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥

भावार्थ: किसी साधू से उसकी जाति न पुछो बल्कि उससे ज्ञान की बात पुछो । इसी तरह तलवार की कीमत पुछो म्यान को पड़ा रहने दो, क्योंकि महत्व तलवार का होता है न की म्यान का ।

जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥

भावार्थ: जहाँ दया है वहीं धर्म है और जहाँ लोभ है वहाँ पाप है, और जहाँ क्रोध है वहाँ काल (नाश) है । और जहाँ क्षमा है वहाँ स्वयं भगवान होते हैं ।

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धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥

भावार्थ: हे मन ! धीरे-धीरे सब कुछ हो जाएगा माली सैंकड़ों घड़े पानी पेड़ में देता है परंतु फल तो ऋतु के आने पर हीं लगता है । अर्थात धैर्य रखने से और सही समय आने पर हीं काम पूरे होते हैं ।

Dohe

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति कैसे होय ॥

भावार्थ: प्रतिदिन के आठ पहर में से पाँच पहर तो काम धन्धे में खो दिये और तीन पहर सो गया । इस प्रकार तूने एक भी पहर हरि भजन के लिए नहीं रखा, फिर मोक्ष कैसे पा सकेगा ।

कबीरा सोया क्या करे, उठी न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥

भावार्थ:  (Kabir Das Ji) कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी ! तू सोता रहता है (अपनी चेतना को जगाओ) उठकर भगवान को भज क्यूंकि जिस समय यमदूत तुझे अपने साथ ले जाएंगे तो तेरा यह शरीर खाली म्यान की तरह पड़ा रह जाएगा ।

शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील मे आन ॥

भावार्थ: जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में हीं निवास करती है ।

कबीर के दोहे हिन्दी मे अर्थ सहित

माया मरी न मन मरा, मर-मर गया शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमे घुसी हुई माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है । यही कारण है कि मनुष्य दु:ख रूपी समुद्र मे सदा गोते खाता रहता है ।

Sant Kabir Das

रात गंवाई सोय के, दिन गंवाई खाय ।
हीरा जनम अनमोल था, कौड़ी बदले जाय ॥

भावार्थ: रात तो सोकर गंवा दी और दिन खाने-पीने में गंवा दिया । यह हीरे जैसा अनमोल मनुष्य रूपी जन्म को कौड़ियो मे बदल दिया ।

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥

भावार्थ:  (Kabir Das Ji) कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी ! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है । दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा ।

Kabir Das

जो टोकू कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥

भावार्थ: जो तेरे लिए कांटा बोय तू उसके लिए फूल बो । तुझे फूल के फूल मिलेंगे और जो तेरे लिए कांटा बोएगा उसे त्रिशूल के समान तेज चुभने वाले कांटे मिलेंगे । इस दोहे में कबीरदास जी ने या शिक्षा दी है की हे मनुष्य तू सबके लिए भला कर जो तेरे लिए बुरा करेंगें वो स्वयं अपने दुष्कर्मों का फल पाएंगे ।

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥

भावार्थ: यह मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है और यह देह बार-बार नहीं मिलती । जिस तरह पेड़ से पत्ता झड़ जाने के बाद फिर वापस कभी डाल मे नहीं लग सकती । अतः इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पहचानिए और अच्छे कर्मों मे लग जाइए ।

आए हैं सो जाएंगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर ॥

भावार्थ: जो आया है वो इस दुनिया से जरूर जाएगा वह चाहे राजा हो, कंगाल हो या फकीर हो सबको इस दुनिया से जाना है लेकिन कोई सिंहासन पर बैठकर जाएगा और कोई जंजीर से बंधकर । अर्थात जो भले काम करेंगें वो तो सम्मान के साथ विदा होंगे और जो बुरा काम करेंगें वो बुराई रूपी जंजीर मे बंधकर जाएंगे ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन ते मरना भला, यही सतगुरु की सीख ॥

भावार्थ: माँगना मरने के बराबर है इसलिए किसी से भीख मत माँगो । सतगुरु की यही शिक्षा है की माँगने से मर जाना बेहतर है अतः प्रयास यह करना चाहिये की हमे जो भी वस्तु की आवश्यकता हो उसे अपने मेहनत से प्राप्त करें न की किसी से माँगकर ।

जहाँ आपा तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥

भावार्थ: जहाँ मनुष्य में घमंड हो जाता है उस पर आपत्तियाँ आने लगती हैं और जहाँ संदेह होता है वहाँ वहाँ निराशा और चिंता होने लगती है । कबीरदास जी कहते हैं की यह चारों रोग धीरज से हीं मिट सकते हैं ।

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥

भावार्थ: माया और छाया एक जैसी है इसे कोई-कोई ही जानता है यह भागने वालों के पीछे ही भागती है, और जो सम्मुख खड़ा होकर इसका सामना करता है तो वह स्वयं हीं भाग जाती है ।

Kabir Das

आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सम्हाल ऐ गाफिल, अपना आप पहचान ॥

भावार्थ: (Kabir Das Ji) कबीरदास जी कहते हैं की ऐ गाफिल ! तू चादर तान कर सो रहा है, अपने होश ठीक कर और अपने आप को पहचान, तू किस काम के लिए आया था और तू कौन है ? स्वयं को पहचान और अच्छे कर्म कर ।

क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-साँस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥

भावार्थ: इस शरीर का क्या विश्वास है यह तो पल-पल मिटता हीं जा रहा है इसीलिए अपने हर साँस पर हरी का सुमिरन करो और दूसरा कोई उपाय नहीं है ।

गारी हीं सों उपजे, कलह, कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नीच ॥

भावार्थ: गाली (दुर्वचन) से हीं कलह, दु:ख तथा मृत्यु पैदा होती है जो गाली सुनकर हार मानकर चला जाए वही साधु जानो यानी सज्जन पुरुष । और जो गाली देने के बदले में गाली देने लग जाता है वह नीच प्रवृति का है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

दान दिए धन ना घटे, नदी न घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि तुम ध्यान से देखो कि नदी का पानी पीने से कम नहीं होता और दान देने से धन नहीं घटता ।

अवगुण कहूँ शराब का, आपा अहमक़ साथ ।
मानुष से पशुआ करे, दाय गाँठ से खात ॥

भावार्थ: मैं तुमसे शराब की बुराई करता हूँ कि शराब पीकर आदमी आप (स्वयं) पागल होता है, मूर्ख और जानवर बनता है और जेब से रकम भी लगती है सो अलग ।

बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥

भावार्थ: जिस तरह बाजीगर अपने बन्दर से तरह-तरह के नाच दिखाकर अपने साथ रखता है उसी तरह मन भी जीव के साथ है वह भी जीव को अपने इशारे पर चलाता है ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe Hndi Mein

अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पट्ठ्न को फूट ।।

भावार्थ: जैसे की शरीर में तीर कि भाला अटक जाती है और वह बिना चुम्बक के नहीं निकाल सकती इसी प्रकार तुम्हारे मन में जो खोट (बुराई) है वह किसी महात्मा के बिना नहीं निकल सकती, इसीलिए तुम्हें सच्चे गुरु कि आवश्यकता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

पतिव्रता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिव्रता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि पतिव्रता स्त्री चाहे मैली-कुचैली और कुरूपा हो लेकिन पतिव्रता स्त्री की इस एकमात्र विशेषता पर समस्त सुंदरताएँ न्योछावर हैं ।

वैद्य मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥

भावार्थ: कबीरदास (Kabir Das Ji) जी कहते हैं कि बीमार मर गया और जिस वैद्य का उसे सहारा था वह भी मर गया । यहाँ तक कि कुल संसार भी मर गया लेकिन वह नहीं मरा जिसे सिर्फ राम का आसरा था । अर्थात राम नाम जपने वाला हीं अमर है ।

हद चले सो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों ताजे, ताको भाता अगाध ॥

भावार्थ: जो मनुष्य सीमा तक काम करता है वह मनुष्य है । जो सीमा से अधिक कार्य की परिस्थिति में ज्ञान बढ़ावे वह साधु है । और जो सीमा से अधिक कार्य करता है । विभिन्न विषयों में जिज्ञासा कर के साधना करता रहता है उसका ज्ञान अत्यधिक होता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जाके जिव्या बन्धन नहीं, हृदय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥

भावार्थ: जिसको अपनी जीभ पर नियंत्रण नहीं है और मन में सच्चाई भी नहीं है ऐसे व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहिए । ऐसे मनुष्य के साथ रहकर कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है ।

तीरथ गए थे एक फल, संत मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥

भावार्थ: (Kabir Das Ji) कबीर कहते हैं तीर्थ करने से एक फल मिलता है और संत महात्मा से चार फल, यदि सतगुरु मिल जाएँ तो सारे पदार्थ मिल जाते हैं । और किसी वस्तु कि चिंता नहीं रहती ।

Kabir Das

सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, संत कबीर कह दिन ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे मछली जल से एक दिन के लिए भी बिछ्ड़ जाती है तो उसे चैन नहीं पड़ता । ऐसे हीं सबको हर समय ईश्वर के स्मरण में लगना चाहिए ।

समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तुम्हें अपनी ओर खींचता हूँ पर तू दूसरे के हाथ बिका जा रहा है और यमलोक कि ओर चला जा रहा है । मेरे इतने समझाने पर भी तू नहीं समझता ।

हंसा मोती विणन्या, कुंचन थार भराय ।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥

भावार्थ: सोने के थाल में मोती भरे हुए बिक रहे हैं । लेकिन जो उनकी कद्र नहीं जानते वह क्या करें, उन्हे तो हंस रूपी जौहरी हीं पहचान कर ले सकता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

वस्तु है सागर नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥

भावार्थ: ज्ञान रूपी अमूल्य वस्तु तो आसानी से उपलब्ध है परन्तु उसको लेने वाला कोई नहीं है क्योंकि ज्ञान रूपी रत्न बिना सत्कर्म और सेवा के नहीं मिलता । लोग बिना कर्म किए ज्ञान पाना चाहते हैं अतः वे इस अनमोल वस्तु से वंचित रह जाते हैं ।

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कली खोटा जग आंधरा शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आईना, जो जग बैरी होय ॥

भावार्थ: यह कलयुग खोटा है और सारा जग अंधा है मेरी बातों को कोई नहीं मानता बल्कि जिसको भली बात बताता हूँ वही मेरा दुश्मन हो जाता है ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति, वरन, कुल खोय ॥

भावार्थ:कबीरदास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी, लोभी इन तीनों से भक्ति नहीं हो सकती । भक्ति तो कोई शूरवीर ही कर सकता है जिसने जाति, वर्ण और कुल का मोह त्याग दिया हो ।

जागन मे सोवन करे, साधन मे लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहै, तार टूट नाहिं जाय ॥

भावार्थ: जगते हुए मे भी सोये हुए के समान हरि को याद करते रहना चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि हरि नाम का तार टूट जाय । अर्थात प्राणी को जागते-सोते हर समय ईश्वर का स्मरण करते रहना चाहिए ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभी चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥

भावार्थ: जिस वस्तु कि किसी को लगन लग जाती है उसे वह नहीं छोड़ता । चाहे कितनी हीं हानि क्यूँ न हो जाय, जैसे अंगारे में क्या मिठास होती है जिसे चकोर (पक्षी) चबाता है ? अर्थ यह है कि चकोर कि जीभ और चोंच भी जल जाय तो भी वह अंगारे को चबाना नहीं छोड़ता वैसे हीं भक्त को जब ईश्वर कि लगन लग जाती है तो चाहे कुछ भी हो वह ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ता ।

भक्ति गेंद चौगान कि, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कछु भेद नहिं, कहाँ रंक कहाँ राय ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर भक्ति तो गेंद के समान है । चाहे जो ले जाय इसमे क्या राजा और क्या कंगाल किसी में कुछ भेद नहीं समझा जाता । चाहे जो ले जाय ।

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल स्नेही साइयाँ, आवा अन्त का यार ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं की जो तुम्हारे बचपन का मित्र और आरंभ से अन्त तक का मित्र है, जो हमेशा तुम्हारे अन्दर रहता है । तू जरा अपने अन्दर के परदे को हटा कर देख । तुम्हारे सामने हीं भगवान आ जाएंगे ।

Kabir Das

अंतर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हांथ तो, कौन उतारे पार ॥

भावार्थ: हे प्रभु आप हृदय की बात जानने वाले और आप हीं आत्मा के मूल हो, जो तुम्हीं हांथ छोड़ दोगे तो हमें और कौन पार लगाएगा ।

kabir ke dohe

मैं अपराधी जन्म का, नख-शिख भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥

भावार्थ: मै जन्म से हीं अपराधी हूँ, मेरे नाखून से लेकर चोटी तक विकार भरा हुआ है, तुम ज्ञानी हो दु:खों को दूर करने वाले हो, हे प्रभु तुम मुझे सम्हाल कर कष्टों से मुक्ति दिलाओ ।

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा प्रजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥

भावार्थ: प्रेम न तो बागों में उगता है और न बाज़ारों में बिकता है, राजा या प्रजा जिसे वह अच्छा लगे वह अपने आप को न्योछावर कर के प्राप्त कर लेता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

सुमिरन सों मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजे तेहि संग ॥

भावार्थ:  (Kabir Das Ji) कबीर साहब कहते हैं की भक्त ईश्वर की साधना में इस प्रकार मन लगाता है, उसे एक क्षण के लिए भी भुलाता नहीं, यहाँ तक की प्राण भी उसी के ध्यान में दे देता है । अर्थात वह प्रभु भक्ति में इतना तल्लीन हो जाता है की उसे शिकारी (प्राण हरने वाला) के आने का भी पता नहीं चलता ।

Kabir Das Ki Sakhiyan

सुमिरत सूरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ॥

भावार्थ: एकचित्त होकर परमात्मा का सुमिरन कर और मुँह से कुछ न बोल, तू बाहरी दिखावे को बंद कर के अपने सच्चे दिल से ईश्वर का ध्यान कर ।

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ।।

भावार्थ: परमात्मा का सच्चा नाम दूध के समान है और पानी के जैसा इस संसार का व्यवहार है । पानी मे से दूध को अलग करने वाला हंस जैसा साधू (सच्चा भक्त) होता है जो दूध को पानी मे से छानकर पी जाता है और पानी छोड़ देता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥

भावार्थ: जिस तरह तिलों में तेल और चकमक पत्थर में आग छुपी रहती है वैसे हीं तेरा सांई (मालिक) परमात्मा तुझमें है अगर तू जाग सकता है तो जाग और अपने अंदर ईश्वर को देख और अपने आप को पहचान ।

जा कारण जग ढूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ।।

भावार्थ: जिस भगवान को तू सारे संसार में ढूँढता फिरता है । वह मन में ही है । तेरे अंदर भ्रम का परदा दिया हुआ है इसलिए तुझे भगवान दिखाई नहीं देते ।

जबही नाम हिरदे धरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगारी आग की, परी पुरानी घास ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान का नाम लेते ही पाप का नाश हो जाता है जिस तरह अग्नि की चिंगारी पुरानी घास पर पड़ते ही घास जल जाती है इसी तरह ईश्वर का नाम लेते ही सारे पाप दूर हो जाते हैं ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ।।

भावार्थ: जो मनुष्य इंद्रियों के स्वाद के लिए पूर्ण नाक तक भरकर खाये तो प्रसाद कहाँ रहा ? तात्पर्य यह है कि भोजन या आहार शरीर की रक्षा के लिए सोच समझकर करें तभी वह उत्तम होगा । अर्थात सांसारिक भोग उपभोग ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करें ।

जब लग नाता जगत का, तब लग भागिति न होय ।
नाता जोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक संसार का संबंध है यानी मन सांसारिक वस्तुओं में आसक्त है तब तक भक्ति नहीं हो सकती जो संसार का संबंध तोड़ दे और भगवान का भजन करे, वही भक्त होते हैं ।

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ।।

भावार्थ: जैसे मछ्ली को पानी प्यारा लगता है, लोभी को धन प्यारा लगता है, माता को पुत्र प्यारा लगता है वैसे ही भक्त को भगवान प्यारे लगते है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

बानी से पहचानिए, साम चोर की धात ।
अंदर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ।।

भावार्थ: सज्जन और दुष्ट को उसकी बातों से पहचाना जाता है क्योंकि उसके अंदर का सारा वर्णन उसके मुँह द्वारा पता चलता है । व्यक्ति जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार उसका व्यवहार बनता है।

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ।।

भावार्थ: जब तक भक्ति इच्छा सहित है तब तक परमात्मा की सेवा व्यर्थ है । अर्थात भक्ति बिना कामनाओं के करनी चाहिए । कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक इच्छाओं से रहित भक्ति न हो तब तक परमात्मा कैसे मिल सकता है ? अर्थात नहीं मिल सकता ।

Kabir Das

फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त-असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ।।

भावार्थ: जिसकी ज्ञान रूपी आँखें फूटी हुई हैं वह सन्त-असन्त को कैसे पहचाने ? उनकी यह स्थिति है कि जिसके साथ दस-बीस चेले देखें उसी को महन्त समझ लिया ।

दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
ते नर नरक ही जाएंगे, सुनी-सुनी साखी शब्द ।।

भावार्थ: जिसके हृदय के अंदर दया तो लेशमात्र नहीं और वह ज्ञान की बातें खूब बनाते हैं वे आदमी चाहे जितनी साखी (भगवान की कथा) क्यों न सुने उन्हें नरक ही मिलेगा ।

दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ।।

भावार्थ: किस पर दया करनी चाहिए किस पर निर्दयता करनी चाहिए ? हे मानव तू सब पर समान भाव रख । कीड़ा और हाथी दोनों ही परमात्मा के जीव हैं ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ।।

भावार्थ: जो छिन (तुरंत) में उतरे और छिन में चढ़े उसे प्रेम मत समझो । जो कभी भी घटे नहीं, हरदम शरीर की हड्डियों के भीतर तक में समा जाये वही प्रेम कहलाता है ।

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
दोनों कबहुँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ।।

भावार्थ: कहीं नाम नहीं आ सकता और जहाँ हरिनाम है वहाँ कामनाएँ मिट जाती हैं । जिस प्रकार सूर्य और रात्रि नहीं मिल सकते उस प्रकार जिस मन में ईश्वर का स्मरण है वहाँ कामनाएँ नहीं रह सकतीं ।

कबिरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूक एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ।।

भावार्थ: (Kabir Das Ji) कबीरदास जी कहते हैं कि धीरज रखने के कारण ही हाथी मन भर खाता है पर धीरज न रखने के कारण कुत्ता एक-एक टुकड़े के लिए घर-घर मारा-मारा फिरता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जैसे दूज का चंद्रमा, शीश नवे सब कोय ।।

भावार्थ: सबसे छोटा बनकर रहने में सब काम आसानी से निकल जाते हैं जैसे दूज के चंद्रमा को सब सिर झुकाते हैं।

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ।।

भावार्थ: जो आदमी सच्चाई को बांटता है यानी सच्चाई का प्रचार करता है और रोटी में से टुकड़ा बाँटता है कबीर जी कहते हैं उस भक्त से भूल-चूक नहीं होती ।

मार्ग चलते जो गिरे, ताकों नाहि दोष ।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ।।

भावार्थ: रास्ते चलते-चलते जो गिर पड़े उसका कोई कसूर नहीं माना जाता लेकिन कबीरदास जी कहते हैं कि जो बैठा रहेगा उसके सिर पर तो कठिन कोस बने ही रहेंगे अर्थात कार्य करने में बिगड़ जाये तो उसे सुधारने का प्रयत्न करें परंतु न करना अधिक दोषपूर्ण है ।

जब ही नाम हृदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ।।

भावार्थ: जिस प्रकार अग्नि की चिंगारी पुरानी घास में पड़कर उसको फूँक देती है वैसे ही हरि के ताप से पाप नष्ट हो जाते हैं । जब भी आपके हृदय में नाम स्मरण दृढ़ हो जाएगा, तभी समस्त पापों का नाश होगा ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das Ji Ke Dohe

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ।।

भावार्थ: शील स्वभाव का सागर है जिसकी थाह कोई नहीं पा सकते वैसे ही भगवान के भजन के बिना साधु नहीं होता जैसे धन के बिना शाह नहीं कहलाता ।

बाहर क्या दिखलाए, अनंतर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ।।

भावार्थ: तुझे संसार के दिखावे से क्या क्या काम तुझे तो अपने भगवान से काम है इसलिए गुप्त जाप कर ।

Kabir Das

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ।।

भावार्थ: जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निजी स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नहीं, वह तो सेवा के बदले कीमत चाहता है, सेवा निःस्वार्थ होनी चाहिए ।

तेरा सांई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़त घास ।।

भावार्थ: कबीरदास (Kabir Das Ji) जी कहते हैं कि मनुष्य तेरा स्वामी (भगवान) तेरे अंदर उसी प्रकार है जिस प्रकार पुष्पों में सुगंधित व्याप्त रहती है । फिर भी तू जिस प्रकार कस्तूरी वाला हिरण अपने अंदर छिपी हुई कस्तूरी को अज्ञान से घास में ढूँढता है उसी प्रकार ईश्वर को अपने से बाहर खोज करता है ।

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत में नाही और उपाव ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते है कि संसार रूपी भवसागर से पार उतरने के लिए कथा-कीर्तन की नाव चाहिए इसके अतिरिक्त पार उतरने का कोई और उपाय नहीं है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुँ गगन समाय ।।

भावार्थ: मनुष्य का शरीर विमान के समान है और मन काग के समान है कि कभी तो नदी में गोते मारता है और कभी आकाश में जाकर उड़ता है ।

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जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जिस स्थान पर ग्राहक है वहाँ मैं नहीं हूँ और जहाँ मैं हूँ वहाँ ग्राहक नहीं, यानि मेरी बात को मानने वाले नहीं हैं लोग बिना ज्ञान के भरमाते फिरते हैं ।

Kabir Das

कहता तो बहुता मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ।।

भावार्थ: कहने वाले तो बहुत मिले परंतु वास्तविक बात को समझाने वाला कोई नहीं और जो वास्तविक बात समझाने वाला ही नहीं तो उसके कहने पर चलना व्यर्थ है ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ।।

भावार्थ: जब तक सूर्य उदय नहीं होता तब तक तारा चमकता रहता है इसी प्रकार जब तक जीव को पूरा ज्ञान प्राप्त नहीं होता । तब तक जीव कर्म के वश में रहता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुडै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ।।

भावार्थ: सोना और साधु दोनों अच्छे हैं यह सैंकड़ों बार टूटते हैं और जुड़ते हैं । वह बुरे हैं जो कुम्हार के घड़े की भाँति एक बार टूटकर नहीं जुड़ते अर्थात जो बुरे हैं वह विपत्ति के समय अपने को खो बैठता है ।

सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब वनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरुगुन लिखा न जाय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि सारी धरती का कागज़ बनाऊँ, सारे जंगलों के वृक्षों की कलम बनाऊँ और सातों समुद्रों की स्याही बनाऊँ तो भी गुरु का यश नहीं लिखा जाता ।

बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि मेरी आधी साखी चारों वेदों की जान है तो मैं क्यों न उस दूध का सम्मान करूँ जिसमें घी निकले । जिस प्रकार दूध में घी है इसी भाँति मेरी आधी साखी चारों वेदों का निचोड़ है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

साधु गाँठी न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ।।

भावार्थ: साधु गाँठ नहीं बाँधता वह तो पेट भर अन्न लेता है क्योंकि वह जानता है आगे पीछे ईश्वर खड़े हैं । भाव यह है कि परमात्मा सर्वव्यापी है जीव जब माँगता है तब वह उसे देता है ।

कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बंदगी होय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि इस संसार में या तो परमात्मा जागता है या ईश्वर का भजन करने वाला या पापी जागता है, और कोई नहीं जागता ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Dohe

सुमरण की सुबयों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सूरत में, कहें कबीर विचार ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे पनिहारी का ध्यान हर समय गागर पर ही रहता है इसी प्रकार तुम भी हर समय उठते-बैठते ईश्वर में मन लगाओ ।

सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जड़ के द्वारा ही डाल, पत्ते और फल-फूल लगते हैं जब जड़ पकड़ ली तो सब चीजें आ जाती हैं, ईश्वर का भरोसा करो ।

जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रुख ।
अनुभव भाव न दरसते, ना दुःख ना सुख ।।

भावार्थ: जिस तरह सूखा पेड़ नहीं फलता इसी तरह राम के बिना कोई नहीं फल-फूल सकता । जिसके मन में राम-नाम के सिवा दूसरा भाव नहीं है उनको सुख-दुःख का बंधन नहीं है ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das Ji Ke Dohe

सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ।।

भावार्थ: जिस तरह शेर अकेला जंगल में रहता हुआ पल-पल दौड़ता रहता है जैसा अपना मन वैसा ही औरों का भी इसी तरह मन रूपी शेर अपने शरीर में रहते हुए भी घूमता फिरता है ।

यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यह माया ब्रह्मा भंगी की जोरु है, इसमें ब्रह्मा और जीव दोनों बाप-बेटों को उलझा रखा है मगर यह साथ एक का भी नहीं देगी, तुम भी इसके धोखे में न आओ ।

जहर की जमीं में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ।।

भावार्थ: हे कबीर! संसार में जिसने कुछ सोच-विचार रखा है वह ऐसे नहीं छोड़ता उसने तो पहले ही अपनी धरती में विष देकर थाँवला बनाया है । अब सागर से अमृत खींचता है तो क्या लाभ ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जो जाने जीव न अपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दुजी बार ।।

भावार्थ: यदि तुम समझते हो कि वह जीवन हमारा तो उसे राम-नाम से भर दो क्योंकि यह ऐसा मेहमान है जो दुबारा मिलना मुस्किल है ।

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि मैंने चन्दन की डाली पर चढ़ बहुत से लोगों को पुकारकर ठीक रास्ता बताया परंतु जो ठीक रास्ते पर नहीं आता वह ना आवे! हमारा क्या लेता है ।

Kabir Das

लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जाम फिरे, मैंढ़ा लूटे कसाय ।।

भावार्थ: जैसे मैंढें को कसाई मारता है उसी प्रकार जीव को यम मारने की घात में लगा रहता है और समझ में नहीं आता कि लोग किसके भरोसे गाफिल बैठे हुए हैं वह क्यों नहीं गुरु से शिक्षा लेते और बचने का उपाय क्यों नहीं करते हैं ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

मूर्ख मूढ़ कुकर्मियों,निख सिख पाखर आही ।
बंधन कारा का करे, जब बाँध न लागे ताही ।।

भावार्थ: जिस मनुष्य को समझाने तथा पढ़ने से भी ज्ञान न हो तो ऐसे मनुष्य को समझना भी अच्छा नहीं क्योंकि उस पर आपकी बातों का कोई प्रभाव नहीं होगा ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जो तू चाहे मुक्त को, छोड़ दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ।।

भावार्थ: परमात्मा का कहना है अगर तू मुक्ति चाहता है तो मेरे सिवाय सब आस छोड़ दे और मुझ जैसा हो जा, फिर तुझे कुछ परवाह नहीं रहेगी ।

सांई आगे साँच है, सांई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भूण्डाय ।।

भावार्थ: परमात्मा सच्चाई ही पसंद करता है चाहे तुम जटा बढ़ाकर सच बोलो या सिर मूँड़ाकर । अर्थात सत्य का अस्तित्व नहीं बदलता । सांसारिक वेश-भूषा बदलने से वह नहीं बदला जा सकता ।

अपने-अपने साख कि, सबही लिनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ।।

भावार्थ: हरि का भेद पाना बहुत कठिन है पूर्णतया कोई भी न जान सका । बस जिसने यह जान लिया कि मैं सब कुछ जान गया हूँ मेरे बराबर अब इस संसार में कौन है, इसी घमंड के वश में होकर वास्तविकता से प्रत्येक व्यक्ति वंचित ही रह गया ।

Kabir Das

खेत न छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ।।

भावार्थ: जो बलवान है वह दो सेनाओं के बीच में भी लड़ता रहेगा उसे अपने मरने की चिंता नहीं । वह मैदान छोड़कर नहीं भागेगा ।

लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ।।

भावार्थ: पुराने मार्ग को कायर, धोखेबाज और नालायक ही छोड़ते हैं । चाहे रास्ता कितना ही बुरा क्यों न हो शेर और योग्य बच्चे अपना पुराना तरीका नहीं छोड़ते हैं और वे इस तरह से चलते हैं कि जिसमें कुछ लाभ हो।

सन्त पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ।।

भावार्थ: संतों का शरीर शीशे की तरह साफ होता है उनके मन में ईश्वर दृष्टि आती है यदि तू ईश्वर को देखना चाहता है तो मन में ही देख ले ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das Ji Ke Dohe

गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुंठ से, फेर दिया शुकदेव ।।

भावार्थ: यदि किसी ने अपना गुरु नहीं बनाया और जन्म से ही हरि सेवा में लगा हुआ है तो वह शुक्रदेव की तरह है।

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ।।

भावार्थ: चाहे लाख तरह के भेष बदलें । घर रहें, चाहे वन में जाएं परंतु सिर्फ प्रेम भाव होना चाहिए । अर्थात संसार में किसी भी स्थान पर, किसी भी स्थिति में रहें प्रेम भाव से रहना चाहिए ।

कांचे भांडे से रहे, ज्यों कुम्हार का नेह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ।।

भावार्थ: जिस तरह कुम्हार बहुत ध्यान व प्रेम से कच्चे बर्तन को बाहर से थपथपाता है और भीतर से सहारा देता है । उसी प्रकार गुरु को शिष्य का ध्यान रखना चाहिए ।

Kabir Das

सांई ते सब हॉट है, बंदे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ।।

भावार्थ: ईश्वर जो चाहे कर सकता है बंदा कुछ नहीं कर सकता वह राई का पहाड़ बना सकता है और पहाड़ को राई कर दे, यानि छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा कर सकता है ।

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ।।

भावार्थ: बिना प्रेम की भक्ति के वर्षों बीत गए तो ऐसी भक्ति से क्या लाभ ? जैसे बंजर जमीन में बोने से फल नहीं प्राप्त होता चाहे कितना ही मेह बरसे । ऐसे ही बिना प्रेम की भक्ति फलदायक नहीं होती ।

एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ।।

भावार्थ: एक से बहुत (अनन्त) हो गए और फिर सब एक हो जाओगे जब तुम उस भगवान को जान लोगे तो तुम भी एक ही में मिल जाओगे ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ।।

भावार्थ: ईश्वर का नाम लेने से जीवात्मा की शांति हो गयी और मोह माया की आग दूर हो गयी । रात-दिन सुख से व्यतीत होने लगे और हृदय में ईश्वर का रूप दिखने लगा ।

आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि ऐ जोगी ! तुम आशा और तृष्णा को फूँककर राख करके फेरी करो तब सच्चे जोगी बन सकोगे |

kabir ke dohe in hindi

अन्तरयामी एक तुम, आतम के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तौ, कौन उतारे पार ।।

भावार्थ: हे प्रभु ! आप हृदय के भावों को जानने वाले तथा आत्मा के आधार हो । यदि आपकी आराधना न करें तो हमको इस संसार-सागर से आपके सिवाय कौन पार उतारने वाला है ।

अपने-अपने साख की, सब ही लिनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ।।

भावार्थ: हरि का भेद पाना बहुत कठिन है पूर्णतया कोई भी न पा सका । बस जिसने यह जान लिया कि मैं सब कुछ जानता हूँ मेरे बराबर अब इस संसार में कौन है, इसी घमंड में होकर वास्तविकता से प्रत्येक वंचित ही रह गया ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ।।

भावार्थ: गाली आते हुए एक होती है परंतु उलटने पर बहुत हो जाती है । कबीरदास जी कहते हैं कि गाली के बदले में अगर उलट कर गाली न दोगे तो एक-की-एक ही रहेगी ।

आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ।।

भावार्थ: जो मनुष्य इंद्रियों के स्वाद के लिए पूर्ण नाक तक भरकर खाय तो प्रसाद कहा रहा !

आशा को ईंधन करो, मनशर करा न भूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब बुन आवे सूत ।।

भावार्थ: कबीर जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि सच्चा योगी बनना है तो मोह वासनाओं तथा तृष्णा को फूँक कर नाश कर दो फिर फेरी करो तब हे प्राणी, तुम्हारे अंदर आत्मा का विकास होगा ।

Kabir Das

उज्ज्वल पहरे कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ।।

भावार्थ: उजले कपड़े पहनता है और पाण-सुपारी खाकर अपने तन को मैला नहीं होने देता परंतु हरि का नाम न लेने पर यमदूत द्वारा बंधा हुआ नर्क में जाएगा ।

उतने कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि कोई भी जीव स्वर्ग से नहीं आता है कि वहाँ का कोई हाल मालूम हो सके, यह बात पूछने से मालूम है कि उसको कुछ नहीं मालूम है, किन्तु यहाँ से जो जीव जाया करते हैं वे दुष्कर्मों के पोटरे बाँध के ले जाते हैं ।

अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुया भया, दाम गाँठ से खोय ।।

भावार्थ: तुमसे शराब की बुराई करता हूँ कि शराब पीकर आप पागल होता है मूर्ख और जानवर बनता है और जेब से रकम भी लगती है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की वास ।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि साधु की संगति गंधी की वास की भाँति है, यद्द्पि गंधी प्रत्यक्ष में कुछ नहीं देता है तो भी उसके इत्रों की सुगंधी से मन को अत्यंत प्रसन्नता मिलती है । इसी प्रकार साधु संगति से प्रत्यक्ष लाभ न होता हो तो भी मन को अत्यंत प्रसन्नता और शांति तो मिलती है ।

कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खरी खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि साधु की संगति में जौ कि भूसी खाकर रहना उत्तम है, परंतु दुष्ट की संगति में खांड़ मिश्रित खीर खाकर भी रहना अच्छा नहीं ।

कबीरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि ।
संगति बुरी असाधु की, आठो पहर उपाधि ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि साधु की संगति ही भली है जिससे कि दूसरे की आपत्ति मिट जाती है । असाधु कि संगति बहुत खराब है, जिससे कि आठों पहर उपाधियां घेरे रहती हैं ।

एक ते जान अनंत, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ।।

भावार्थ: एक से बहुत हो गए और फिर सब एक हो जाओगे जब तुम सब भगवान को जान लोगे तो तुम भी एक ही में मिल जाओगे ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीरा कलह अरु कल्पना,सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ।।

भावार्थ: संतों की संगति में रहने से मन से कलह एवं कल्पनादिक आधि-व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं तथा साधुसेवी व्यक्ति के पास दुख आने का साहस नहीं करता है वह तो सदैव सुख का उपभोग करता रहता है ।

को छुटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ।।

भावार्थ: इस संसार बंधन से कोई नहीं छूट सकता । पक्षी जैसे-जैसे सुलझ कर भागना चाहता है । तैसे ही तैसे वह उलझता जाता है ।

कबीरा लहर समुद्र की, निष्फल कभी न जाय ।
बगुला परख न जानई, हंसा चुग-चुग खे ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि समुद्र की लहर भी निष्फल नहीं आती । बगुला ज्ञान रहित होने के कारण उसे मत्स का आहार कर के अपना जीवन व्यतीत करना है । परंतु हंस बुद्धिमान होने के कारण मोतियों का आहार कर अपने जीवन को व्यतीत करता है ।

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कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट-टूट के कारनै, स्वान धरे धर जाय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि कि गज के धैर्य धारण करने से ही वह मन भर भोजन करता है, परंतु कुत्ता धैर्य नहीं धारण करने से घर घर एक टूक के लिए फिरता है । इसलिए सम्पूर्ण जीवों को चाहिए कि वो धैर्य धारण करे ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

काया काढ़ा काल धुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया ब्रह्म ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ।।

भावार्थ: काष्ठ रूपी काया को काल रूपी धुन भिन्न-भिन्न प्रकार से खा रहा है । शरीर के अंदर हृदय में भगवान स्वयं विराजमान है, इस बात को कोई बिरला ही जानता है ।

कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जीव के पैदा होने का कोई कारण उसको भी नहीं किया या अब समय उपस्थित है कि जीव को जाना है तो उसको पहले ईश्वर का स्मरण करने का कार्य वह भी नहीं किया । अब न तो इस संसार के ही रहे और न मोक्षप्राप्ति के अधिकारी ही हुए अब बीच में नरक में ही रह गए इसलिए प्राणी को हरि का स्मरण थोड़ा बहुत अवश्य करना चाहिए, सांसारिक झगड़ों में नहीं फंसना चाहिए ।

कुटिल बचन सबसे बुरा,जासे होत न हार ।
साधु बचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ।।

भावार्थ: कठोर वचन सबसे बुरी वस्तु है, यह मनुष्य के शरीर को जलाकर राख के समान कर देता है । सज्जनों के वचन जल के समान शीतल होते हैं । जिनको सुनकर अमृत की वर्षा हो जाती है ।

कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जाने दे, जो नहीं गहना कोय ।।

भावार्थ: कबीर जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि इस संसार में आत्मज्ञान के उपदेशक तो बहुत मिले कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए यह करना चाहिए वह करना चाहिए आदि, परंतु उसको अपने अंदर अपनाने वाला कोई जीव नहीं मिला । उनके कहने पर स्नेह मात्र नहीं जो आत्मज्ञान के विवेकी नहीं हैं ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताही का बखतर बने, ताही की शमशेर ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि एक ही धातु लोहे को अनेक रूपों में गढ़कर अनेक वस्तुएं बना सकते हैं । जिस प्रकार तलवार तथा बखतर लोहे के ही बने होते हैं उसी प्रकार भगवान अनेको रूपों में प्राप्त है, परंतु वह एक ही है ।

कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक तू जीवित है तब तक दान दिये जा । प्राण निकलने पर यह शरीर मिट्टी हो जाएगा तब इसको देह कौन कहेगा ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ।।

भावार्थ: कबीर अपने को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे कबीर! तू सोने में समय क्यों नष्ट करता है । उठ तथा भगवान कृष्ण का स्मरण कर और अपने जीवन को सफल बना । एक दिन इस शरीर को त्याग कर तो सोना ही है । अर्थात इस संसार को छोड़ कर जाना ही है ।

कागा काको धन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ।।

भावार्थ: कागा किसका धन हरता है जिससे संसार उससे नाराज रहता है और क्या कोयल किसी को अपनी धुन देती है वह तो केवल अपनी मधुर (शब्द) ध्वनि सुनाकर संसार को मोहित कर लेती है ।

कबीरा सोई पीर है, जो जा नै पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि वही सच्चा पीर (साधु) है जो दूसरों की पीर (आपत्तियों) को भली प्रकार समझता है जो दूसरों की पीर को नहीं समझता वह बेपीर एवं काफिर होता है ।

कबिरा मनहि गयंद है, आंकुश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि हरै, अमृत को फल चाखि ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मन हाथी के समान है उसे अंकुश की मार से अपने कब्जे में रखना चाहिए इसका फल विष के प्याले को त्याग कर अमृत के फल के पाने के समान होता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर सीप समुद्र की, रटे पियास पियास ।
और बूँदी को ना गहे, स्वाति बूँद की आस ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि प्रत्येक प्राणी को ऐसी वस्तु ग्रहण करना चाहिए जो उसे उत्तम फल प्रदान करें; जिस प्रकार मोती उत्पन्न करने के लिए समुद्र की सीप पियासी-पियासी कह कर पुकारती है परंतु वह स्वाति जल के बूँद के अतिरिक्त और किसी का पानी नहीं ग्रहण करती है ।

कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ ।
काल्ह जो बैठा भंडपै, आज भसाने दीठ ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार नाशवान है क्षण भर को कटु तथा क्षण भर को मधु प्रतीत होता है । जिस प्रकार कि कल कोई व्यक्ति मण्डप में बैठा हो और आज उसे शमशान देखना पड़े ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das

कबिरा जपना काठ की, क्या दिखलावे मोय ।
हिरदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि इस लकड़ी की माला से क्या होता है यह क्या असर दिखा सकती है अगर कुछ लेना और देखना हो तो मन से हरि सुमिरण कर, बेमन लागे जाप व्यर्थ है ।

कबिरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि वे नर अन्धे हैं जो गुरु को भगवान से छोटा मानते हैं क्योंकि ईश्वर के रुष्ट होने पर एक गुरु का ही सहारा तो है लेकिन गुरु के नाराज़ होने के बाद कोई ठिकाना नहीं रहता ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das Ji Ke Dohe

कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
क़हत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि संसार रूपी भवसागर से पार उतरने के लिए कथा-कीर्तन की नाव चाहिए इसके सिवाय पार उतरने के लिए और कोई उपाय नहीं ।

कली खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ।।

भावार्थ: यह कलयुग खोटा है और सारा जग अंधा है मेरी बात कोई नहीं मानता, बल्कि जिसको भली बात बताया हूँ वह मेरा बैरी हो जाता है ।

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि जो साधु पुरुष धन का गठबंधन नहीं करते हैं तथा जो स्त्री से नेह नहीं करते हैं, हम तो ऐसे साधु के चरणों की धूल के समान हैं ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अङ्ग लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ।।

भावार्थ: साधु चन्दन के समान है और सांसारिक विषय वासना सर्प की तरह है । जिसमें पर विष चढ़ता हि रहता है सत्संग करने से कोई विकार पास नहीं आता है । क्या विषयों में फँसा हुआ मनुष्य कभी किसी प्रकार पार पा सकता हैं ?

घाट का परदा खोलकर, सन्मुख ले दीदार ।
बाल सनेही साइयां, आवा अंत का यार ।।

भावार्थ: जो भगवान के शैशव अवस्था का सखा और आदि से समाप्ती तक का मित्र है । कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव अपने ज्ञान चक्षु द्वारा हृदय में उसके दर्शन कर!

घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ।।

भावार्थ: तेल खाने से घी के दर्शन करना ही उत्तम है । मूर्ख मित्र रखना खराब है तथा बुद्धिमान शत्रु अच्छा है । मूर्ख में ज्ञान न होने के कारण जाने कब धोखा दे दे, परंतु चतुर वैरी हानि पहूँचाएगा उसमें चतुराई अवश्य चमकती होगी ।

Kabir Das

गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले सो नीच ।।

भावार्थ: गाली से ही कलह और दुःख तथा मृत्यु पैदा होती है जो गाली सुनकर हार मानकर चला जाए वही साधु जानो यानी सज्जन पुरुष और जो गाली देने के बदले में गाली देने लग जाता है वह नीच है ।

छिन ही चढ़े छिन उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहाबै सो ।।

भावार्थ: जो प्रेम क्षण-क्षण में घटता तथा बढ़ता रहता है वह प्रेम नहीं है । प्रेम तो वह है जो हमेशा एक सा रहे । भगवान का प्रेम अघट प्रेम है जो मनुष्य की सम्पूर्ण इंद्रियों से प्रदर्शित होता रहता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लिजै जनम सुधारि ।।

भावार्थ: जिस घड़ी साधु का दर्शन हो उसे श्रेष्ठ समझना चाहिए । और रामनाम को रटते हुए अपना जन्म सुधारना चाहिए ।

जा घर गुरु की भक्ति नहि, संत नहीं समझना ।
ता घर जाम डेरा दिया, जीवन भये मसाना ।।

भावार्थ: जिस घर में ईश्वर तथा संतों के प्रति आदर-सत्कार नहीं किया जाता है, उस घर में यमराज का निवास रहता है तथा वह घर श्मशान के सदृश है, गृहस्थी का भवन नहीं है ।

Kabir Das

जल ज्यों प्यारा माछरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बालका, भक्तना प्यारा नाम ।।

भावार्थ: जैसे जल मछ्ली के लिए प्यारा लगता है और धन लोभी को प्यारा है, माता को पुत्र प्यारा होता है । इसी प्रकार भगवान के भक्त को ईश्वर के नाम का स्मरण ही अच्छा लगता है ।

जबही नाम हृदय धरा, भया पाप का नास ।
मानो चिनगी आग की, परी पुरानी घास ।।

भावार्थ: जब भगवान का स्मरण मन से लिया जाता है तो जीव के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं । जिस प्रकार एक चिनगारी अग्नि की पुरानी घास में गिर पड़े तो क्या होगा उससे सम्पूर्ण घास नष्ट हो जाती है । इसलिए पापों के विनाश हेतु भगवान का स्मरण मन से करना चाहिए ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निःकामा निज देव ।।

भावार्थ: जब तक भक्ति स्वार्थ के लिए है तब तक ईश्वर की भक्ति निष्फल है । इसलिए भक्ति निष्काम करनी चाहिए । कबीर जी कहते हैं कि इच्छारहित भक्ति में भगवान के दर्शन होते हैं ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेतु बिन प्रान ।।

भावार्थ: जिस आदमी के हृदय में प्रेम नहीं है वह श्मशान के सदृश्य भयानक एवं त्याज्य होता है | जिस प्रकार के लुहार की धौंकनी की भरी हुई खाल बगैर प्राण के साँस लेती है उसी प्रकार उस आदमी का कोई महत्व नहीं है ।

Sant Kabir Das

ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर मांहि ।
मूर्ख लोग न जानिए, बाहर ढूँढ़त जांहि ।।

भावार्थ: जिस प्रकार नेत्रों के अंदर पुतली रहती है और वह सारे संसार को देख सकती है, किन्तु अपने को नहीं उसी तरह भगवान हृदय में विराजमान है और मूर्ख लोग बाहर ढूँढ़ते फिरते हैं ।

Kabir Das

जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ।।

भावार्थ: निराकार ब्रह्म का कोई रूप नहीं है वह सर्वत्र व्यापक है न वह विशेष सुंदर ही है और न कुरूप ही है वह अनूठा तत्व पुष्प की गन्ध से पतला है ।

जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटै, चारों बाधक रोग ।।

भावार्थ: जहाँ पर भाव है वहाँ पर आपत्तियां हैं । और जहाँ संशय है वहाँ पर रोग होता है । कबीरदास जी कहते हैं कि ये चारों बलिष्ट रोग कैसे मिटें । अर्थात भगवान के स्मरण करने से नष्ट हो जाते हैं ।

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जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।

भावार्थ: किसी साधु से उनकी जाति न पूछो बल्कि उससे ज्ञान पूछो इसी तरह तलवार की कीमत मत पूछो म्यान को पड़ा रहने दो ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर के दोहे साखी

जहाँ ग्राहक तंह मैं नहीं, जंह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जिस स्थान पर ग्राहक है वहाँ मैं नहीं हूँ और जहाँ मैं हूँ वहाँ ग्राहक नहीं यानी मेरी बात को मानने वाले नहीं हैं लोग बिना ज्ञान के भरमते फिरते हैं ।

जाके जिभ्या बन्धन नहीं हृदय में नाहिं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ।।

भावार्थ: जिसको अपनी जीभ पर अधिकार नहीं और मन में सच्चाई नहीं तो ऐसे मनुष्य के साथ रहकर तुझे कुछ प्राप्त नहीं हो सकता ।

Kabir Das

झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ।।

भावार्थ: झूठे सुख को सुख माना करते हैं तथा अपने में बड़े प्रसन्न होते हैं, वह नहीं जानते कि मृत्यु के मुख में पड़ कर आधे तो नष्ट हो गए और आधे हैं वह भी और नष्ट हो जाएंगे । भाव यह है कि कबीरदास जी कहते हैं कि मोहादिक सुख को सुख मत मान और मोक्ष प्राप्त करने के लिए भगवान का स्मरण कर । भगवत भजन में ही वास्तविक सुख है ।

जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ।।

भावार्थ: परमात्मा का कहना है अगर तू मुक्ति चाहता है तो मेरे सिवाय सब आस छोड़ दे और मुझ जैसा हो जा फिर तुझे कुछ परवाह नहीं रहेगी ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दूजी बार ।।

भावार्थ: यदि तुम समझते हो कि यह जीव हमारा है तो उसे राम-नाम से भी भर दो क्योंकि यह ऐसा मेहमान हो जो दुबारा मिलना मुश्किल है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

तीरथ गए से एक फल, सन्त मिलै फल चार ।
सतगुरु मिले अधिक फल, कहै कबीर बिचार ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि यदि जीव तीर्थ करता है तो उसको एक गुना फल प्राप्त होता है, यदि जीव के लिए एक सन्त मिल जावे तो चार गुना फल होता है और यदि उसको श्रेष्ठ गुरु मिल जाये तो उसके लिए अनेक फल प्राप्त होते हैं ।

तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँव तले भी होय ।
कबहुँ उड़ आँखों पड़े, पीर घनेरी होय ।।

भावार्थ: तिनके का भी अनादर नहीं करना चाहिए । चाहे वह हमारे व तुम्हारे पग के नीचे ही क्यों न हो यदि वह नेत्र में आकार गिर जाए तो बड़ा दुखदायी होता है । भाव इसका यह है कि तुच्छ वस्तुओं को निरादर की दृष्टि से मनुष्य को नहीं देखना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी वही दुखदायी बन जाते हैं ।

ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ।।

भावार्थ: जितना जीवन का समय सत्संग के बिना किए व्यतीत ही गया उसको निष्फल समझना चाहिए । यदि प्रभु के प्रति प्रेम तथा भगवतभक्ति नहीं है तो इस जीवन को पशु जीवन समझना चाहिए । मनुष्य जीवन भगवत भक्ति से ही सफल हो सकता है । अर्थात बिना भक्ति के मनुष्य जीवन बेकार है ।

Kabir Das

तेरा साईं तुझ में, ज्यों पहुन में बास ।
कस्तूरी का हिरण ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़त घास ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि मनुष्य तेरा स्वामी भगवान तेरे ही अंदर उसी प्रकार है जिस प्रकार पुष्पों में सुगंध व्याप्त रहती है फिर भी तू जिस प्रकार कस्तूरी वाला हिरण अपने अंदर छिपी हुई कस्तूरी को अज्ञान से घास में ढूँढ़ता है उसी प्रकार ईश्वर को अपने से बाहर खोज करती है ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

तीर तुपक से जो लड़ै, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ।।

भावार्थ: वह मानव वीर नहीं कहलाता जो केवल धनुष और तलवार से लड़ाई लड़ते हैं । सच्चा वीर तो वह है जो माया को त्याग कर भक्ति करता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

दिल का मरहम कोई न मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कहे कबीर बादल फटा, क्यों कर सीवे दर्जी ।।

भावार्थ: इस संसार में ऐसा कोई नहीं मिला, जो कि हृदय को शांति प्रदान करे । यदि कोई मिला तो वह अपने मतलब को सिद्ध करने वाला ही मिला संसार में स्वार्थियों को देखकर मन रूपी आकाश फट गया तो उसको दर्जी क्यों सीवे ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ।।

भावार्थ: यह जो शरीर है इसमें जो प्राण वायु है वह इस शरीर में होने वाले दस द्वारों से निकल सकता है । इसमें कोई अचरज की बात नहीं है । अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय मृत्यु का कारण बन सकती है ।

दया आप हृदय नहीं, ज्ञान कथे वे हद ।
ते नर नरक ही जायंगे, सुन-सुन साखी शब्द ।।

भावार्थ: जिनके हृदय में दया नहीं है और ज्ञान की कथायें कहते हैं वह चाहे सौ शब्द क्यों न सुन लें परंतु उनको नर्क ही मिलेगा ।

Kabir Das

नहिं शीतल है, चंद्रमा, हिम नहिं शीतल होय ।
कबिरा शीतल संतजन, नाम स्नेही होय ।।

भावार्थ: चंद्रमा शीतल नहीं है और हिम भी शीतल नहीं, क्योंकि उनकी शीतलता वास्तविक नहीं है । कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के प्रेमी साधु-सन्तों में ही वास्तविक शीतलता का आभास होता है अन्य कहीं नहीं ।

प्रेम पियाला जो पिये, सीस दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।।

भावार्थ: व्यक्ति प्रेमामृत से परिपूर्ण प्याले का पान करते हैं वह उस प्याले के मूल्य को चुकाने के लिए अपने मस्तक को दक्षिणा के रूप में अर्पित करते हैं अर्थात वह प्रेम के महत्व को भलीभाँति समझते हैं और उसकी रक्षा के हेतु अपना सब कुछ देने के लिए प्रस्तुत रहते हैं तथा जो व्यक्ति लोभी होता है (जिनके हृदय में प्रेम दर्शन करते हैं) ऐसे व्यक्ति प्रेम पुकारते रहते हैं । परंतु समय आने पर प्रेम के रक्षार्थ अपना मस्तक (सर्वस्व) अर्पण करने में असमर्थ होते हैं ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

प्रेम न बारी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजार जोहि रुचे, सीस देइ ले जाए ।।

भावार्थ: प्रेम न जो बाड़ी (बगीचा) में उपजता है और न बाजार में बिकता है । अर्थात प्रेम साधारण वस्तु नहीं है । राजा प्रजा जिस किसी को अपने शीश (मस्तक) को रुचिपूर्वक बलिदान करना स्वीकार हो उसे ही प्रेम के सार रूप भगवान की प्राप्ति हो सकती है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि मनुष्य जीवन पानी के बुलबुले के समान है जो थोड़ी-सी देर में नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार प्रातःकाल होने पर तारागण प्रकाश के कारण छिप जाते हैं ।

पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यदि पत्थरों (मूर्तियों) के पूजन मात्र से भगवान की प्राप्ति होती हो तो मैं पहाड़ों का पूजन करूँगा इससे तो घर की चक्की का पूजन अच्छा है जिसका पीसा हुआ आटा सारा संसार खाता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

फुटो आँख विवेक की, लखें न संत असंत ।
जिसके संग दस बीच है, ताको नाम महन्त ।।

भावार्थ: जिसके ज्ञान रूपी नैन नष्ट हो गए हैं वह सज्जन और दुर्जन का अंतर नहीं बता सकता है और सांसारिक मनुष्य जिसके साथ दस-बीस चेले देख लेता है वह उसको ही महन्त समझा करता है ।

बन्धे को बाँधना मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबंध की, पल में लेय छुड़ाय ।।

भावार्थ: जिस प्रकार बन्धे हुए व्यक्ति को बंधा हुआ व्यक्ति मिल जाने पर उसे मुक्ति पाने का कोई उपाय दृष्टिगोचर नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार सांसारिक बंधनों में बंधा हुआ मानव जब माया के जाल में फँसता है उस समय उसके विस्तार का कोई मार्ग नहीं रहता । अतएव ऐसे व्यक्ति की संगति करनी चाहिए जो निर्बन्ध एवं धन-माया से छुटकारा करा सके । (निर्बन्ध और निर्लेप प्रभु के अतिरिक्त कोई नहीं है) अतः भगवान की आराधना करनी चाहिए ।

बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ।।

भावार्थ: यह तो सम्पूर्ण जीव जानते हैं कि समुद्र में पड़ी बूंदे उसमें समा जाती हैं, किन्तु यह विवेकी ही जानता है कि किस प्रकार मन रूपी समुद्र में बिंदुरूपी जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाते है ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das

बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ।।

भावार्थ: बाहर के दिखावटी भगवान के स्मरण से क्या लाभ है, राम का स्मरण हृदय से करो । इस संसार से तेरा क्या तात्पर्य है तुझे तो भगवान से काम है । भाव यह है कि इस संसार को बनाने वाला ईश इसी में व्याप्त है इसका स्मरण वास्तविक रूप से करने से वह अपना दर्शन देगा ।

बलिहारी गुरु आपने, घड़ी-घड़ी सौ बार ।
मानुष से देवत किया, करत न लागी बार ।।

भावार्थ: मैं तो बार-बार अपने गुरु की बलिहारी हूँ कि जिन्होंने मनुष्य से देवता करने में जरा भी देरी नहीं किया ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कछु भेद नहिं, काह रंक कहराय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति तो पोलो की गेंद के समान है चाहे जिसकी इच्छा हो वह ले जाए इसमें क्या राजा क्या कंगाल किसी में भी कुछ भेद नहीं समझा जाता चाहे कोई ले जाए ।

भूखा भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूरण जोग ।।

भावार्थ: तू अपने आपको भूखा-भूखा कह कर क्या सुनाता है, लोग क्या तेरा पेट भर देंगे ?याद रख, जिस परमात्मा ने तुझे शरीर और मुँह दिया है वही तेरे काम पूर्ण करेगा ।

मार्ग चलत में जो गिरे, ताको नाहीं दोष ।
कह कबीर बैठा रहे, ता सिर करड़े कोस ।।

भावार्थ: मार्ग में चलते-चलते जो गिर पड़े उसका कोई अपराध नहीं माना जाता है । कबीरजी कहते हैं कि जो आदमी बैठा रहता है उसके सिर पर कठिन कोस बने ही रहते हैं, अर्थात न करने से कुछ करना ही अच्छा है ।

मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मूड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि सिर के बाल कटवाने से यदि भगवान प्राप्त हो जाए तो सब कोई सिर के बाल कटवा कर भगवान को प्राप्त कर ले । जिस प्रकार भेड़ का तमाम शरीर कई बार मूड़ा जाता है तब भी वह बैकुण्ठ को नहीं प्राप्त कर सकता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मन तो सांसारिक मोह, वासना में लगा हुआ है और शरीर ऊपर रंगे हुए वस्त्रों से ढँका हुआ है । इस प्रकार की वेशभूषा से साधुओं का सारा शरीर धारण तो कर लिया है यह व्यर्थ है इससे भगवान की भक्ति नहीं हो सकती है । कारी गंजी पर रग्ड़ नहीं चढ़ता भगवान से रहित मन बिना रंगा कोरा ही रह जाता है ।

मथुरा भावै द्वारिका, भावै जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु, कछू न आवे हाथ ।।

भावार्थ: चाहे मथुरा, द्वारिका या जगन्नाथ कोई भी नीकौ (अच्छा) लगे, परंतु साधु की संगति तथा हरिभजन के बिना कुछ हाथ नहीं आता है ।

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोर ।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागेगा मोर ।।

भावार्थ: मेरा मुझमें कुछ नहीं है । जो कुछ है सब तुम्हारा है । तुम्हारा तुमको सौंपने में मेरा क्या लगेगा । अर्थात, कुछ नहीं ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das Ji Ke Dohe

मैं रोऊँ सब जगत को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि मैं तो सबको रोता हूँ, परंतु मेरा दर्द किसी को नहीं, मेरा दर्द वही देख सकता है जो मेरे शब्द को समझता है ।

माँगन-मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख ।।

भावार्थ: माँगना मरने के बराबर है इसलिए किसी से भीख मत माँगो । सतगुरु कहते हैं (शिक्षा है) कि माँगने से मर जाना बेहतर है ।

यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भूँई धरे, तब पैठे घर मांहि ।।

भावार्थ: यह घर प्रेम का है, भगवान की प्राप्ति के लिए उसके प्रति प्रेम का होना अनिवार्य है तभी उसकी प्राप्ति में सफलता प्राप्ति हो सकती है । यह मौसी का घर नहीं है जिसमें प्रवेश करने पर आदर एवं सुख की सामग्री पूर्ण रूप से प्राप्त होती है ।

इस प्रेम के घर में घुसने में (भगवान की साधना में) सफलता उन्हीं व्यक्तियों को प्राप्त होती है जो अपने मस्तक उतार कर (काट कर) भूमि पर चढ़ा देते हैं (अर्थात सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने पर ही) भगवान की प्राप्ति होती है ।

Kabir Das

या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।
लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ।।

भावार्थ: इस संसार में आकर हे प्राणी तू अभिमान को छोड़ दे और जो कुछ लेना हो उसे ले ले नहीं तो पैंठ उठी जाती है अर्थात बीता हुआ समय फिर नहीं हाथ आता है ।

राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।
नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ।।

भावार्थ: जिनको ब्रह्मज्ञान हो गया उनको अज्ञान रूपी निद्रा कभी नहीं आती है और बुढ़ापे में भी उनका शरीर उनको दुखदाई नहीं होता है । अर्थात उनको भगवान का आनंद प्राप्त होने पर सब दुखों की निवृत्ति हो जाती है ।

राम रहे बन भीतरे, गुरु कीना पूरी आस ।
कहे कबिरा पाखण्ड सब, झूठा सदा निरास ।।

भावार्थ: बिना गुरु के पूछे जो प्राणी यह समझते हैं कि राम वन में रहते हैं, कबीरदासजी कहते हैं कि यह सब प्रपंच है । ऐसे जीव को ईश अपने दर्शन नहीं देते हैं तथा वह निराश रहता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

लाग लगन छूटे नहीं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहाँ अंगार में, जाहिर चकोर चबाय ।।

भावार्थ: जिस जीव को किसी वस्तु की लगन लग जाती है तो वह किसी प्रकार की लाभ-हानि को नहीं देखता और अपने कर्तव्य को पूरा करता है उसको छोड़ता नहीं । जिस प्रकार कि चकोर अङ्गार को खाता है । यद्द्पि अङ्गार कोई मीठी वस्तु नहीं है तो भी चकोर उसका सेवन करता है ।

इसका अर्थ यह है कि जिसका हृदय भगवत भक्ति में विलीन हो जाता है तब वह सांसारिक किसी वस्तु की हानि की कुछ चिंता नहीं करता है और ईश्वर के प्रेम में मगन रहता है ।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभू दूरि ।
चींटी ले शक्कर चली, हाथी के सिर धूरि ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि लघुता से प्रभुता मिलती है । और प्रभुता से प्रभु दूर रहते हैं, जिस प्रकार छोटी-सी चींटी लघुता के कारण शक्कर पाती है और हाथी के सिर पर धूल पड़ती है ।

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सो गर अनमोल ।
बिना करम का मानवा, फिरता डांवाडोल ।।

भावार्थ: ज्ञान जैसी अमूल्य वस्तु तो उपस्थित है, परंतु उसको कोई लेने वाला नहीं है क्योंकि ज्ञान, बिना सेवा के नहीं मिलता और सेवा करने वाला कोई नहीं है इसलिए कोई भक्ति और सेवा कर सकता है तो ले सकता है ।

वृक्ष बोला पात से, सुन पत्ते मेरी बात ।
इस घर की यह रीति है, एक आवत एक जात ।।

भावार्थ: वृक्ष पत्ते को उत्तर देता हुआ कहता है कि हे पत्ते, इस संसार में यही प्रथा प्रचलित है कि जिसने जन्म लिया है वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

साधुन के सत संग से, थर-थर काँपे देह ।
कबहूँ भाव-कुभाव लें, मन मिट जाय स्नेह ।।

भावार्थ: मन के भावों और कुभावों से उसका प्रेम नष्ट हो जाता है तथा साधुओं के संग से शरीर थर-थर काँपता है, ये कम्पन पाप प्रवृत्तियों के कारण होती है । अर्थात सात्विक भावों के मन में उत्पन्न होने पर बुरे भावों की शनैःशनैः कमी हो जाती है और अंत में उनके लिए हृदय में स्थान शेष नहीं रहता ।

संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय ।
कह कबीर तहँ जाइए, साधु संग जहां होय ।।

भावार्थ: अच्छी संगति से सुख प्राप्त होता है एवं कुसंगति से दुःख अतः कबीरदास जी कहते हैं कि उस स्थान पर जाना चाहिए कि जहाँ साधु (अच्छी) संगति की प्राप्ति हो ।

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े, जब माँगे तब देय ।।

भावार्थ: सज्जन अपनी आवश्यकतानुसार वस्तु का उपयोग करते हैं वह गठबंधन (संग्रह) नहीं करते । उन्हें सर्वव्यापी भगवान पर विश्वास होता है, क्योंकि वह मांगने पर प्रत्येक वस्तु को देता है ।

Kabir Das Ji Ke Dohe

सुमिरन से मन लाइये, जैसे कामी काम ।
एक पलक बिसरे नहीं, निश दिन आठौ याम ।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि जिस प्रकार कामी मनुष्य अपने काम में प्रवृत रहता है । अपनी प्रेमिका का ध्यान आठों पहर करता है उसी प्रकार हे प्राणी! तू अपने मन को भगवत स्मरण में लगा दे ।

 Kabir Das Ke Dohe In Hindi~ संत कबीर के प्रसिद्द दोहे और उनके अर्थ

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।

भावार्थ:  कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष जहर से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीशसर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।।

भावार्थ: अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बनाऊं और दुनियां के सभी वृक्षों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है।

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि खजूर का पेड़ बेशक बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया देता है और फल भी बहुत दूरऊँचाई पे लगता है। इसी तरह अगर आप किसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा नहीं है।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das Ji Ke Dohe

मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार ।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।।

भावार्थ: मालिन को आते देखकर बगीचे की कलियाँ आपस में बातें करती हैं कि आज मालिन ने फूलों को तोड़ लिया और कल हमारी बारी आ जाएगी। भावार्थात आज आप जवान हैं कल आप भी बूढ़े हो जायेंगे और एक दिन मिटटी में मिल जाओगे। आज की कली, कल फूल बनेगी।

ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं जैसे तिल के अंदर तेल होता है, और आग के अंदर रौशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्धमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूढ लो।

जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान ।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।।

भावार्थ: जिस इंसान अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के समान है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।।

भावार्थ: साधु से उसकी जाति मत पूछो बल्कि उनसे ज्ञान की बातें करिये, उनसे ज्ञान लीजिए। मोल करना है तो तलवार का करो म्यान को पड़ी रहने दो।

ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।।

भावार्थ: कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि अब तक जो समय गुजारा है वो व्यर्थ गया, ना कभी सज्जनों की संगति की और ना ही कोई अच्छा काम किया। प्रेम और भक्ति के बिना इंसान पशु के समान है और भक्ति करने वाला इंसान के ह्रदय में भगवान का वास होता है।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das

प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए ।
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और नाही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीशक्रोध, काम, इच्छा, भय त्यागना होगा।

जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही ।
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं।

पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।

Kabir Das Ji Ke Dohe

प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ।।

भावार्थ: जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीशकाम, क्रोध, भय, इच्छा तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।

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कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।।

भावार्थ: कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ।।

भावार्थ: शांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।

माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए ।
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि मक्खी पहले तो गुड़ से लिपटी रहती है। अपने सारे पंख और मुंह गुड़ से चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे अफ़सोस होता है। ठीक वैसे ही इंसान भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और अंत समय में अफ़सोस होता है।

Kabir Das

ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार ।
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ये संसार तो माटी का है, आपको ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा।

कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार ।
साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कड़वे बोल बोलना सबसे बुरा काम है, कड़वे बोल से किसी बात का समाधान नहीं होता। वहीँ सज्जन विचार और बोल अमृत के समान हैं।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।

कागा का को धन हरे, कोयल का को देय ।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ।।

भावार्थ: कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि कौआ किसी का धन नहीं चुराता लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीँ कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये फर्क है बोली का – कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि तिनके को पाँव के नीचे देखकर उसकी निंदा मत करिये क्यूंकि अगर हवा से उड़के तिनका आँखों में चला गया तो बहुत दर्द करता है। वैसे ही किसी कमजोर या गरीब व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि।
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं।।

भावार्थ: कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि जैसे आँख के अंदर पुतली है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा है। मूर्ख लोग नहीं जानते और बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।

भावार्थ: इंसान की फितरत कुछ ऐसी है कि दूसरों के अंदर की बुराइयों को देखकर उनके दोषों पर हँसता है, व्यंग करता है लेकिन अपने दोषों पर कभी नजर नहीं जाती जिसका ना कोई आदि है न अंत।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।

भावार्थ: कबीरदास जी इस दोहे में बताते हैं कि छोटी से छोटी चीज़ की भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए क्यूंकि वक्त आने पर छोटी चीज़ें भी बड़े काम कर सकती हैं। ठीक वैसे ही जैसे एक छोटा सा तिनका पैरों तले कुचल जाता है लेकिन आंधी चलने पर अगर वही तिनका आँखों में पड़ जाये तो बड़ी तकलीफ देता है।

Kabir Das

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

भावार्थ: कबीरदास जी (Kabir Das Ji) कहते हैं कि ज्यादा बोलना अच्छा नहीं है और ना ही ज्यादा चुप रहना भी अच्छा है जैसे ज्यादा बारिश अच्छी नहीं होती लेकिन बहुत ज्यादा धूप भी अच्छी नहीं है।

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।

भावार्थ: केवल कहने और सुनने में ही सब दिन चले गये लेकिन यह मन उलझा ही है अब तक सुलझा नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि यह मन आजतक चेता नहीं है यह आज भी पहले जैसा ही है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।

भावार्थ: हिन्दूयों के लिए राम प्यारा है और मुस्लिमों के लिए अल्लाह रहमान प्यारा है। दोनों राम रहीम के चक्कर में आपस में लड़ मिटते हैं लेकिन कोई सत्य को नहीं जान पाया।

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत ।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ।।

भावार्थ: सज्जन पुरुष किसी भी परिस्थिति में अपनी सज्जनता नहीं छोड़ते चाहे कितने भी दुष्ट पुरुषों से क्यों ना घिरे हों। ठीक वैसे ही जैसे चन्दन के वृक्ष से हजारों सर्प लिपटे रहते हैं लेकिन वह कभी अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

भावार्थ: जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका भावार्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।।

भावार्थ: यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।।

भावार्थ: इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।

ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।।

भावार्थ: कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

Kabir Das Ji Ke Dohe

मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।।

भावार्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।

भावार्थ: देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।

हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।।

भावार्थ: पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है।सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? भावार्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है। निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?

Kabir Das Ji Ke Dohe

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय।।

भावार्थ: एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा। हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते !

कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उस अतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।

Kabir Das

मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।।

भावार्थ: मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है।

जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ।।

भावार्थ: जो जाता है उसे जाने दो। तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो। यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

Kabir Das Ji Ke Dohe

मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि।।

भावार्थ: मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता ।

यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ।।

भावार्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था।जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया। कुछ भी हाथ नहीं आया।

मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि।।

भावार्थ: अहंकार बहुत बुरी वस्तु है। हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ। मित्र, रूई में लिपटी इस अग्नि – अहंकार – को मैं कब तक अपने पास रखूँ?

Kabir Das Ji Ke Dohe

जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ।।

भावार्थ: जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं। प्रेम जीवन की सार्थकता है। प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है।

लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।।

भावार्थ: घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं। हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो? संसार में जीवन कठिन है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं।

Kabir Das

इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव।।

भावार्थ: इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और रक्त से तेल की तरह सींचूं – इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाऊंगा? ईश्वर से लौ लगाना उसे पाने की चाह करना उसकी भक्ति में तन-मन को लगाना एक साधना है तपस्या है – जिसे कोई कोई विरला ही कर पाता है !

नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ।।

भावार्थ: हे प्रिय ! प्रभु तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं ! फिर न तो मैं किसी दूसरे को देखूं और न ही किसी और को तुम्हें देखने दूं !

कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई ।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता। जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?

Kabir Das Ji Ke Dohe

सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं – उनपर कौए बैठने लगे हैं। हमेशा एक सा समय तो नहीं रहता ! जहां खुशियाँ थी वहां गम छा जाता है जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है – यह इस संसार में होता है !।

कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास ।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास।।

भावार्थ: कबीर कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊंचाइयां और आप भी धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से घास उगने लगेगी ! वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है ! इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए।

जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि ।।

भावार्थ: जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे। जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर – उसे ही याद रख – उसे ही संवार सुन्दर बना।

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Kabir Das

बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत ।।

भावार्थ: रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया। कुछ खेत अब भी बचा है – यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ – उसे बचा लो ! जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गँवा देता है – उसे खबर भी नहीं लगती – नुक्सान हो चुका होता है – यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नुक्सान से बच सकते हैं !

इसलिए जागरूक होना है हर इंसान को – जैसे पराली जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में भयंकर वायु प्रदूषण से बचते पर – अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत !

कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार ।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया – उसकी ईंट ईंट – अर्थात शरीर का अंग अंग – शैवाल अर्थात काई में बदल गई। इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि।।

भावार्थ: यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ – इसे संभाल लो ! जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं – इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो – कुछ सार्थक भी कर लो ! जीवन को कोई दिशा दे लो – कुछ भले काम कर लो !

हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि ।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि।।

भावार्थ: यह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं। इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं।

तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ।।

भावार्थ: तेरा साथी कोई भी नहीं है। सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति – भरोसा – मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता। भावार्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है – तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है !

मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास ।।

भावार्थ: ममता और अहंकार में मत फंसो और बंधो – यह मेरा है कि रट मत लगाओ – ये विनाश के मूल हैं – जड़ हैं – कारण हैं – ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े ।।

भावार्थ: मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?

हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई ।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई ।।

भावार्थ: ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु – वासनाओं की मलिनता के कारण – मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड सकता जब मन का संशय मिट जाए !

करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ।।

भावार्थ: यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है – फिर आम खाने को कहाँ से मिलें ?

मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ।।

भावार्थ: मन की इच्छा छोड़ दो।उन्हें तुम अपने बल पर पूरा नहीं कर सकते। यदि जल से घी निकल आवे, तो रूखी रोटी कोई भी न खाएगा!

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ ।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे। सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह।
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ।।

भावार्थ: जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है। पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है।

करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ।।

भावार्थ: प्रभु में गुण बहुत हैं – अवगुण कोई नहीं है।जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं।

कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ ।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है – चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है । लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बडेपन – बड़प्पन के कारण डूब जाता है। इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए। संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – आपने गर्व में ही न रहना चाहिए ।

क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात।।

भावार्थ: यह संसार काजल की कोठरी है, इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं। पंडितों ने पृथ्वीपर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फल होई ।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई ।।

भावार्थ: कबीर (Kabir Das Ji) कहते हैं कि साधु की संगति कभी निष्फल नहीं होती। चन्दन का वृक्ष यदि छोटा – वामन – बौना भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा। वह सुवासित ही रहेगा और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा। आपने आस-पास को खुशबू से ही भरेगा

जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु ।।

भावार्थ: जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं हे भगवान् ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना।

मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ।।

भावार्थ: मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया।

Kabir Das Ji Ke Dohe

तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो ।जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों !

काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ।।

भावार्थ: शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम करते हो – इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल अर्थात मृत्यु उस पर हँसता है ! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है ! कितनी दुखभरी बात है।

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ।।

भावार्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है। जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं !

तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी ।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे ।।

भावार्थ: तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है। किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ। कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी। मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे।

Kabir Das Ji Ke Dohe

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ।।

भावार्थ: जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ। जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले। जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ – तब अहम स्वत: नष्ट हो गया। ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अहंकार गया। प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता – प्रेम की संकरी – पतली गली में एक ही समा सकता है – अहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है।

पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट।।

भावार्थ: ज्ञान से बड़ा प्रेम है – बहुत ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए – तो क्या पाया? यदि ज्ञान मनुष्य को रूखा और कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं। जिस मानव मन को प्रेम ने नहीं छुआ, वह प्रेम के अभाव में जड़ हो रहेगा। प्रेम की एक बूँद – एक छींटा भर जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है।

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ।।

भावार्थ: सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठ जाता है। उससे यह न पूछो की वह किस जाति का है साधु कितना ज्ञानी है यह जानना महत्वपूर्ण है। साधु की जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान है। तलवार की धार ही उसका मूल्य है – उसकी म्यान तलवार के मूल्य को नहीं बढाती।

साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ।।

भावार्थ: साधु का मन भाव को जानता है, भाव का भूखा होता है, वह धन का लोभी नहीं होता जो धन का लोभी है वह तो साधु नहीं हो सकता !

पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल ।।

भावार्थ: बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके?

Kabir Das Ji Ke Dohe

हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार ।।

भावार्थ: दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है। समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है। जब सब का अंत यही हो तो पनी पुकार किसको दू? किससे गुहार करूं – विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं ! सभी का अंत एक है !

रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।
हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ।।

भावार्थ: रात सो कर बिता दी, दिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य विषयों की – कामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दिया – इससे दुखद क्या हो सकता है ?

मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ।।

भावार्थ: बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है – उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।।

भावार्थ: देह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है। अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है !

हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ।।

भावार्थ: हीरे की परख जौहरी जानता है – शब्द के सार– असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता है । कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत – अधिक गहन गंभीर है !

एकही बार परखिये ना वा बारम्बार ।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार।।

भावार्थ: किसी व्यक्ति को बस ठीक ठीक एक बार ही परख लो तो उसे बार बार परखने की आवश्यकता न होगी। रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर न होगी – इसी प्रकार मूढ़ दुर्जन को बार बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा वैसा ही मिलेगा। किन्तु सही व्यक्ति की परख एक बार में ही हो जाती है !

Kabir Das

पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ।।

भावार्थ: पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है। चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों न हो। फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है !

कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।।

भावार्थ: जब तक यह देह है तब तक तू कुछ न कुछ देता रह। जब देह धूल में मिल जायगी, तब कौन कहेगा कि ‘दो’।

देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह।।

भावार्थ: मरने के पश्चात् तुमसे कौन देने को कहेगा ? अतः निश्चित पूर्वक परोपकार करो, यही जीवन का फल है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह।।

भावार्थ: जो गाँठ में बाँध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा। नर-शरीर के पश्चात् इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले-लो।

धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।।

भावार्थ: धर्म परोपकार, दान सेवा करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटना नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।

कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।।

भावार्थ: उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट दुष्टोंतथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।

कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।।

भावार्थ: गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’।

Kabir Das Ji Ke Dohe

Sant Kabir Das Ji Ke Dohe

कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।।

भावार्थ: अपने को सर्वोपरि मानने वाले अभिमानी सिध्दों के स्थान पर भी मत जाओ। क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे, बारम्बार नाम पूछते रहेंगे।

इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति।
कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति।।

भावार्थ: उपास्य, उपासना-पध्दति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीँ पर जाना सन्तों को प्रियकर होना चाहिए।

कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर।
इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर।।

भावार्थ: सन्तों के साधी विवेक-वैराग्य, दया, क्षमा, समता आदि का दल जब परिपूर्ण रूप से ह्रदय में आया। तब सन्तों ने इद्रियों को रोककर शरीर की व्याधियों को धूल कर दिया। भावार्थात् तन-मन को वश में कर लिया।

गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।

भावार्थ: गाली से झगड़ा सन्ताप एवं मरने मारने तक की बात आ जाती है। इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त हो चलता है, वह सन्त है, और गाली गलौच एवं झगड़े में जो व्यक्ति मरता है, वह नीच है।

Kabir Das Ji Ke Dohe

बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।

भावार्थ: हे दास ! तू सद्गुरु की सेवा कर, तब स्वरूप-साक्षात्कार हो सकता है। इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर फिर से बारम्बार न मिलेगा।

बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच।
बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।।

भावार्थ: हे नीच मनुष्य ! सुन, मैं बारम्बार तेरे से कहता हूं। जैसे व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मार जाता है। वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा।

मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय।
है है है है है रही, पूँजी गयी बिलाय।।

भावार्थ: मन-राजा बड़ा भारी व्यापारी बना और विषयों का टांडा बहुत सौदा जाकर लाद लिया। भोगों-एश्वर्यों में लाभ है-लोग कह रहे हैं, परन्तु इसमें पड़कर मानवता की पूँजी भी विनष्ट हो जाती है।

Kabir Das

बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।।

भावार्थ: सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है। इस प्रकार इस प्रकार यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय – प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है।

जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश।
तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।।

भावार्थ: शरीर रहते हुए तो कोई यथार्थ ज्ञान की बात समझता नहीं, और मार जाने पर इन्हे कौन उपदेश करने जायगा। जिसे अपने तन मन की की ही सुधि – बूधी नहीं हैं, उसको क्या उपदेश किया?

जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।।

भावार्थ: जिस भ्रम तथा मोह की रस्सी से जगत के जीव बंधे है। हे कल्याण इच्छुक ! तू उसमें मत बंध। नमक के बिना जैसे आटा फीका हो जाता है। वैसे सोने के समान तुम्हारा उत्तम नर – शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा हैं।

Kabir Das Ji Ke Dohe

पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

भावार्थ: संत कबीरदासजी कहते हैं की बड़ी बड़ी क़िताबे पढ़कर कितने लोग दुनिया से चले गये लेकिन सभी विद्वान नहीं बन सके। कबीरजी का यह मानना हैं की कोई भी व्यक्ति प्यार को अच्छी तरह समझ ले तो वही दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञानी होता हैं।

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साधू ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय।
सार – सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।

भावार्थ: जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता हैं वैसे इस दुनिया में सज्जनों की जरुरत हैं जो सार्थक चीजों को बचा ले और निरर्थक को चीजों को निकाल दे।

तिनका कबहूँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
कबहूँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।

भावार्थ: अपने इस दोहे में संत कबीरदासजी कहते हैं की एक छोटे तिनके को छोटा समझ के उसकी निंदा न करो जैसे वो पैरों के नीचे आकर बुझ जाता हैं वैसे ही वो उड़कर आँख में चला जाये तो बहोत बड़ा घाव देता हैं।

Kabir Das Ji Ke Dohe

माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

भावार्थ: जब कोई व्यक्ति काफ़ी समय तक हाथ में मोती की माला लेकर घुमाता हैं लेकिन उसका भाव नहीं बदलता। संत कबीरदास ऐसे इन्सान को एक सलाह देते हैं की हाथ में मोतियों की माला को फेरना छोड़कर मन के मोती को बदलो।

जाति न पूछो साधू की, पुच लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।

भावार्थ: सज्जन और ज्ञानी की जाति पूछने अच्छा हैं की उसके ज्ञान को समझना चाहिए। जैसे तलवार का किमत होती हैं ना की उसे ढकने वाले खोल की।

Kabir Das Ji Ke Dohe

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।

भावार्थ: कबीर दास जी (Kabir Das Ji) कहते कि साधू हमेशा करुणा और प्रेम का भूखा होता और कभी भी धन का भूखा नहीं होता। और जो धन का भूखा होता है वह साधू नहीं हो सकता।

जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते है कि हम जैसा भोजन करते है वैसा ही हमारा मन हो जाता है और हम जैसा पानी पीते है वैसी ही हमारी वाणी हो जाती है।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय ।।

भावार्थ: गुरु और भगवान दोनों मेरे सामने खड़े हैं मैं किसके पाँव पड़ूँ ? क्यूंकि दोनों दोनों हीं मेरे लिए समान हैं । कबीर जी कहते हैं कि यह तो गुरु कि हीं बलिहारी है जिन्होने हमे परमात्मा की ओर इशारा कर के मुझे गोविंद (ईश्वर) के कृपा का पात्र बनाया ।

Kabir Das

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥

भावार्थ: कबीरदास जी ने कहा है की हे प्राणी, चारो तरफ ईश्वर के नाम की लूट मची है, अगर लेना चाहते हो तो ले लो, जब समय निकल जाएगा तब तू पछताएगा । अर्थात जब तेरे प्राण निकल जाएंगे तो भगवान का नाम कैसे जप पाएगा ।

कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं की वे नर अंधे हैं जो गुरु को भगवान से छोटा मानते हैं क्यूंकि ईश्वर के रुष्ट होने पर एक गुरु का सहारा तो है लेकिन गुरु के नाराज होने के बाद कोई ठिकाना नहीं है ।

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय ।
इक दिन ऐसा आएगा, मै रौंदूंगी तोय ॥

भावार्थ: मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे क्या रौंदता है । एक दिन ऐसा आएगा कि मै तुझे रौंदूंगी । अर्थात मृत्यु के पश्चात मनुष्य का शरीर इसी मिट्टी मे मिल जाएगा ।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥

भावार्थ: जो कल करना है उसे आज कर और जो आज करना है उसे अभी कर । समय और परिस्थितियाँ एक पल मे बदल सकती हैं, एक पल बाद प्रलय हो सकती हैं अतः किसी कार्य को कल पर मत टालिए । 

Kabir Das

दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की साँस सों, लोह भस्म हो जाय ॥

भावार्थ: कमजोर को कभी नहीं सताना चाहिए जिसकी हाय बहुत बड़ी होती है जैसा आपने देखा होगा बिना जीव (प्राणहीन) की धौंकनी (आग को हवा देने वाला पंखा) की साँस से लोहा भी भस्म हो जाता है ।

कबीरा जपना काठ कि, क्या दिखलावे मोय ।
हृदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं की इस लकड़ी की माला से ईश्वर का जाप करने से क्या होता है ? यह क्या असर दिखा सकता है ? यह मात्र दिखावा है और कुछ नहीं । जब तक तुम्हारा मन (हृदय) ईश्वर का जाप नहीं करेगा तब तक जाप करने का कोई फायदा नहीं ।

राम रहे वन भीतरे, गुरु की पूजी न आस ।
कहे कबीर पाखंड सब, झूठे सदा निराश ॥

भावार्थ: बिना गुरु की सेवा किए और बिना गुरु की शिक्षा के जिन झूठे लोगों ने यह जान लिया है कि राम वन में रहते हैं अतः परमात्मा को वन में प्राप्त किया जा सकता है । कबीर दास जी कहते हैं कि यह सब पाखंड है । झूठे लोग कभी भी परमात्मा को ढूँढ नहीं सकते हैं । वे सदा निराश हीं होंगे ।

Kabir Das

कहना था सो कह चले, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥

भावार्थ: मुझे जो कहना था वो मैंने कह दिया और अब जा रहा हूँ, मुझसे अब कुछ और कहा नहीं जाता । एक ईश्वर के अलावा सब नश्वर है और हम सब इस संसार को छोड़ कर चले जायेंगे । लहरें कितनी भी ऊंची उठ जाएँ वो वापस नदी में हीं आकार उसमें समा जाएँगी ठीक उसी प्रकार हम सब को परमात्मा के पास वापस लौट जाना है ।

साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं – साधू को सूप के समान होना चाहिए, जिस प्रकार सूप अनाज के दानों को अपने पास रख लेता है और छिलकों को हवा में उड़ा देता है । उसी प्रकार साधू (ईश्वर कि भक्ति करने वाला) को सिर्फ ईश्वर का ध्यान करना चाहिए व्यर्थ के माया मोह का त्याग कर देना चाहिए ।

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥

भावार्थ: जो प्रेम का प्याला पीता है वह अपने प्रेम के लिए बड़ी से बड़ी आहूति देने से भी नहीं हिचकता, वह अपने सर को भी न्योछावर कर देता है । लोभी अपना सिर तो दे नहीं सकता, अपने प्रेम के लिए कोई त्याग भी नहीं कर सकता और नाम प्रेम का लेता है ।

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते है कि न तो शीतलता चंद्रमा में है न ही शीतलता बर्फ में है वही सज्जन शीतल हैं जो परमात्मा के प्यारे हैं अर्थात वास्तविकता मन की शांति ईश्वर-नाम में है ।

Kabir Das

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ।।

भावार्थ: लोगों का स्वार्थ देखकर मनरूपी आकाश फट गया । उसे दर्जी क्योंकर सी सकता है! वह तो तब ही ठीक हो सकता है जब कोई हृदय का मर्म जानने वाला मिले ।

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर मैं (अहंकार) था तब परमात्मा नहीं था, अब परमात्मा है तो अहंकार मिट गया यानी परमात्मा के दर्शन से अहंकार मिट जाता है ।

ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाये ।।

भावार्थ: पानी ऊँचे पर नहीं ठहरता है वह नीचे ही फैलता है । जो नीचा झुकता है वह भर पेट पानी पी लेता है, जो ऊँचा ही खड़ा रहे वह प्यासा रह जाता है ।

काया काठी काल धुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैद्य ईश बस, मर्म न काहू पाय ।।

भावार्थ: शरीर रूपी काठ को काल रूपी धुन की तरह से खाये जा रहे हैं । लेकिन इस शरीर में भगवान भी रहते हैं यह भेद कोई बिरला ही जानता है ।

कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ।।

भावार्थ: हे कबीर! यह तेरा तन जा रहा है इसे ठिकाने लगा ले यानी सारे जीवन की मेहनत तेरी व्यर्थ जा रही है । इसे संत सेवा और गोविंद का भजन करके अच्छा बना ले ।

Kabir Das

आस पराई राखत, खाया घर का खेत ।
औरन को पत बोधता, मुख में पड़ा रेत ।।

भावार्थ: तू दूसरों की रखवाली करता है और अपने घर को नहीं देखता यानि तू दूसरों को ज्ञान सिखाता है और स्वयं क्यों नहीं परमात्मा का भजन करता ।

आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ।।

भावार्थ: जब मन में प्रेम की अग्नि लग जाती है तो दूसरा उसे क्यों जाने ? या तो वह जानता है जिसके मन से अग्नि लगी है या आग लगाने वाला जानता है ।

ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊंच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ।।

भावार्थ: यदि सोने के कलश में शराब है तो संत उसे बुरा कहेंगे । इस प्रकार कोई ऊँचे कुल में पैदा होकर बुरा कर्म करे तो वह भी बुरा होता है ।

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ।।

भावार्थ: यदि तुम्हारे मन में शांति है तो संसार में तुम्हारा कोई बैरी नहीं । यदि तू घमंड करना छोर दे तो सब तेरे ऊपर दया करेंगे !

एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा ही रहे, रहें कबीर विचार ।।

भावार्थ: मैं उसे एक कहूँ तो सब जगत दिखता है और यदि दो कहूँ तो बुराई है । हे कबीर! बस विचार यही कहता हूँ कि जैसा है वैसा ही रह ।

Kabir Das

भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ।।

भावार्थ: तू अपने आपको भूखा-भूखा कहकर क्या सुनाता है, लोग क्या तेरा पेट भर देंगे । याद रख, जिस परमात्मा ने तुझे शरीर और मुँह दिया है वही तेरे काम पूर्ण करेगा ।

साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ।।

भावार्थ: साधु, सती, सूरमा की बातें न्यारी हैं । यह अपने जीवन की परवाह नहीं करते हैं इसलिए इनमें साधन भी अधिक हैं ।साधारण जीव उनकी समानता नहीं कर सकता ।

आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
औरन को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ।।

भावार्थ: तू दूसरों की रखवाली करता है अपनी नहीं यानि तू दूसरों को ज्ञान सिखाता है और स्वयं क्यों नहीं परमात्मा का भजन करता है ।

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ।।

भावार्थ: मन से घमंड को बिसार कर ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जो दूसरों को शीतल करे और मनुष्य आप भी शांत हो जाये ।

कबीरा गरब न कीजिए, कबहुँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, का जानै का होय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य को कभी भी अपने ऊपर गर्व (घमंड)नहीं करना चाहिए और कभी भी किसी का उपहास नहीं करना चाहिए, क्योंकि आज भी हमारी नाव समुद्र में है । पता नहीं क्या होगा (डूबती है या बचती है) ।

Kabir Das

काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि इस पंच तत्व शरीर का क्या भरोसा है किस क्षण इसके अंदर रहने वाली प्राण वायु इस शरीर को छोड़कर चली जावे । इसलिए जितनी बार यह सांस तुम लेते हो दिन में उतनी बार भगवान के नाम का स्मरण करो कोई यत्न नहीं है ।

कबीर मन पंछी भया,भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मेरा मन एक पक्षी के समान है, जिस प्रकार के वृक्ष पर बैठेगा वैसे ही फल का आस्वादन करेगा । इसलिए हे प्राणी, तू जिस प्रकार की संगति में रहेगा तेरा हृदय उसी प्रकार के कार्य करने की अनुमति देगा ।

करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बाबुल का, आम कहाँ से खाय ।।

भावार्थ: कार्य को विचार कर करना चाहिए, जिस प्रकार बबूल का पेड़ बो कर आम खाने की इच्छा की जाय वह निष्फल रहेगी बगैर विचारे कार्य करके फिर पछचात्ताप नहीं करना चाहिए ।

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ।।

भावार्थ: भगवान प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में विद्यमान है परंतु सांसारिक प्राणी उसे देख नहीं पाता है । जिस प्रकार मृग की नाभि में कस्तूरी रहती है | परंतु वह उसे पाने के लिए इधर-उधर भागता है पर पा नहीं सकता और अंत में मर जाता है ।

कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि स्वयम को ठगना उचित है । किसी को ठगना नहीं चाहिए । अपने ठगने से सुख प्राप्त होता है और औरों को ठगने से अपने को दुख होता है ।

Kabir Das

खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ।।

भावार्थ: जो बलवान है वह दो सेनाओं के बीच भी लड़ता रहेगा उसे अपने मरने की चिंता नहीं और वो मैदान छोड़कर नहीं भागेगा ।।

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ।।

भावार्थ: चलती हुई चक्की को देखकर कबीर रोने लगे कि दोनों पाटों के बीच में आकर कोई भी दाना साबुत नहीं बचा अर्थात इस संसार रूपी चक्की से निकलकर कोई भी प्राणी अभी तक निष्कलंक (पापरहित) नहीं गया है ।

जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बांकू है तिरशूल ।।

भावार्थ: कबीर जी कहते हैं कि जीव यदि तेरे लिए कोई कांटे बोवे तो तू उसको फूल बो अर्थात हे प्राणी तेरे साथ में कोई बदी करे तो तू उसके साथ नेकी कर अर्थात मेरे लिए तेरा सदव्यवहार है और किसी का तेरे लिए किया हुआ । दुर्व्यवहार पुनः उसके लिए कांटा है ।

जल में बर्से कमोदनी, चन्दा बसै अकास ।
जो है जाको भावना, सो ताही के पास ।।

भावार्थ: जो आदमी जिसके प्रिय होता है वह उसके पास रहता है, जिस प्रकार कुमुदनी जल में रहने पर भी चंद्रमा से प्रेम करने के कारण उसकी चाँदनी में ही मिलती है ।

जो जन भीगे राम रस, विगत कबहूँ ना रुख ।
अनुभव भाव न दरसे, वे नर दुःख ना सुख ।।

भावार्थ: जिस तरह सूखा पेड़ नहीं फलता इसी तरह राम के बिना कोई नहीं फल-फूल सकता । जिसके मन में रामनाम के सिवा दूसरा भाव नहीं है उनको सुख-दुख का बन्धन नहीं है ।

तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब बिधिपाइये, जो मन जोगी होय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर से तो सभी योगी हो जाते हैं, परंतु मन से बिरला ही योगी होता है, जो आदमी मन से योगी हो जाता है वह सहज ही में सब कुछ पा लेता है ।

Kabir Das

न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ।।

भावार्थ: नहाने और धोने से क्या लाभ । जब कि मन का मैल (पाप) दूर न होवे । जिस प्रकार मछ्ली सदैव पानी में जिंदा रहती है और उसको धोने पर भी उसकी दुर्गन्ध दूर नहीं होती है ।

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय ।
एकै आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

भावार्थ: पुस्तकों को अध्ययन करते-करते जाने कितने व्यक्ति मर गए परंतु कोई पंडित न हुआ । प्रेम शब्द मोक्ष के पढ़ने से व्यक्ति पंडित हो जाता है क्योंकि सारे विश्व की सत्ता एवं महत्ता प्रेम पर ही अवलम्बित है । जो व्यक्ति प्रेम के महत्व को समुचित रूप से समझने में सफलीभूत होगा उसे सारे संसार के प्राणी एक अपूर्व बन्धुत्व के सूत्र में आबद्ध दिखाई पड़ेंगे और उसके हृदय में हिंसक भावनायें नष्ट हो जाएँगी तथा वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जागृत होगा ।

पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष वनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ।।

भावार्थ: पत्ता वृक्ष को सम्बोधन करता हुआ कहता है कि हे वनराय अब के वियोग होने पर न जाने कहाँ पर हम पहुँचें तुमको छोड़कर । फिर जाने मिलना हो या नहीं । भाव यह है कि हे जीव, इस संसार में मनुष्य योनि को छोड़ कर कर्मों के अनुसार न जाने कौन-सी योनि प्राप्त होगी । इसलिए मनुष्य योनि में ही भगवान का स्मरण प्रत्येक समय कर ले ।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ।।

भावार्थ: बड़े होने से क्या लाभ, जैसे खजूर का पेड़ इतना बड़ा होता है कि जिससे पंछी को न तो छाया ही मिलती है और न फल ही मिलता है अर्थात बड़े आदमी जो अपनी महानता का उपयोग नहीं करते हैं, व्यर्थ है ।

Kabir Das

माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ।।

भावार्थ: काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि माया के रूप हैं । यह माया प्रत्येक व्यक्ति को इस संसार में ठगती है तथा जिसने माया रूपी ठगनी को ठग लिया है वही आदेश रूप में आत्मा है ।

माली आवत देख के, कलियन करी पुकार ।
फूले-फूले चुन लिए, काल हमारी बार ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि माली (काल) को आते देख कर कलियाँ (जीवात्मा) कहती हैं कि आज वाटिका के रक्षक ने खिले-खिले पुष्पों को चुन लिया है कल हमारा भी नम्बर आने वाला है ।

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।
जो सुख साधु संग में, सो बैकुंठ न होय ।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जब मेरे को लाने हेतु राम (भगवान) ने बुलावा भेजा उस समय मुझसे रोना ही बना क्योंकि जिस सुख की अनुभूति साधुओं के सतसंग से प्राप्त होती है वह बैकुंठ में नहीं है । अर्थात सतसंग से बड़ा सुख कुछ नहीं है ।

वैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ।।

भावार्थ: वैध्य, रोगी तथा संसार नाशवान होने के कारण उनका रूप रूपांतर हो जाता है, परंतु जो प्राणी, अविनाशी ब्रह्म जो अमर है तथा अनित्य है उसके आसक्त है वे सदा अमर रहते हैं ।

निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि निंदकहमेशा दूसरों की बुराइयां करने वाले लोगों को हमेशा अपने पास रखना चाहिए, क्यूंकि ऐसे लोग अगर आपके पास रहेंगे तो आपकी बुराइयाँ आपको बताते रहेंगे और आप आसानी से अपनी गलतियां सुधार सकते हैं। इसीलिए कबीर जी ने कहा है कि निंदक लोग इंसान का स्वभाव शीतल बना देते हैं।

Kabir Das

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि मैं सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में लगा रहा लेकिन जब मैंने खुद अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई इंसान नहीं है। मैं ही सबसे स्वार्थी और बुरा हूँ भावार्थात हम लोग दूसरों की बुराइयां बहुत देखते हैं लेकिन अगर आप खुद के अंदर झाँक कर देखें तो पाएंगे कि हमसे बुरा कोई इंसान नहीं है।

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।।

भावार्थ: जब कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिटटी को रौंद रहा था, तो मिटटी कुम्हार से कहती है – तू मुझे रौंद रहा है, एक दिन ऐसा आएगा जब तू इसी मिटटी में विलीन हो जायेगा और मैं तुझे रौंदूंगी।

जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश ।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ।।

भावार्थ: कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।

Kabir Das

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि एक सज्जन पुरुष में सूप जैसा गुण होना चाहिए। जैसे सूप में अनाज के दानों को अलग कर दिया जाता है वैसे ही सज्जन पुरुष को अनावश्यक चीज़ों को छोड़कर केवल अच्छी बातें ही ग्रहण करनी चाहिए।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकारमैं था, तब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास है तो मैंअहंकार नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है।

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए ।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती, मछली में तेज बदबू आती है।

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि लोग बड़ी से बड़ी पढाई करते हैं लेकिन कोई पढ़कर पंडित या विद्वान नहीं बन पाता। जो इंसान प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ लेता है वही सबसे विद्वान् है।

Kabir Das

आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर ।
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो इस दुनियां में आया है उसे एक दिन जरूर जाना है। चाहे राजा हो या फ़क़ीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे।

लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट ।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ये संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा।

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।।

भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनियां रोये और हम हँसे।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

Kabir Das

भावार्थ: जो लोग लगातार प्रयत्न करते हैं, मेहनत करते हैं वह कुछ ना कुछ पाने में जरूर सफल हो जाते हैं। जैसे कोई गोताखोर जब गहरे पानी में डुबकी लगाता है तो कुछ ना कुछ लेकर जरूर आता है लेकिन जो लोग डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रहे हैं उनको जीवन पर्यन्त कुछ नहीं मिलता।

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।

भावार्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का जन्म मिलना बहुत दुर्लभ है यह शरीर बार बार नहीं मिलता जैसे पेड़ से झड़ा हुआ पत्ता वापस पेड़ पर नहीं लग सकता।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।

भावार्थ: जो व्यक्ति अच्छी वाणी बोलता है वही जानता है कि वाणी अनमोल रत्न है। इसके लिए हृदय रूपी तराजू में शब्दों को तोलकर ही मुख से बाहर आने दें।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।

भावार्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

Kabir Das

कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह।।

भावार्थ: थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है। चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए।

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा – जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खुश हाल हो गया – यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है ! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते !

Kabir Das

कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है। स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है। हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है।

कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ।।

भावार्थ: यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं।यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा। शरीर नश्वर है – जतन करके मेहनत करके उसे सजाते हैं तब उसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं किन्तु सत्य तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है – अचानक ऐसे कि हम जान भी नहीं पाते !

कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार ।
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार !।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं जिनके सर पर विषय वासनाओं का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं – संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं।

माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ।।

भावार्थ: न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका। आशा, तृष्णा कभी नहीं मरती – ऐसा कबीर कई बार कह चुके हैं।

Kabir Das

मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ।।

भावार्थ: मूर्ख का साथ मत करो।मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है । संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है।

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ।।

भावार्थ: जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं।यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है। ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?

कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानई सो काफिर बेपीर ।।

भावार्थ: कबीर कहते हैं कि सच्चा पीर – संत वही है जो दूसरे की पीड़ा को जानता है जो दूसरे के दुःख को नहीं जानते वे बेदर्द हैं – निष्ठुर हैं और काफिर हैं।

कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ।।

भावार्थ: इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं।

Kabir Das

या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।।

भावार्थ: इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।

ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।।

भावार्थ: मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।।

भावार्थ: ‘आहारशुध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचलित कहावत है और मनुष्य जैसी संगत करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा। अतएव आहाविहार एवं संगत ठीक रखो।

बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और।।

भावार्थ: बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़ कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो। यदि वह कहा-सुना न माने, तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो।

Kabir Das

बुरा जो देखन मैं देखन चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।

भावार्थ: जब मैं इस दुनिया में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। पर फिर जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि दुनिया में मुझसे बुरा और कोई नहीं हैं।

धीरे – धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।

भावार्थ: जैसे कोई आम के पेड़ को रोज बहोत सारा पानी डाले और उसके नीचे आम आने की रह में बैठा रहे तो भी आम ऋतु में ही आयेंगे, वैसेही धीरज रखने से सब काम हो जाते हैं।

आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।

भावार्थ: देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करें और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।

Kabir Das

 

 

॥ समाप्त् ॥

दोस्तों ! पोस्ट में हमने आपको श्री कबीरदास जी के व्यक्तित्व को उनके द्वारा लिखे गये दोहों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। आशा करते हैं कि पोस्ट आपको पसंद आई होगी।
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