Salasar Balaji : श्री सालासर धाम उत्पत्ति कथा व आरती

Salasar Balaji : श्री सालासर धाम उत्पत्ति कथा व आरती।

 

नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट Salasar Balaji में आपका हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, श्री हनुमान जी के कई स्वरूप हैं वे अपनी बाल्यवस्था में भांति-भांति की लीला करते हैं तो अपनी युवावस्था में श्रीराम के महान सेवक बनकर असंभव-से-असंभव कार्यों को भी संभव कर डालते हैं।

उनकी अनन्य भक्ति भावना से प्रसन्न होकर श्री राम तथा माता जानकी ने उन्हें चारों युगों में अमर रहने का वरदान प्रदान किया। कलियुग में तो इनकी मान्यता देश ही नहीं अपितु विदेशों तक में विख्यात है। आज की पोस्ट में हम इन्हीं हनुमान जी के एक रूप श्री सालासर हनुमान जी के संबंध में जानकारी प्राप्त करेंगे। कैसे आज सालासर धाम पूरे देश में तथा विदेशों में भी आस्था के विशाल केन्द्र के रूप में उभरा है। साथ ही हम जानेंगे धाम की उत्पत्ति कथा, आरती तथा अन्य विस्तृत जानकारियां। तो आईये, पोस्ट Salasar Balaji शुरू करते हैं।

 

Salasar Balaji Story: सालासर बाला जी धाम प्राचीन कथा

 

Salasar Balaji

 

राजस्थान राज्य के सीकर निवासी मोहनदास बचपन से ही संत प्रवृति के तथा श्री बालाजी के अनन्य भक्त थे, उन्होंने बचपन से ही ब्रह्यचर्य व्रत धारण कर रखा था। इस प्रकार उनका पूरा  दिन सत्संग, पूजा-अर्चना तथा भजन-कीर्तन में व्यतीत  होता था। मोहनदास की बहन कान्ही का विवाह सालासर ग्राम में हुआ था। एकमात्र पुत्र उदय के जन्म के कुछ समय पश्चात ही वह विधवा हो गई। इसलिये मोहनदास जी अपनी बहन और भांजे को सहारा देने के लिये सालासर आकर उन दोनों के साथ रहने लगे तथा खेती का कार्य देखने लगे Salasar Balaji Dham।

एक दिन मामा-भांजे दोनों मिलकर खेत मेे कृषि का कार्य कर रहे थे तभी मोहनदास के हाथ से किसी ने गड़ासा छीनकर दूर फेंक दिया। मोहनदास पुनः उठा लाए और कार्य में लग गए । लेकिन पुनः किसी ने गड़ासा छीनकर दूर फेंक दिया, ऐसा कई बार हुआ। उनका भांजा उदय दूर से सब देख रहा था। वह निकट आया तथा कारण पूछा तो मोहनदास जी ने कहा कि कोई उनके हाथ से जबरन गड़ासा छीन कर फेंक रहा है। ऐसा कहकर वे आराम करने लगे और बात आई-गई हो गई।

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एक दिन मोहनदास जी की बहिन कान्ही उन्हें तथा पुत्र को भोजन करा रही थी, तभी द्वार पर किसी याचक ने भिक्षा मांगी। कान्ही को जाने में कुछ देर हो गई। जब वह पहुंची तो उसे एक परछाई मात्र दिखाई दी, पीछे-पीछे मोहनदास जी भी दौड़े आए । उन्हेें सच्चाई ज्ञात थी कि वह तो स्वयं बालाजी थे। कान्ही को अपने विलंब पर बहुत पश्चाताप हुआ। वह मोहनदास जी से बालाजी के दर्शन कराने का आग्रह करने लगी।

मोहनदास जी ने उन्हें धैर्य रखने कि सलाह दी। लगभग डेढ-दो माह पश्चात् किसी साधु ने पुनः नारायण हरि, नारायण हरि का उच्चारण किया, जिसे सुन कान्ही दौड़ी-दौड़ी  मोहनदास जी के पास गई। मोहनदास द्वार पर पहूंचे तो देखते हैं कि वह साधुवेशधारी बालाजी Salasar Balaji ही थे जो अब तक वापस हो लिए थे। मोहनदास तेजी से पीछे दौड़े अैार उनके चरणों में लोट गए । तब बाला जी वास्तविक रूप में प्रकट हुए और बोले मैं जानता हूं मोहनदास तुम सच्चे मन से सदैव मुझे जपते हो। तुम्हारी निश्चल भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूर्ण करूगां बोलो तुम्हारी क्या इच्छा  है ?

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मोहनदास विनयपूर्वक बोले बाबा, आप मेरी बहन कान्ही को दर्शन दीजिए। भक्त वत्सल बालाजी ने आग्रह स्वीकार कर लिया और कहा, मैं पवित्र आसन पर विराजूगां और मिश्री सहित खीर व चूरमे का भेाग स्वीकार करूगां।  भक्त शिरोमणी मोहनदास सप्रेम बालाजी को अपने घर लाए अैार बहन-भाई ने आदर सहित अत्यंत कृतज्ञता से उन्हें  मनपंसद भोजन कराया।

सुंदर और स्वच्छ शय्या पर विश्राम के पश्चात भाई-बहन की निश्चल सेवा से प्रसन्न हो बाला जी ने कहा कि जो भी भक्त श्रद्धा सहित जो कुछ भेंट करेगा, मैं उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण करूगां एवं इस सालासर स्थान पर सदैव निवास करूगां। ऐसा कह बालाजी Salasar Balaji अंर्तध्यान हो गए और भक्त भाई-बहन कृत्य-कृत्य हो उठे।

जब दूर-दूर तक फैली मोहनदास जी की ख्याति

 

एक बार भांजे उदय ने देखा कि मोहनदास जी के शरीर पर पंजों के बड़े-बड़े निशान हैं। उसने पूछा तो वे टाल गए । बाद में ज्ञात हुआ कि बाबा मोहनदास और बाला जी प्रायः मल्ल युद्ध व अन्य तरह की क्रीड़ाएं करते थे और बाला जी का साया सदैव बाबा मोहनदास जी के साथ रहता था। इस तरह की घटनाओं से बाबा मोहनदास की कीर्ति दूर पास के ग्रामों में फैलती चली गई, लोग उनके दर्शन को आने लगे।

Salasar balaji Mandir : मंदिर निर्माण का संकल्प

 

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तत्कालीन सालासर बीकानेर राज्य के अधीन था।  एक दिन वहां के शासक को खबर मिली कि डाकुओं का एक विशाल जत्था लूट-पाट के लिए उस ओर बढ़ा चला आ रहा है। उनके पास इतना भी वक्त नहीं था कि बीकानेर से सैन्य सहायता मंगवा सकते। अतंतः वे बाबा मोहनदास की शरण में पहुंचे और मदद की गुहार लगाई।

बाबा ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा कि बालाजी का नाम लेकर डाकुओं की पताका को उड़ा देना क्योंकि विजय पताका ही किसी भी सेना की शक्ति होती है। उनकी सेना ने वैसा ही किया, बालाजी का नाम लिया और डाकुओं की पताका को तलवार से उड़ा दिया। डाकू सरदार उनके चरणों में आ गिरा, इस तरह मोहनदास जी के प्रति  श्रद्वा बलवती होती चली गई। बाबा मोहनदास ने उसी पल वहां बाला जी की एक भव्य मंदिर बनवाने का संकल्प किया।

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सालासर के ठाकुर सालम सिंह ने भी मंदिर निमार्ण में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय किया और आसोटा निवासी अपने ससुर चंपावत को बालाजी की मूर्ति भेजने का संदेश प्रेशित करवाया।

इधर, आसोटा ग्राम में एक किसान बह्यमुहूर्त में अपना खेत जोत रहा था। एकाएक हल का नीचला हिस्सा किसी वस्तु से टकराया उसे अनुभव हुआ तो उसने खोदकर देखा तो वहां एक मूर्ति निकली। कृषक की पत्नी ने प्रतिमा पर लगी मिट्टी को आदरपूर्वक अपने आंचल से साफ किया तो वहां राम-लक्ष्मण को कंधे पर लिए वीर हनुमान की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। उन दोनों ने काले पत्थर की उस प्रतिमा को उसने एक पेड़ के निकट स्थापित कर दिया।

प्रतिमा पहुंची सालासर

 

इस चमत्कार की खबर आग की तरह सारे गांव में फैल गई। आसोटा के ठाकुर चंपावत भी दर्शन को आए और उस मूर्ति को अपनी हवेली में ले गए। उसी रात ठाकुर को बाला जी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मूर्ति को सालासर पहुंचाने की आज्ञा दी। प्रातः ठाकुर चंपावत ने अपने कर्मचारियों की सुरक्षा में भजन मंडली के साथ सजी-धजी बैलगाड़ी में मूर्ति को सालासार की ओर विदा कर दिया।

उसी रात भक्त शिरोमणी मोहनदास जी को भी बालाजी ने दर्शन दिए और कहा कि मैं अपना वचन निभाने के लिए काले पत्थर की मूर्ति के रूप में आ रहा हूं। प्रात: ठाकुर सालम सिंह वह अनेक ग्रामवासियों ने बाबा मोहनदास जी के साथ मूर्ति का स्वागत किया तथा सन 1754 में शुक्ल नवमी को शनिवार के दिन पूर्ण विधि-विधान से हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना की गई।

जब मूर्ति ने  बदला अपना स्वरूप

 

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श्रावण द्वादशी मंगलवार को भक्त शिरोमणि मोहनदास जी भगवत भजन में इतने लीन हो गए कि उन्होनें घी और सिंदूर से मूर्ति को श्रृंगारित कर दिया तथा उन्हें कुछ ज्ञात भी नहीं हुआ। उस समय बाला जी का पूर्व स्वरूप जिसमें वह श्रीराम और लक्ष्मण को कंधे पर धारण किए थे, अदृश्य हो गया तथा उसके स्थान पर दाढ़ी-मूंछ, मस्तक पर तिलक, विकट भौंहें, सुंदर आंखें, पर्वत पर गदा धारण किए अदभुत रूप के दर्शन होने लगे। इस घटना के बाद मंदिर का विकास कार्य तेजी से होता चला गया।

वर्तमान में कैसा दिखता है यह मंदिर ?

 

वर्तमान में मंदिर के द्वार व दीवारें चांदी विनिर्मित मूर्तियों और चित्रों से सुसज्जित हैं। गर्भगृह के मुख्यद्वार पर श्रीराम दरबार की मूर्ति के नीचे पांच मूर्तियां हैं मध्य में भक्त मोहनदास बैठे हैं, दाएं श्रीराम व हनुमान तथा बाएं बहन कान्ही और पं सुखरामजी बहनोई आशीर्वाद देते दिखाए गए हैं।

वर्ष भर लगा रहता है श्रद्धालुओं का तांता

 

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सालासर में वर्ष भर श्रद्वालुओं का तांता लगा रहता है। मंगल, शनि और प्रत्येक पूर्णिमा को दर्शनार्थी विशेष रूप से आते हैं। यहां प्रति वर्ष तीन बड़े मेले लगते हैं। प्रथम चैत्र शुक्ल चतुरदर्शी, पूर्णिमा को श्री हनुमान जंयती के अवसर पर, द्वितीय आश्विन शुक्ल चतुदर्शी पूर्णिमा को और अंतिम भाद्रपद शुक्ल चतुदर्शी पूर्णिमा को इन मेलों में लाखों श्रद्वालु आते हैं। 

मोहनदास जी की मृत्यु के समय दिये थे प्रत्यक्ष दर्शन

 

कालांतर में मोहनदास जी ने भांजे उदयराम जी को अपना चोला प्रदान कर उन्हें मंदिर का प्रथम पुजारी नियुक्त किया। आज भी यह परंपरा कायम है। मोहनदास जी के चोले पर विराजमान होकर ही पूजा-अर्चना की जाती है। संवत 1850 की वैसाख शुक्ल त्रयोदशी को ब्रह्यमुहूर्त में बाबा मोहनदास जी समाधिस्थ हो गए और स्वर्गारोही हो गए।

 कहते हैं कि उस समय जल की फुहार के साथ पुष्प वर्षा होने लगी थी। अनेक लोगों ने बालाजी के प्रत्यक्ष दर्शन किए थे जो अपने सखा तुल्य मोहनदास जी को आशीष दे रहे थे। आज सालासर salasar rajasthan भक्तों का एक पुनीत तीर्थ है। यहां आने वाले भक्तों को बालाजी के चमत्कार देखने को मिलते हैं। 

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Salasar Balaji Aarti : श्री सालासर बालाजी की आरती

 

जयति जय जय बजरंग बाला, कृपा कर सालासर वाला,

चैत सुदी पूनम को जन्मे, अंजनी पवन खुशी मन में,

प्रकट भए सुर वानर तन में, विदित यश विक्रम त्रिभुवन में,

दूध पीवत स्तन मात के, नजर गई नभ ओर,

तब जननी की गोद से पहुंच, उदयाचल पर भोर,

अरुण फल लखि रवि मुख डाला,

कृपा कर सालासर वाला,

तिमिर भूमण्डल में छाई, चिबुक पर इंद्र वज्र बाए,

तभी से हनुमत कहलाए, द्वय हनुमान नाम पाए,

उस अवसर में रुक गयो, पवन सर्व उन्चास,

इधर हो गयो अंधकार, उत रुक्यो विश्व को श्वास,

भए ब्रह्मादिक बेहाला,

कृपा कर सालासर वाला,

देव सब आए तुम्हारे आगे, सकल मिल विनय करन लागे,

पवन कू भी लाए सांगे, क्रोध सब पवन तना भागे,

सभी देवता वर दियो, अरज करी कर जोड़,

सुनके सबकी अरज गरज, लखि दिया रवि को छोड़,

हो गया जग में उजियाला,

कृपा कर सालासर वाला,

Salasar Balaji

रहे सुग्रीव पास जाई, आ गए वन में रघुराई,

हरी रावण सीतामाई, विकल फिरते दोनों भाई,

विप्र रूप धरि राम को, कहा आप सब हाल,

कपि पति से करवाई मित्रता, मार दिया कपि बाल,

दुःख सुग्रीव तना टाला,

कृपा कर सालासर वाला,

आज्ञा ले रघुपति की धाया, लंक में सिंधु लांघ आया,

हाल सीता का लख पाया, मुद्रिका दे वनफल खाया,

वन विध्वंस दशकंध सुत, वध कर लंक जलाय,

चूड़ामणि संदेश सिया का, दिया राम को आय,

हुए खुश त्रिभुवन भूपाला,

कृपा कर सालासर वाला,

Salasar Balaji

जोड़ी कपि दल रघुवर चाला, कटक हित सिंधु बांध डाला,

युद्ध रच दीन्हा विकराला, कियो राक्षसकुल पैमाला,

लक्ष्मण को शक्ति लगी, लायौ गिरी उठाय,

देइ संजीवन लखन जियाए, रघुबर हर्ष सवाय,

गरब सब रावन का गाला,

कृपा कर सालासर वाला,

रची अहिरावन ने माया, सोवते राम लखन लाया,

बने वहां देवी की काया, करने को अपना चित चाया,

अहिरावन रावन हत्यौ, फेर हाथ को हाथ,

मंत्र विभीषण पाय आप को, हो गयो लंका नाथ,

खुल गया करमा का ताला,

कृपा कर सालासर वाला,

Salasar Balaji

अयोध्या राम राज्य कीना, आपको दास बना दीना,

अतुल बल घृत सिंदूर दीना, लसत तन रूप रंग भीना,

चिरंजीव प्रभु ने कियो, जग में दियो पुजाय,

जो कोई निश्चय कर के ध्यावे, ताकी करो सहाय,

कष्ट सब भक्तन का टाला,

कृपा कर सालासर वाला,

भक्तजन चरण कमल सेवे, जात आत सालासर देवे,

ध्वजा नारियल भोग देवे, मनोरथ सिद्धि कर लेवे,

कारज सारों भक्त के, सदा करो कल्याण,

विप्र निवासी लक्ष्मणगढ़ के, बालकृष्ण धर ध्यान,

नाम की जपे सदा माला,

कृपा कर सालासर वाला।

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