Mahakali Stotra : शत्रु भय से मुक्ति के लिए पढ़े यह स्तोत्र।
नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट mahakali stotra में आपका हार्दिक अभिनंदन है। दोस्तों, जगज्जननी माता भगवती अपने भक्तों की रक्षा के लिए सौम्य रूप धारण करती है, किन्तु जब उन्हीं भक्तों पर कोई विपदा आती है तो वह अपना यह रूप त्यागकर विकराल रूप धारण कर अपने साधकों की रक्षा के लिए तत्पर रहती हैं।
मां काली का रूप माता भगवती का ही एक उग्र स्वरूप है। आज की पोस्ट में हम माता महाकाली के स्तोत्र का पाठ करेंगे क्योंकि इस स्तोत्र के पाठ करने से साधक को शत्रु भय से मुक्ति मिलती है तथा उसके जीवन से सभी प्रकार की बाधाओं का अंत हो जाता है। तो आईये, हम भी इस स्तोत्र का पाठ करते हैं –
Mahakali Stotra : श्री महाकाली स्तोत्र
ध्यानम्
शवारूढां महाभीमां घोरदम्ष्ट्रां वरप्रदां
हास्ययुक्तां त्रिणेत्राञ्च कपाल कर्त्रिका करां ।
मुक्तकेशीं ललज्जिह्वां पिबन्तीं रुधिरं मुहुः
चतुर्बाहुयुतां देवीं वराभयकरां स्मरेत् ॥
शवारूढां महाभीमां घोरदम्ष्ट्रां हसन्मुखीं
चतुर्भुजां खड्गमुण्डवराभयकरां शिवां ।
मुण्डमालाधरां देवीं ललज्जिह्वां दिगम्बरां
एवं सञ्चिन्तयेत्कालीं श्मशनालयवासिनीम् ॥
स्तोत्र प्रारंभ
ऊं विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीं ।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभाम् ॥
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरान्विका ।
सुधात्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता ॥
अर्थमात्रा स्थिता नित्या यानुच्छार्या विशेषतः ।
त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा ॥
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतद् सृज्यते जगत् ।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ॥
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ।
महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी ॥
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प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी ।
कालरात्रि-महारात्रि-मोहरात्रिश्च दारुणा ॥
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिः त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ॥
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा ।
शङ्खिनी चापिनी बाणा भुशुण्डी परिघा युधा ॥
सौम्या सौम्यतराशेषा सौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ।
परापराणां च परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥
यच्च किञ्चिद्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके ।
तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा ॥
यया त्वया जगत् स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् ।
सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ॥
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च ।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ॥
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता ।
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ॥
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mahakali stotra
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु ।
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ॥
त्वं भूमिस्त्वं जलं च त्वमसिहुतवह स्त्वं जगद्वायुरूपा ।
त्वं चाकाशम्मनश्च प्रकृति रसिमहत्पूर्विका पूर्व पूर्वा ॥
आत्मात्वं चासि मातः परमसि भगवति त्वत्परान्नैव किञ्चित् ।
क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटित वदने कामरूपे कराले ॥
कालाभ्रां श्यामलाङ्गीं विगलित चिकुरां खड्गमुण्डाभिरामां ।
त्रासत्राणेष्टदात्रीं कुणपगण शिरोमालिनीं दीर्घनेत्राम् ॥
संसारस्यैकसारां भवजननहरां भावितो भावनाभिः ।
क्षन्तव्यो मेऽपराधः प्रकटित वदने काम रूपे कराले ॥
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॥इति॥
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