Santoshi Mata Ki Katha : संतोषी माता की कथा व आरती|
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नमस्कार दोस्तों, हमारे ब्लॉग पोस्ट Santoshi Mata Ki Katha में आपका हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, मां दुर्गा के अनेक स्वरूप हैं जो माता ने समय -समय पर अपने भक्तों के संकट टालने तथा उनके उद्धार के लिए धारण किये। उन्हीं में से एक स्वरूप मां संतोषी का है।
आज की पोस्ट में हम आपके लिए लाये हैं मां संतोषी की कथा व आरती जिसका पाठ करने से माता का आशीर्वाद प्राप्त होता है तथा व्यक्ति के जीवन में संतोष तथा समृद्धि दोनों की वर्षा होती है। तो आईये, पोस्ट शुरू करते हैं।
Santoshi Mata Ki Katha : संतोषी माता व्रत कथा
एक वृद्ध महिला के सात बेटे थे। 6 कमाने वाले थे जबकि एक कुछ नहीं करता था। वृद्धा छ: बेटों का खाना बनाती, भोजन कराती और उनसे जो कुछ जूठन बचती वह सातवें को दे देती। एक दिन छटा बेटा अपनी पत्नी से बोला देखो मेरी माँ को मुझ पर कितना प्रेम है।
वह बोली क्यों नहीं, सबका झूठा जो तुमको खिलाती है। वह बोला- ऐसा नहीं हो सकता है। मैं जब तक आँखों से न देख लूं मान नहीं सकता। वह हंस कर बोली- देख लोगे तब तो मानोगे।
कुछ दिन बाद त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने। वह जांचने को सिर दुखने का बहाना कर पतला वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में सो गया। वह कपड़े में से सब चुपचाप देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आए। उसने देखा, माँ ने उन सबके लिए सुन्दर आसन बिछा नाना प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह करके उन्हें जमाया। वह देखता रहा। Santoshi Mata Ki Katha
छहों भोजन करके उठे तब माँ ने उनकी झूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया।
जूठन साफ कर बुढ़िया माँ ने उसे पुकारा- बेटा, छहों भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी है, उठ तू कब खाएगा।
वह कहने लगा- माँ मुझे भोजन नहीं करना, मैं अब परदेश जा रहा हूँ। माँ ने कहा कल जाता हो तो आज ही चला जा।
वह बोला- हाँ आज ही जा रहा हूँ। यह कह कर वह घर से निकल गया।
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परदेश जाने तैयारी
जब वह जाने लगा तब उसकी पत्नी गोबर लीप रही थी वह पत्नी से बोला मैं जाता हूं अपनी कुछ निशानी मुझे दे।
वह बोली- मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है। यह कह कर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया, चलते-चलते दूर देश पहुँचा। Santoshi Mata Ki Katha
परदेश में एक साहूकार की दुकान थी, वहाँ उसे नौकरी मिल गई । कुछ ही दिनों में वह दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना आदि काम करने लगा। सेठ ने भी उसकी मेहनत और ईमानदारी देखकर तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया। वह कुछ वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक ने सारा कारोबार उसपर छोड़ दिया।
सास का पत्नी पर अत्याचार
इधर उसकी पत्नी को सास व भाभियां बहुत परेशान करती थीं। सारी गृहस्थी का काम कराके वे सब उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते। इस बीच घर के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और नारियल के टुकडे में पानी। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी, रास्ते में बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखीं ।
वह वहाँ खड़ी होकर कथा सुनने लगी और पूछा- बहिनों तुम किस देवता का व्रत करती हो और उसके करने से क्या फल मिलता है? यदि तुम इस व्रत का विधान मुझे समझा कर कहोगे तो मैं तुम्हारी आभारी रहूंगी। तब उनमें से एक स्त्री बोली- सुनो, यह संतोषी माता का व्रत है। इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और जो कुछ मन में कामना हो, सब संतोषी माता की कृपा से पूरी होती है। तब उसने उससे व्रत की विधि पूछी।
संतोषी माता व्रत विधि
वह स्त्री बोली- सवा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या सवा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार लाना। बिना परेशानी और श्रद्धा व प्रेम से जितना भी बन पड़े, सवाया लेना। प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रह कर कथा सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना, सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जला उसके आगे या जल के पात्र को सामने रखकर कथा कहना। कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना।
तीन मास में माता फल पूरा करती है। यदि किसी के ग्रह खोटे भी हों, तो भी माता वर्ष भर में कार्य सिद्ध करती है, फल सिद्ध होने पर हीउद्यापन करना चाहिए, बीच में नहीं। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना। आठ लड़कों को भोजन कराना, जहाँ तक मिलें देवर, जेठ, भाई-बंधु के हों, न मिले तो रिश्तेदारों और पास-पड़ोसियों को बुलाना। उन्हें भोजन करा यथाशक्ति दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना। उस दिन घर में खटाई न खाना। यह सुन बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी।
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व्रत का प्रण और मां संतोषी की कृपा
रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर संतोषी माता के
मंदिर जाने लगी व शुक्रवार व्रत करने लगी। माता को दया आई- एक शुक्रवार बीता कि दूसरे को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुँचा। यह देख जेठ-जिठानी मुंह सिकोडने लगे।
लेकिन वह आँखों में आँसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी और बोली माँ मैंने तुमसे पैसा कब माँगा है। मुझे पैसे से क्या काम है, मुझे तो अपने सुहाग से काम है, मैं तो अपने स्वामी के दर्शन माँगती हूँ। तब माता ने प्रसन्न होकर कहा- जा बेटी, तेरा स्वामी जल्दी ही आयेगा। यह सुनकर खुशी से बावली होकर घर में जा काम करने लगी।
एक दिन संतोषी माँ उसके पति से स्वप्न में बोलीं- भोले पुत्र ! तेरी बहू घोर कष्ट उठा रही है, तेरे घरवाले उसे परेशानी दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले। वह बोला- हाँ माता जी परंतु जाऊं तो कैसे ? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चला जाऊं ?
माँ कहने लगी- मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ। देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा, जमा का माल बिक जाएगा, सांझ होते-होते धन का भारी ठेर लग जाएगा। उसने ऐसा ही किया। थोड़ी देर में देने वाले रुपया लाने लगे, लेने वाले हिसाब लेने लगे। शाम तक धन का भारी ढेर लग गया।
मन में माता का नाम लेकर अब वह चमत्कार देख प्रसन्न होकर गहना, कपड़ा सामान खरीदा और बाकी काम से निपटकर सारा सामान लेकर तुरंत घर को रवाना हुआ। उधर उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते समय वह माताजी के मंदिर में विश्राम करती। एक दिन रास्ते में धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है- हे माता! यह धूल कैसे उड़ रही है?
माता कहती है- हे पुत्री तेरा पति आ रहा है। अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख और दूसरा मेरे मंदिर पर व तीसरा अपने सिर पर।
तेरे पति को लकड़ियों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर माँ से मिलने जाएगा, तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर जाना और चौक में गट्ठर डालकर जोर से आवाज लगाना- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है? माताजी से बहुत अच्छा कहकर वह प्रसन्न मन से लकड़ियों के तीन गट्ठर बनाई। एक नदी के किनारे पर और एक माताजी के मंदिर पर रखा।
इतने में उसका पति आ पहुँचा। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा उत्पन्न हुई कि हम यही पर विश्राम करें और भोजन बनाकर खा-पीकर गाँव जाएं। इसी तरह रुक कर भोजन बना, विश्राम करके गाँव को गया। सबसे प्रेम से मिला। उसी समय सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए वह उतावली सी आती है। लकड़ियों का भारी बोझ आंगन में डालकर जोर से तीन आवाज देती है- लो सासूजी, लकड़ियों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो। आज मेहमान कौन आया है ?
यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- बहु ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहन। उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आता है। उसे देख व्याकुल हो जाता है।
माँ से पूछता है- माँ यह कौन है ? माँ बोली- बेटा यह तेरी बहु है। जब से तू गया है तब से सारे गाँव में भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ करती नहीं, चार पहर आकर खा जाती है। वह बोला- ठीक है माँ मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी, अब दूसरे घर की ताली दो, उसमें रहूँगा। माँ बोली- ठीक है, जैसी तेरी मरजी।
तब वह दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोल सारा सामान जमाया। एक दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था ? बहु सुख भोगने लगी। इतने में शुक्रवार आया। santoshi mata ki vrat katha
व्रत के उद्यापन में भूल से खटाई का प्रयोग
पत्नी बोली- मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है। पति बोला- खुशी से कर लो। वह उद्यापन की तैयारी करने लगी। जिठानी के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई। उन्होंने न्यौता स्वीकार किया परन्तु जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया, देखो, भोजन के समय खटाई माँगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो।
लड़के जीमने आए और खीर आदि पेट भर खाया, परंतु बाद में खाते ही कहने लगे- हमें खटाई दो, खीर खाना हमको नहीं भाता, देखकर अरुचि होती है। वह कहने लगी खटाई किसी को नहीं दी जाएगी। लड़के उठ खड़े हुए, बोले- पैसा लाओ, भोली बहू कुछ जानती नहीं थी, उन्हें पैसे दे दिए।
लड़के उसी समय हठ करके इमली खटाई ले खाने लगे। यह देखकर बहु पर मां कुपित हो गईं। राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए। जेठ जेठानी मन-माने वचन कहने लगे। लूट-लूट कर धन इकट्ठा कर लाया है, अब सब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा। बहू से यह सहन नहीं हुए।
माँ संतोषी से प्रार्थना
बहु रोती हुई माताजी के मंदिर गई, कहने लगी- हे माता! तुमने क्या किया, हंसा कर अब भक्तों को रुलाने लगी।
माता बोली- बेटी तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है। वह कहने लगी मां मैंने कुछ अपराध किया है, मैंने तो भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे, मुझे क्षमा करो। मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूँगी।
माँ ने प्रार्थना स्वीकार कर ली और बोलीं- जा पुत्री, तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलेगा। वह निकली, राह में पति आता मिला।
वह पूछी- कहाँ गए थे ? वह कहने लगा- इतना धन जो कमाया है उसका टैक्स राजा ने माँगा था, वह भरने गया था।
वह प्रसन्न हो बोली- भला हुआ, अब घर को चलो। कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया । santoshi mata ki vrat katha
पुन: किया व्रत का उद्यापन
इस बार बहु ने ब्राह्मण के लड़कों को लाकर भोजन कराया, यथा शक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया। संतोषी माता इस उद्यापन से संतुष्ट हुईं। माता की कृपा से नवमें मास में उनको चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र को पाकर प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी।
माँ ने सोचा- यह रोज आती है, आज क्यों न इसके घर चलूं। यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया और उससे घर पहुंच गईं सभी ने उन्हें देखकर डर के मारे चिल्लाकर खिड़की बंद कर लीं। लेकिन बहु रौशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली बन चिल्लाने लगी और सास से बोली माँ मैं जिसका व्रत करती हूँ यह संतोषी माता हैं।
सबने माता जी के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे- हे माता! हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है, जग माता आप हमारा अपराध क्षमा करो। इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। बहू को प्रसन्न हो जैसा फल दिया, वैसा माता सबको दे, जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो।
॥बोलो संतोषी माता की जय॥
Santoshi Mata Ki Aarti : संतोषी माता की आरती
जय सन्तोषी माता,
मैया जय सन्तोषी माता ।
अपने सेवक जन की,
सुख सम्पति दाता ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
सुन्दर चीर सुनहरी,
मां धारण कीन्हो ।
हीरा पन्ना दमके,
तन श्रृंगार लीन्हो ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
गेरू लाल छटा छबि,
बदन कमल सोहे ।
मंद हंसत करुणामयी,
त्रिभुवन जन मोहे ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
स्वर्ण सिंहासन बैठी,
चंवर दुरे प्यारे ।
धूप, दीप, मधु, मेवा,
भोज धरे न्यारे ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
गुड़ अरु चना परम प्रिय,
तामें संतोष कियो ।
संतोषी कहलाई,
भक्तन वैभव दियो ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
शुक्रवार प्रिय मानत,
आज दिवस सोही ।
भक्त मंडली छाई,
कथा सुनत मोही ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
मंदिर जग मग ज्योति,
मंगल ध्वनि छाई ।
विनय करें हम सेवक,
चरनन सिर नाई ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
भक्ति भावमय पूजा,
अंगीकृत कीजै ।
जो मन बसे हमारे,
इच्छित फल दीजै ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
दुखी दारिद्री रोगी,
संकट मुक्त किए ।
बहु धन धान्य भरे घर,
सुख सौभाग्य दिए ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
santoshi mata ki aarti
ध्यान धरे जो तेरा,
वांछित फल पायो ।
पूजा कथा श्रवण कर,
घर आनन्द आयो ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
चरण गहे की लज्जा,
रखियो जगदम्बे ।
संकट तू ही निवारे,
दयामयी अम्बे ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
सन्तोषी माता की आरती,
जो कोई जन गावे ।
रिद्धि सिद्धि सुख सम्पति,
जी भर के पावे ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
जय सन्तोषी माता,
मैया जय सन्तोषी माता ।
अपने सेवक जन की,
सुख सम्पति दाता ॥ मैया जय सन्तोषी माता ॥
॥ इति ॥
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