Radha Kripa Kataksh : राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र ( हिंदी अर्थ सहित )
नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट Radha Kripa Kataksh स्तोत्र में आपका हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, मथुरा का नाम सुनते ही हम सभी के मन में श्रीकृष्ण की लीलाओं का चित्र मन में उभर आता है। ब्रज क्षेत्र में की गई उनकी बाल लीलाओं से लेकर उनके राजा बनने तक किये गये कार्य भारत ही नहीं अपितु विश्वभर में प्रसिद्ध हैं।
हम यह भी जानते हैं कि जब भी श्रीकृष्ण का नाम आता है तो राधा का नाम भी उनके साथ सदा ही लिया जाता है। यदि हम कहें कि बिना राधा के कृष्ण अधूरे हैं तो अतिशियोक्ति न होगी। वृषभान की दुलारी श्री राधारानी पूरे बरसाना में भगवान श्री कृष्ण से भी अधिक प्रभाव रखती हैं तथा पूजी जाती हैं। यही कारण है कि राधा जी का नाम भगवान कृष्ण से पहले आता है।
इस पोस्ट में हम श्री राधा जू को समर्पित तथा अत्यंत प्रिय श्री राधा कृपा कटाक्ष Radha Kripa Kataksh स्तोत्र को हिन्दी अर्थ सहित समझेंगे। तो आईये, पोस्ट आरंभ करते हैं।
Radha Kripa Kataksh: श्री राधा कृपा कटाक्ष स्तोत्र
मुनीन्द्रवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी,
प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी ।
व्रजेन्द्रभानुनन्दिनी व्रजेन्द्र सूनुसंगते,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥१॥
भावार्थ — हे देवी ! समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी हैं। हे जगजन्नली श्री राधे मां ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ?
अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते,
प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले ।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥२॥
भावार्थ — आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभयदान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं।
आपके हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंडार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी मां ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करेंगी ?
अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां,
सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः ।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥३॥
भावार्थ — रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बांकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी बाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी मां ! आप मुझे कब अपनी दृष्टि से कृतार्थ करेंगी ?
तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे,
मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले ।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥४॥
भावार्थ — आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं।
आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं। हे वृन्दावनेश्वरी माँ ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ?
मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते,
प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते ।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥५॥
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भावार्थ — आप अपने चिर-यौवन के आनन्द में मग्न रहने वाली हैं, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला में पारंगत हैं।
आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं। हे निकुँजेश्वरी माँ ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ?
Radha Kripa Kataksh
अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते,
प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी ।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥६॥
भावार्थ — आप सम्पूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगों वाली हैं, आपके पयोधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं।
आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है। हे कृष्णप्रिया माँ ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ?
मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते,
लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने ।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥७॥
भावार्थ — जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोकों से नाचते हुए लता के अग्रभाग के समान अवलोकन करने वाले हैं।
सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऐसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं। हे वृषभानुनन्दनी ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ?
सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे,
त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति ।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥८॥
भावार्थ — आप स्वर्ण मालाओं से विभूषित हैं, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है।
आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं। हे कीरतिनन्दनी माँ ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ?
नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण,
प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले ।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥९॥
भावार्थ — हे देवी ! तुम अपने घुमावदार कूल्हों पर फूलों से सजी कमरबंद पहनती हो, तुम झिलमिलाती हुई घंटियों वाली कमरबंद के साथ मोहक लगती हो, तुम्हारी सुंदर जांघें राजसी हाथी की सूंड को भी लज्जित करती हैं। हे देवी ! कब तुम मुझ पर अपनी कृपा कटाक्ष अर्थात दृष्टि डालोगी।
अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्,
समाजराजहंसवंश निक्वणातिग ।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥१०॥
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Radha Kripa Kataksh
भावार्थ — आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रों के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहंसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी।
अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते,
हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे ।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे,
कदा करिष्यसीह माँ कृपाकटाक्ष भाजनम् ॥११॥
भावार्थ — अनंत कोटि बैकुंठों की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्री पार्वती जी, इन्द्राणी व सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान प्राप्त किया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि प्राप्त हो जाती है। हे करूणामयी माँ ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ?
मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी,
त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी ।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी,
ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते ॥१२॥
भावार्थ — हे देवी ! आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप सम्पूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सभी देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी हैं, आप सम्पूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं।
आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं। हे ब्रजेश्वरी ! हे अधिष्ठात्री देवी श्रीराधिके, आपको मेरा बारम्बार नमन है।
इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी,
करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम् ।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं,
लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम् ॥१३॥
भावार्थ — हे वृषभानु नंदिनी ! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों तथा क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा।
राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः ।
एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥॥
यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः ।
राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात् प्रेमलक्षणा ॥१४-१५॥
भावार्थ — यदि कोई साधक पूर्णिमा, शुक्ल पक्ष की अष्टमी, दशमी, एकादशी तथा त्रयोदशी के रूप में जाने जाने वाले चंद्र दिवसों पर स्थिर मन से इस स्तवन का पाठ करे तो जो-जो साधक की मनोकामना हो वह पूर्ण हो। और श्री राधा की दयालु पार्श्व दृष्टि से वे भक्ति सेवा प्राप्त करें जिसमें भगवान के शुद्ध, परमानंद प्रेम के विशेष गुण हैं।
ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कण्ठदघ्नके ।
राधाकुण्डजले स्थिता यः पठेत् साधकः शतम् ॥॥
तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत् ।
ऐश्वर्यं च लभेत् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम् ॥१६-१७॥
भावार्थ — जो साधक श्री राधा-कुंड के जल में गर्दन तक खड़े होकर इस स्तम्भ अर्थात स्तोत्र का 100 बार पाठ करे, वह जीवन के पाँच लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा प्रेम में पूर्णता प्राप्त करे, उसे सिद्धि की प्राप्ति हो। उसकी वाणी समार्थ्यवान हो अर्थात उसकी कही बात व्यर्थ न जाए। उसे श्री राधिका जी को अपने सम्मुख देखने का ऐश्वर्य प्राप्त हो।
तेन स तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम् ।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत् प्रियं श्यामसुन्दरम् ॥॥
नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः ।
अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते ॥१९-१८॥
भावार्थ — श्री राधिका उस पर प्रसन्न होकर उसे महान वर प्रदान करें कि वह स्वयं अपने नेत्रों से उनके प्रिय श्यामसुंदर को देखने का सौभाग्य प्राप्त करे। वृंदावन के अधिपति अर्थात स्वामी उस भक्त को अपनी शाश्वत लीलाओं में प्रवेश दें। वैष्णव जन इससे आगे किसी चीज की लालसा नहीं रखते।
॥ इति श्रीमदूर्ध्वाम्नाये श्रीराधिकायाः कृपाकटाक्षस्तोत्रं सम्पूर्णम ॥
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नमस्कार दोस्तों, मैं सुगम वर्मा (Sugam Verma), Jagurukta.com का Sr. Editor (Author) & Co-Founder हूँ । मैं अपनी Education की बात करूँ तो मैंने अपनी Graduation (B.Com) Hindu Degree College Moradabad से की और उसके बाद मैने LAW (LL.B.) की पढ़ाई Unique College Of Law Moradabad से की है । मुझे संगीत सुनना, Travel करना, सभी तरह के धर्मों की Books पढ़ना और उनके बारे में जानना तथा किसी नये- नये विषयों के बारे में जानकारियॉं जुटाना और उसे लोगों के साथ share करना अच्छा लगता है जिससे उस जानकारी से और लोगों की भी सहायता हो सके। मेरी आपसे विनती है की आप लोग इसी तरह हमारा सहयोग देते रहिये और हम आपके लिए नईं-नईं जानकारी उपलब्ध करवाते रहेंगे। आशा है आप हमारी पोस्ट्स को अपने मित्रों एवं सम्बंधियों के साथ भी share करेंगे। और यदि आपका कोई question अथवा सुझाव हो तो आप हमें E-mail या comments अवश्य करें।