Gaya Dham : उत्पत्ति कथा व महत्व

Gaya Dham :  उत्पत्ति कथा व महत्व

नमस्कार दोस्तों ! हमारे ब्लॉग पोस्ट  Gaya Dham में आपका हार्दिक अभिनंदन है। दोस्तों, श्राद्ध पक्ष में गयाधाम की अनंत महिमा है। अपने पूर्वजों के पिंडदान हेतु यहां इस माह में देश ही नहीं अपितु विदेशों से भी लोग आते हैं तथा मृत आत्माओं की शांति हेतु प्रार्थना करते हैं।

इस पोस्ट में हम गयाधाम की उत्पत्ति तथा महत्व पर चर्चा करेंगे। तो आईये, पोस्ट आरंभ करते हैं –

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Gaya Dham : गया तीर्थ की उत्पत्ति

ब्रह्माजी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे उस समय उनसे असुर कुल में गयासुर नामक एक असुर की रचना हो गई। यह राक्षस असुरों के संतान रूप में पैदा नहीं हुआ था इसलिए उसमें आसुरी प्रवृत्ति का अभाव था। उसकी जीवनचर्या देवताओं की तरह थी तथा वह देवताओं का सम्मान तथा आराधना किया करता था।

एक दिन उसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि भले ही वह संत प्रवृत्ति का है किन्तु असुर कुल में उत्पन्न होने के कारण उसे कभी सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता। उसने सोचा कि क्यों न मैं इतने पुण्य अर्जित कर लूं कि मुझे देवताओं की तरह स्वर्ग की प्राप्ति हो जाये।

असुर का तपस्या आरंभ करना

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ऐसा सोचकर गयासुर ने कठोर तप आरंभ कर दिया। उसकी कठिन परीक्षा तथा समर्पण भाव देखकर भगवान श्री विष्णु प्रसन्न हो गये तथा उससे कोई वर मांगने को कहा। गयासुर हाथ जोड़कर विनम्रता के साथ बोला कि हे प्रभु ! आप मेरे शरीर में वास करें तथा यह वरदान प्रदान करें कि जो कोई भी मुझ पर दृष्टि डाले उसके समस्त पाप नष्ट हो जायें, वह जीव पुण्यात्मा होकर स्वर्ग में स्थान प्राप्त करे। गयासुर की यह परोपकारी भावना को देखकर श्री हरि प्रसन्न हो गये तथा उसे इच्छित वर प्रदान कर दिया।

वरदान का प्रभाव

भगवान विष्णु से मनवांछित वरदान पाकर गयासुर जिस स्थान पर भी जाता वहां के लोगों की उस पर दृष्टि पड़ने मात्र से उनके सारे पाप नष्ट हो जाते तथा वे सभी स्वर्ग के अधिकारी बन जाते थे। ऐसा होने से यमराज की व्यवस्था गड़बड़ा गई क्योंकि यदि कोई घोर पापी भी यदि गयासुर के दर्शन कर लेता तो उसके पाप नष्ट हो जाते।

यदि यमराज उसके जीवन भर के दुष्परिणामस्वरूप उसे नर्क भेजने की तैयारी भी करते तो वह गयासुर के दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग मांगने लगता। इस प्रकार यमराज को जीवात्माओं का हिसाब रखने में संकट आने लगा। कोई मार्ग न निकलता देख वह सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी के पास गये तथा उनके समक्ष अपनी समस्या रखी। 

यमराज बोले कि परमपिता ! गयासुर के वरदान के कारण आपका वह विधान समाप्त हो जाएगा जिसमें आपने सभी को उनके कर्म के अनुसार फल भोगने की व्यवस्था की है क्योंकि गयासुर के प्रभाव से सभी स्वर्ग के सुख भोगने के अधिकारी बन जायेंगे।

ब्रह्मा जी द्वारा समस्या का समाधान

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यमराज की समस्या पर गंभीरतापूर्वक विचार कर ब्रह्मा जी ने गयासुर को बुलाया और कहा कि हे असुर श्रेष्ठ ! तुम्हारी शरीर सर्वाधिक पवित्र है इसलिए तुम्हारी पीठ पर बैठकर स्वयं मैं सभी देवताओं के साथ यज्ञ करूंगा। अबसे तुम्हारी पीठ पर यज्ञ होगा। अपनी पीठ पर यज्ञ जैसे पवित्र कार्य होने की बात सुनकर वह सहर्ष तैयार हो गया। इसके बाद ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ एक शिला से दबाकर बैठ गये। किन्तु इतने भार के बाद भी वह घूमने-फिरने में समर्थ था। Gaya Dham

देवताओं का भगवान विष्णु जी की शरण लेना

देवताओं को चिंता हुई तो उन्होंने आपस में परामर्श किया तथा सोचा कि इसे श्री विष्णु ने वरदान दिया है इसलिये यदि स्वयं श्री हरि भी देवताओं के साथ उसकी पीठ पर बैठ जायें तो संभवतः गयासुर अचल हो जायेगा। श्री हरि भी उसकी पीठ पर आकर बैठ गये।

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इस पर गयासुर बोला आप सभी तथा मेरे आराध्य श्री हरि विष्णु की मर्यादा रखने के लिए अब मैं अचल हो रहा हूं तथा घूम-घूमकर लोगों के पाप हरने का कार्य बंद कर दूंगा। किन्तु मुझे चूंकि श्री हरि ने स्वयं वरदान दिया है इसलिए वह मिथ्या नहीं हो सकता सो मैं भगवान विष्णु जी से प्रार्थना करता हूं कि वह मुझे पत्थर की शिला के रूप में इसी स्थान पर स्थापित कर दें।

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भगवान श्री नारायण का गयासुर को आशीर्वाद

गयासुर की इस भावना को देखकर श्री हरि अत्यधिक प्रसन्न हुये तथा बोले कि हे असुर श्रेष्ठ ! तुम्हारी यदि कोई और इच्छा हो तो मांग लो क्योंकि मैं तुमसे प्रसन्न हूं। गयासुर बोला — हे नारायण ! मेरी इच्छा है कि आप स्वयं सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप में इसी शिला पर विराजमान रहें तथा यह स्थान मृत्यु के बाद किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थ स्थल बन जाए।

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भगवान श्री विष्णु बोले — गयासुर ! तुम धन्य हो। तुमने लोगों के जीवित अवस्था में भी कल्याण का वर मांगा और मृत्यु के बाद भी मृत आत्माओं के कल्याण के लिए वर मांग रहे हो, तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सभी बंध गये हैं। तुम्हारी सभी मनोकामनायें पूर्ण होंगी।

गयासुर से गया तीर्थ में परिवर्तन

श्री भगवान ने उसे आशीर्वाद दिया कि जहां गयासुर की शिला स्थापित वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी। इस क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्धभाग गया नाम से तीर्थ रूप में विख्यात होगा तथा मैं स्वयं यहां विराजमान रहूंगा।

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इस तीर्थ से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा। साथ ही वहां भगवान श्री विष्णु ने अपने पैर का चिन्ह स्थापित किया जो आज भी वहां के मंदिर में दर्शनीय है। गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है।

Gaya Ji Dham : कब व कैसे हुई पिण्डदान की परंपरा ?

पिंडदान की शुरुआत कब तथा किसने की यह बता पाना उतना ही कठिन है जितना सनातन संस्कृति की प्राचीनता के बारे में बता पाना। स्थानीय पंडों के अनुसार सर्वप्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने पिंडदान किया था। महाभारत के वन पर्व में भीष्म पितामह और पांडवों की गया यात्रा का उल्लेख मिलता है। 

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गया के पंडों के पास स्थित साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस तथा चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है।

फाल्गू नदी क्यों है सूखी ?

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीताजी के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचे तथा आवश्यक सामग्री लेने चलगे गये। प्रभु राम को लौटने में विलम्ब हो गया इस बीच राजा दशरथ की आत्मा न पिंड की मांग कर दी।

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फल्गू नदी के तट पर अकेली बैठी सीताजी असमंजस में पड़ गईं। माता सीता ने फल्गू नदी, गाय, वटवृक्ष तथा केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया, जब श्री राम वापस आये तो सीता जी ने उन्हें पूरी बात बताई किन्तु श्री राम को विश्वास नहीं हुआ।

सीता जी का क्रोधित होकर शाप देना

विश्वास न होते देख माता सीता ने जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन्हें बुलवाया। फल्गू नदी, गाय तथा केतकी फूल ने झूठ बोल दिया किंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुये सत्य बात कह दी। माता सीता ने इस पर क्रोधित होकर फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी, गाय को मैला खाने का श्राप दिया तथा केतकी के फूल को पितृ पूजन में निषेध का।

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वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीताजी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने तथा लंबी आयु का वरदान दिया। उसी दिन से फल्गू नदी सूखी रहती है जबकि वटवृक्ष पूजनीय हो गया। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुण्ड में बालू का पिंडदान करने की परंपरा है।

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